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मुसलमान मुर्ग़ा रोटी खाकर मस्त, जैसे उसे कोई सरोकार ही न हो

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उत्तराखंड के चमोली ज़िले में ग्लेशियर फट गया। उत्तराखंड वालों को ही फ़िक्र नहीं। वहाँ की भाजपा सरकार को चिन्ता नहीं। सरकार और उत्तराखंड की जनता अयोध्या में मंदिर के लिए चंदा जमा करने में जुटी है। उसे ग्लेशियर से क्या मतलब?  पर्यावरण की चिंता करने वाली ग्रेटा थनबर्ग का मजाक उड़ाने से उत्तराखंड वाले भी नहीं चूके थे। ... बाकी भारत के लोगों का सरोकार भी अब पर्यावरण या ऐसे तमाम मुद्दों से कहाँ रहा।  जैसे इन्हें देखिए।... मुसलमानों, बहुजनों और ओबीसी को उन पर मंडरा रहे ख़तरे की चिन्ता ही नहीं है।  भाजपा-आरएसएस ने बहुजनों और ओबीसी आरक्षण को बहुत होशियारी से ठिकाने लगा दिया है। फिर भी ओबीसी, दलित भक्ति में लीन हैं... लेकिन मुसलमान भी कम लापरवाह नहीं हैं। मुसलमान मुर्ग़ा रोटी खाकर मस्त है। ख़ैर...हमारा मुद्दा आरक्षण नहीं है। कल यानी 6 फ़रवरी 2021 को किसानों ने चक्का जाम किया था।  चक्का जाम की ऐसी ही अपील शाहीनबाग़ आंदोलन के दौरान छात्र नेता और जेएनयू के पीएचडी स्कॉलर शारजील इमाम ने पिछले साल भी की थी। लेकिन हुकूमत ने शारजील को देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया। जबकि उसने साफ़ स...

अटल बिहारी वाजपेयी को ज़बरन स्वतंत्रता सेनानी बनाने की कोशिश

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  यूसुफ किरमानी मोदी सरकार ने 25 दिसम्बर 2020 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन मनाते हुए उन्हें फिर से स्वतंत्रता सेनानी स्थापित करने की कोशिश की। भाजपा शासित राज्यों में अटल के नाम पर सुशासन दिवस मनाया गया। इसलिए इस मौक़े पर पुराने तथ्यों को फिर से कुरेदना ज़रूरी है। भाजपा के पास अटल ही एकमात्र ब्रह्मास्त्र है जिसके ज़रिए वो लोग अपना नाता स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ते रहते हैं।  यह तो सबको पता ही है कि भाजपा का जन्म आरएसएस से हुआ। भाजपा में आये तमाम लोग सबसे पहले संघ के स्वयंसेवक या प्रचारक रहे। 1925 में नागपुर में अपनी पैदाइश के समय से ही संघ ने अपना राजनीतिक विंग हमेशा अलग रखा। पहले वह हिन्दू महासभा था, फिर जनसंघ हुआ और फिर भारतीय जनता पार्टी यानी मौजूदा दौर की भाजपा में बदल गया। कुछ ऐतिहासिक तथ्य और प्रमाणित दस्तावेज हैं जिन्हें आरएसएस, जनसंघ के बलराज मधोक, भाजपा के अटल और आडवाणी कभी झुठला नहीं सके।  आरएसएस  संस्थापक गोलवरकर ने भारत में अंग्रेज़ों के शासन की हिमायत की। सावरकर अंडमान जेल में अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने के बाद बाहर आये। सावरकर के चे...

ताली और थाली का निहितार्थ समझिए...

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प्रधानमंत्री मोदी जी ने आपसे आज (22 मार्च शाम 5 बजे) जनता कर्फ्यू के दौरान ताली और थाली यूं ही नहीं बजवा दिया।... संघ पोषित व िचारों की आड़ लेकर सरकार द्वारा प्रायोजित इतना बड़ा जन एकजुटता का प्रदर्शन कभी नहीं हुआ था।  जिन लोगों ने इसे नहीं बजाया, उन्हें अपने उन पड़ोसियों की वजह से हीन भावना में आने की जरूरत नहीं है जिन्होंने जमकर बजाया।...और इतना जोर से बजाया कि परिंदे भी डर गए... आपके जिन पड़ोसियों ने इस मौके पर पटाखे छोड़े हैं, उनके प्रति कोई दुर्भावना नहीं पालें। # मोदी जी ने उनसे ताली और थाली बजाने को कहा था, बेचारों ने खुशी में पटाखे भी चला दिए। लेकिन दरअसल वे नादान ही तो थे, अनजाने में पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचा दिया जो इस वक्त # ग्लोबल_वार्मिंग से मुक्त होकर सुखद सांस ले रहा था। तो...आइए इस # ताली_और_थाली_बजाने_का_निहितार्थ समझते हैं... अगर किसी को # 1992_में_मंदिर_आंदोलन और लालकृष्ण # आडवाणी की रथ यात्रा के दिनों की कुछ घटनाएं याद हों तो वो आसानी से आज के ताली और थाली बजाने को समझ जाएंगे। लेकिन जिन्हें याद नहीं या जो उस समय नहीं पैदा ...

