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बारह बरस से भटकती रूहें...

साभार...जनपथ ब्लॉग                                                  लेखक   अभिषेक श्रीवास्‍तव इतिहास गवाह है कि प्रतीकों को भुनाने के मामले में फासिस्‍टों का कोई तोड़ नहीं। वे तारीखें ज़रूर याद रखते हैं। खासकर वे तारीखें, जो उनके अतीत की पहचान होती हैं। खांटी भारतीय संदर्भ में कहें तो किसी भी शुभ काम को करने के लिए जिस मुहूर्त को निकालने का ब्राह्मणवादी प्रचलन सदियों से यहां रहा है, वह अलग-अलग संस्‍करणों में दुनिया के तमाम हिस्‍सों में आज भी मौजूद है और इसकी स्‍वीकार्यता के मामले में कम से कम सभ्‍यता पर दावा अपना जताने वाली ताकतें हमेशा ही एक स्‍वर में बात करती हैं। यह बात कितनी ही अवैज्ञानिक क्‍यों न जान पड़ती हो, लेकिन क्‍या इसे महज संयोग कहें कि जो तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कालिख की तरह यहां के फासिस्‍टों के मुंह पर आज से 12 साल पहले पुत गई थी, उसे धोने-पोंछने के लिए भी ऐन इसी तारीख का चुनाव 12 साल बाद दिल्‍ली से लेकर वॉशिंगटन तक किया गया है ? मुहावरे के दायरे में तथ्‍यों को देखें।  27 फरवरी 2002  को गुजरात के गोधरा स्‍टेशन पर साबरमती एक्‍सप्रेस जलाई गई थी

चार्वाक: इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"...

चार्वाक: इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"... 27 फरवरी 2002 को हुए गोधरा कांड के परदे में जिस गुजरात कत्लेआम की शुरुआत हुई थी, समूची इंसानी सभ्यता के उस ऐतिहासिक कलंक को दफ़न करने की मंशा से इस तारीख पर अब धुंधली परतें चढ़ाने की कोशिश की जा रही हैं। लेकिन क्या वह सचमुच भूल सकने वाली कोई त्रासद साजिश थी? क्या उसे भूला जाना चाहिए? गुजरात कत्लेआम की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी "मास्टर साहब की डायरी" बड़ी जद्दोजहद से किसी तरह "पाखी" में छप सकी थी। इससे पहले "कथादेश" जैसी एकाध पत्रिकाओं में घोषणा के कई महीने के बाद भी नहीं छप सकी थी। कुछ जगहों पर इसमें संपादक ने अपने हिसाब से फेरबदल करने की सलाह दी थी। हमने यह सलाह ख़ारिज़ कर दी। लेकिन प्रेम भारद्वाज ने इसे अपनी शक्ल में छापा था। आज उस कत्लेआम की शर्म पर परदा डालने की कोशिश के बीच उसकी याद बनाए रखने के मकसद से इस कहानी को आप सबके साथ फिर से साझा कर रहा हूं। हां, मैं चाहता हूं कि इंसानियत के लिए शर्मिंदगी और सभ्यता पर कलंक उस "शासकीय" कत्लेआम को याद रखा जाए, तब तक, जब तक हम एक ऐसी जम

मदर्स डे पर बहस

This article is also available on NavBharat Times newspaper's portal www.nbt.in in blog section. आज अपने एक दोस्त के घर गया तो वहां उनके बेटे और बेटी को मदर्स डे (Mother's Day) पर बहस करते पाया। उनकी बेटी ने मां के उठने से पहले किचन में एक बड़ा सा पोस्टर चिपका दिया था जिसमें मां को मदर्स डे की बधाई दी गई थी। उनके बेटे ने अपनी बहन का मजाक उड़ाया और कहा कि इस तरह की आर्टिफिशयल चीजों से मदर्स डे मनाना फिजूल है। यह दिखावा है और यह सब हमारी संवेदनाओं का बाजारीकरण है। मेरे पहुंचने पर दोनों ने मुझे पंच बनाकर अपने- अपने विचारों के हक में राय मांगी।...मेरी गत बन गई। एक तरफ मैं उस मीडिया का हिस्सा हूं जो इस बाजारीकरण या इसे इस मुकाम तक लाने में अपनी खास भूमिका निभा रहा है और आर्चीज वालों के साथ मिलकर 365 दिनों को किसी न किसी डे (दिवस) में बांट दिया है, दूसरी तरफ संवेदनशीलता यह कहती है कि अगर ऐसे दिवस मनाए जा रहे हैं तो भला इसमें बुराई क्या है, सोसायटी को कोई नुकसान तो नहीं हो रहा है। पता नहीं मौजूदा पीढ़ी को मक्सिम गोर्की के बारे में ठीक से पता भी है या नहीं या फिर अब व

गुंडे कैसे बन जाते हैं राजा

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मेरे मोबाइल पर यूपी से कॉल आमतौर पर दोस्तों या रिश्तेदारों की ही आती है लेकिन इधर दो दिनों से  कुंडा (प्रतापगढ़) में डीएसपी जिया-उल-हक की हत्या के बाद ऐसे लोगों की कॉल आई जो या तो सियासी लोग हैं या ऐसे मुसलमान जिनका किसी संगठन या पॉलिटिक्स (Politics) से कोई मतलब नहीं है। ये लोग यूपी के सीएम अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव को जी भरकर गालियां दे रहे थे। मैं हैरान था कि ये वे लोग हैं जो समाजवादी पार्टी को भारी बहुमत से जिताकर लाए थे और अखिलेश के चुनावी वादे लैपटॉप-टैबलेट (Laptop-Tablate) और बेरोजगारी भत्ते के हसीन सपनों में खोए हुए थे। मैं जब पिछली बार फैजाबाद में था तो इनमें से कुछ लोग मोहल्ले और पड़ोस की लिस्ट बनाने में जुटे थे और हिसाब लगा रहे थे कि किसको नेताजी से लैपटॉप दिलवाना है और किसको मुफ्त का भत्ता दिलाना है। ...लेकिन भत्ता तो नहीं लेकिन अखिलेश और उनके प्रशासन ने यूपी के मुसलमानों को ऐसी टैबलेट दी है कि जिसे वे न तो निगल पा रहे हैं और न उगल पा रहे हैं। कुंडा में डीएसपी की हत्या के बाद टांडा में हिंदू-मुस्लिम दंगे के बाद कर्फ्यू लगाना पड़ा। बरेल

