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चुप्पियों के दिन

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   लिखता हूँ, फिर जल्दी से मिटा देता हूँ  डर है, उनकी भावनाएँ आहत होने का। देखते हैं चुप्पियों के दिन कैसे कटते हैं? लेकिन चुप्पियों की पीड़ा असह्य है।  निन्दक निकट रखने के पुराने दिन गए चापलूस निन्दकों की जयजयकार है। बहुसंख्यक आहत भावनाओं के राष्ट्र में  अल्पसंख्यक चाहतों को स्थान कहाँ है? -यूसुफ किरमानी  दरअसल मेरी ये चंद लाइनें केदारनाथ सिंह की उन लाइनों को समर्पित हैं। 👆👆👆