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न लिखने के खूबसूरत बहाने

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ऐसा क्यों होता है कि जब हम लोग लिखने से जी चुराने लगते हैं और दोष देते हैं कि क्या करें समय नहीं मिला, क्या करें व्यस्ततता बहुत बढ़ गई है, क्या करें दफ्तर में स्थितियां तनावपूर्ण हैं इसलिए इस तरफ ध्यान नहीं है, क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या लिखें...कुछ ऐसे ही बहाने या इससे भी खूबसूरत बहाने हम लोग तलाश लेते हैं। कुछ और लोगों ने इसमें यह भी जोड़ दिया है कि अरे ब्लॉग पर लिखने के लिए इतना क्या गंभीर होना या ब्लॉग ही तो है जब अपना लिखा खुद पढ़ना और खुश होना है तो फिर कभी भी लिख लेंगे... लेकिन यह तमाम बातें सही नहीं हैं। मुझे इसका आभास इन दिनों तब हुआ जब मैंने ब्लॉग पर लिखना बिल्कुल बंद कर दिया और ईमेल पर और फोन तमाम लोगों के उलहने सुनने को मिले। कुछ लोगों ने तो उम्र के साथ कलम में जंग लगने तक का ताना मार दिया। ...यह सच है कि जो लिखने वाले हैं उन्हें लिखना चाहिए फिर वह चाहे खुद के परम संतोष के लिए लिखना हो या फिर दूसरों तक अपनी बात पहुंचाने की बात हो। अब देखिए न लिखने से मैंने क्या-क्या इन दिनों मिस किया...जैसे देश के तमाम घटनाक्रमों पर कलम चलाने की जरूरत थी। खासकर दिल्ली में ज

प्यार की संवेदनाओं से खड़ा होता है मजहब

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सुप्रसिद्ध लेखिका सादिया देहलवी की सूफीज्म पर हाल ही में एक किताब छपकर आई है। यह इंटरव्यू मैंने उसी संदर्भ में उनसे लिया है। इसे आज के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित भी किया जा चुका है। इसे वहां से साभार सहित लिया जा रहा है। इस्लाम और सूफी सिलसिला एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह एक मजहब है जिसमें कड़े नियम कानून हैं लेकिन दरअसल सूफीज्म इस्लाम की जान है। मेरी किताब सूफीज्म (प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स) इसी पर रोशनी डालती है। सूफी सिलसिले में शानदार शायरी, डांस, आर्ट और सबसे ज्यादा उस प्यार को पाने की परिकल्पना है जिसे पूरी दुनिया अपने-अपने नजरिए से देखती है। बहुत सारे मुसलमानों और ज्यादातर गैर मुस्लिमों के लिए यह स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है कि इस्लाम में सूफी नामक कोई अध्यात्मिक धारा भी बहती है। सूफी संत इसे अहले दिल कहते हैं यानी दिल वाले। उनकी नजर में धर्म का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि उसमें प्यार की संवेदनाएं न हों। इसीलिए सूफीज्म को इस्लाम का दिल कहा जाता है। पर, नई पीढ़ी के लिए इसका मतलब बदलता जा रहा है। बहरहाल, इस्लाम और सूफीज्म को अलग नहीं किया जा सक

तू न सलमा है न सीमा... इंसानियत पर तमाचा है तू

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उसका नाम सलमा भी है और सीमा भी है। जब वह किसी मुसलमान के घर में झाड़ू-पोंछा करती है तो सलमा बन जाती है और जब किसी हिंदू के यहां काम करती है तो सीमा बन जाती है। यह कहानी दिल्ली जैसे महानगर में काम करने वाली हजारों महिलाओं की है जो अपनी आजीविका के लिए दोहरी जिंदगी जी रही हैं। यह कहानी मेरी गढ़ी हुई भी नहीं है। राजधानी से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार द हिंदुस्तान टाइम्स ने दो दिन पहले इसे प्रकाशित किया है और जिसने इन्हें पढ़ा वह कुछ सोचने पर मजबूर हो गया। इस कहानी की गूंज दिल्ली के सोशल सर्कल से लेकर राजनीतिक और बुद्धजीवियों के बीच भी रही। नस्लवाद या रेसिज्म पर तमाम ब्लॉगों और अखबारों में अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। यह काम अब भी जारी है। लोग आस्ट्रेलिया के लोगों को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। लेकिन देश की राजधानी में अगर हजारों महिलाओं को इस तरह की दोहरी जिंदगी जीना पड़ रही है तो इस मुद्दे को सामने लाना और इस पर बहस करना जरूरी है। अखबार की उसी रिपोर्ट के मुताबिक दरअसल, वह महिला मुस्लिम ही है और जब वह अपने असली नाम से कई घरों में काम मांगने गई तो उसे काम नहीं मिला और चार बातें सुनने को मिल

हबीब तनवीर का जाना

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मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर ने ऐसे वक्त में आंख बंद की है, जब भारत का रंगकर्म धीरे-धीरे परिवक्वता की तरफ बढ़ रहा था। खासकर दिल्ली के रंगकर्मी अब किस दादा के पास टिप्स लेने जाएंगे, कुछ समझ नहीं आ रहा। हबीब साहब ऐसे रंगकर्मी नहीं थे जिन्होंने सत्ता या सरकार से समझौता किया हो। चाहे सन् 2000 में जहरीली हवा का उन्होंने मंचन किया हो या फिर 2006 में राज रक्त का मंचन रहा हो। अपनी शैली और अपने अंदाज में उनकी बात कहने का ढंग बड़ा निराला था। पोंगा पंडित के मंचन पर जब आरएसएस और बीजेपी के लोगों ने हल्ला मचाया तो वह इस नाटक को किसी भी कीमत पर वापस लेने को तैयार नहीं हुए। एक नुक्कड़ नाटक के मंचन के दौरान सफदर हाशमी की हत्या (जिसमें कांग्रेस के एक विधायक पर आरोप है) का सबसे तीखा विरोध हबीब साहब ने ही किया था। उसके बाद सहमत जैसी संस्था अस्तित्व में आई। रंगकर्म के बारे में मेरे जैसे नासमझ लोगों ने जिन लाहौर वेख्या के बाद ही समझ पाए कि दरअसल नाटक की जुबान क्या होती है और सामने बैठे व्यक्ति से किस तरह सीधा संवाद किया जाता है। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित उनका नाटक मोटेराम का सत्याग्रह इसकी जीती जागती मिसाल