आमिर खान और सत्यमेव जयते…क्या सच की जीत होगी

मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स की वेबसाइट nbt.in पर भी उपलब्ध है। थोड़ी देर के लिए बॉलिवुड स्टार आमिर खान (Bollywood Star Aamir Khan) के टीवी प्रोग्राम सत्यमेव जयते (Satyamev  Jayate) को अलग रखकर डॉक्टरों की दुनिया पर बात करते हैं। तमाम मुद्दे...सरोकार...हमारे आसपास हैं और उनसे पूरा देश और समाज हर वक्त रूबरू होता रहता है। पर कितने हैं जो इनसे वास्ता रखते हैं या इनका खुलकर प्रतिकार करते हैं। आमिर खान बॉलिवुड के बड़े स्टार हैं, उनकी एक मॉस अपील है। आप लोगों में से जिन्होंने 6 मई को उनका टीवी शो सत्यमेव जयते देखा होगा, या तो बहुत पसंद आया होगा या फिर एकदम से खारिज कर दिया होगा। फेसबुक (Facebook) हर बार की तरह ऐसे लोगों की प्रतिक्रिया का पसंदीदा अड्डा है। शो खत्म होने के बाद प्रतिक्रियाएं आने लगीं। हमारे कुछ मित्रों ने कन्या भ्रूण हत्या (Female Foeticide) को धर्म और वर्ण में बांटने की कोशिश भी की। फेसबुक से पता चल रहा है कि वे इसे सिर्फ सवर्ण हिंदुओं की समस्या मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि मुसलमान और दलित अपनी बेटियों को नहीं मारते। उन्होंने आंकड़े भी पेश किए हैं। मैं कम से कम इस स

कवि-कथाकार संजय कुंदन क्या वाकई ब्राह्मणवादी हैं

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अविनाश के मोहल्ला ब्लॉग पर फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित प्रमोद रंजन की संपादकीय टिप्पणी , मॉडरेटर का वक्तव्य और इन सब पर कुछ लोगों की प्रतिक्रियाएं पढ़ीं तो मन में कुछ सवाल उठे , बातें उभरीं , जिन्हें आप लोगों से शेयर करना चाहता हूं। पहली बार बहुजन आलोचना की अवधारणा का पता चला। अगर इस संदर्भ को समझने में परेशानी हो तो पहले प्रमोद रंजन की टिप्पणी मोहल्ला लाइव ब्लॉग पर पढ़ें, इस लिंक पर जाएं http://mohallalive.com/2012/04/24/bahujan-sahitya-varshiki-editorial-of-forward-press - यूसुफ किरमानी साहित्य एक जनतांत्रिक माध्यम है। हर किसी को हक है कि वह नई-नई अ ï वधारणा लेकर आए। वैसे बहुजन का फॉर्मूला यूपी और बिहार की राजनीति में पिट चुका है। राजनेता अब इससे आगे निकल चुके हैं। लेकिन अब साहित्य में इसे चलाने की कोशिश की जा रही है। सच्चाई यह है कि सामाजिक संरचना को बौद्धिकों से बेहतर राजनेता ही समझते हैं। (क्या इसीलिए अब भी हिंदीभाषी क्षेत्र की जनता पर साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों से ज्यादा राजनेताओं की बात का असर होता है ?) खैर, प्रमोद रंजन ने जो बहुजन आलोचना पेश की है उसके मानदंड ब

ज्योति संग की खूबसूरत खलिश

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यह लेख नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है। मैं इसे वहां से साभार अपने इस ब्लॉग के लिए ले रहा हूं। उस शख्स को मैं पिछले दो दशक से तो जानता ही हूं। उसके व्यक्तित्व के कई आयाम हैं। कुछ से मैं रूबरू रहा। यूं ही तमाम कहानियों और किताबों पर चर्चा करने के दौरान एक दिन उसकी कहानियों की किताब पहला उड़ने वाला घोड़ा आई और वह उस किताब के साथ गायब हो गया।...वक्त बीत गया। ज्योति संग रचना कर्म से लेकर रंग कर्म में जुटे रहे। मैं भी कई शहरों की खाक छानकर जब वापस दिल्ली पहुंचा तो दोबारा मुलाकात हुई ज्योति संग से। उसने तो खबर नहीं दी लेकिन दूसरे लोगों ने बताया कि ज्योति संग की गजलों की किताब खूबसूरत खलिश आने वाली है। पर, किताब जब मेरे हाथ आई तो मैं दंग था, एक तरफ हिंदी में गजल और दूसरी तरफ उसी का उर्दू में अनुवाद। मुझे यह तो मालूम था कि ज्योति संग के पिता उन लाखों रिफ्यूजी लोगों में शामिल थे जो भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त उजड़कर भारत में आए और उन लोगों को दिल्ली के आसपास बसाया गया था। लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि इस शख्स को उर्दू से जुनून की हद तक लगाव है। किताब के पन्ने पलटे तो प