महात्मा गांधी के संघीकरण की शुरूआत

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  आरएसएस का गांधी प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। आरएसएस के मौजूदा प्रमुख या सरसंघचालक मोहन भागवत 17 फ़रवरी को दिल्ली में गांधी स्मृति में जा पहुंचे। संघ के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई सरसंघचालक गांधी स्मृति में पहुंचा है। गांधी स्मृति वह जगह है जहां 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की गई। गांधी स्मृति गांधीवाद का प्रतीक है। वहां किसी सरसंघचालक का पहुंचना छोटी घटना नहीं है। लेकिन क्या है यह सब...अचानक इतना गांधी प्रेम...गांधी को इतना आत्मसात करने की ललक कांग्रेस जैसी पार्टी ने भी नहीं दिखाई , जो खुद को गांधी की विरासत का कस्टोडियन मानती है।  # संघ की गांधी के प्रति यह ललक दरअसल 2 अक्टूबर 2019 से प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रही है , जब इन्हीं मोहन भागवत ने ट्वीट कर कहा था कि गांधी को स्मरण करने की बजाय उनका अनुसरण करना चाहिए। मोहन भागवत की उस समय की प्रतिक्रिया पर किसी का ध्यान नहीं गया और न ही इसे किसी ने गंभीरता से लिया था। लेकिन जब 17 फरवरी को उन्होंने दोबारा से #गांधी का अनुसरण करने की बात कही और #गांधी_स्मृति जाने की पहल की तो लगा मामला अब गंभीर है। संघ की इस च...

एक भाषा के विरोध में

ये अमित शाह को क्या हो गया है...क्या उन्हें देश के भूगोल का ज्ञान नहीं है... आज सुबह-सुबह बोल पड़े हैं कि एक देश एक # भाषा होनी चाहिए। जो देश एक भाषा नहीं अपनाते वो मिट जाते हैं... अगर वो - एक देश - तक अपनी बात कहकर चुप रहते तो ठीक था लेकिन जिस देश में हर पांच कोस पर भाषा (बोली) बदल जाती है, वहां एक भाषा लागू करना या थोपने के बारे में सोचना कितना अन्यायपूर्ण है। हालांकि मैं खुद जबरदस्त हिंदीभाषी हूं और # हिंदी का खाता-बजाता हूं लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि जबरन कोई भाषा किसी पर थोपी जाए। दक्षिण भारत के तमाम राज्यों के लिए भाषा अस्मिता का प्रश्न है। क्या कोई मलियाली अपनी भाषा की पहचान खोना चाहेगा... क्या कोई # बंगाली अपनी भाषा पर किसी और भाषा को लादे जाते हुए देखना चाहेगा... क्या कोई # मराठी , क्या कोई # उड़िया , क्या कोई गारो-खासी, क्या कोई तमिल, क्या कोई गुरमुखी बोलने वाला पंजाबी अपनी भाषा की बजाय हिंदी को प्राथमिकता देना चाहेगा... दरअसल, यह सब - एक ड्रामा प्रतिदिन - के हिसाब से दिया जाने वाला बयान है। # अमितशाह का कोई बयान बेरोजगारी, गरीबी, किसानों...

गांधी को गाली दो, गोडसे को देशभक्त बताओ...तुम्हारे पास काम ही क्या है?

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पिछले पाँच साल में महात्मा गांधी को गाली देने का चलन आम हो गया है। आरएसएस और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा ने इसे एक मिशन की तरह आगे बढ़ाया है। अपने छुटभैये नेताओं से गाली दिलवाते हैं। फिर उस गाली को उसका निजी विचार बता दिया जाता है। बहुत दबाव महसूस हुआ तो उसको पार्टी से निकालने का बयान जारी कर दिया जाता है या माफ़ी माँग ली जाती है।  मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि जिन राजनीतिक दलों या जिस क़ौम के पास गर्व करने लायक कुछ नहीं होता वो या तो अपने प्रतीक गढ़ते हैं या फिर मिथक का सहारा लेते हैं। कई बार अंधविश्वास तक का सहारा ले लेते हैं।  गांधी, आंबेडकर, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, आज़ाद या भगत सिंह से आरएसएस और भाजपा सिर्फ इसलिए चिढ़ते हैं क्योंकि ये सारे गढ़े गए प्रतीक नहीं हैं। ये सभी भारतीय जनमानस में बसे हुए प्रतीक हैं।  बहुसंख्यकवाद के तुष्टिकरण की नीति पर चलने वाले संगठनों के पास गर्व करने लायक कोई प्रतीक नहीं है। इनके प्रतीकों का अतीत अंग्रेज़ों की मुखबिरी करने और उनसे माफ़ी माँगने में बीता है। भारत जब आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था तो इनके गढ़े गए ...