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हमारे बाद अंधेरा नहीं, उजाला होगा...

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- ज़ुलेखा जबीन आजका दौर भारतीय नारीवाद के गुज़रे स्वर्णिम इतिहास पे चिंतन-मनन किए जाने का है... यक़ीनन ये वक़्त ठहर कर ये सवाल पूछने का भी है कि भारत के नारीवादी आंदोलन का वर्ग चरित्र हक़ीक़त में क्या और कैसा रहा है....! हालांकि इन बेहद ज़रूरी सवालों को कई तरह के "प्रतिप्रश्नों" के ज़रिए "उड़ा" दिए जाने की भरसक कोशिशें की जाएंगी लेकिन फ़िर भी असहज कर दिए जाने वाले सवाल उठाना जम्हूरियत की असली ख़ूबसूरती तो है ही, लोकतंत्र में जी रहे तमाम आम नागरिकों के नागरिक होने का इम्तिहान भी है।... पिछले कुछ दिनों से जामिया यूनिवर्सिटी की स्कालर और ग़ैर संवैधानिक #CAA, #NRC #NPR  पर एक नौजवान नागरिक #सफ़ूरा जरगर की गिरफ़्तारी, उस पर राजद्रोह से लेकर हत्या करने, हथियार रखने, दंगे भड़काने जैसी गतिविधियों सहित 18 धाराएं लगाई गई हैं।  इसके साथ ही जेल में की गई मेडिकल जांच में उसके प्रेग्नेंट होने की ख़बर सामने आने के बाद भारत के बहुसंख्यक समाज के लुंपन एलिमेंट्स की तरफ़ से सोशल मीडिया में जो शाब्दिक बवाल मचाया गया वो तो अपेक्षित था। जो अनापेक्षित रहा वो इ

एक माँ की क़ब्र पर ....

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यह एक माँ की क़ब्र है... मेरी सगी माँ नहीं लेकिन ऐसी माँ जो किसी की भी माँ हो सकती है।...दरअसल, ये एक दिहाड़ी पर काम करने वाले बेटे की माँ थी। इस मदर्स डे पर इनकी कहानी बताना ज़रूरी है। इनका नाम रहती बेगम था, 26 अप्रैल 2018 में इंतक़ाल हुआ था। 1990 में इनकी दुनिया बदल गई। इनके मज़दूर बेटे मोहम्मद रमज़ान शेख़ का श्रीनगर (कश्मीर) से ख़ाकी वर्दी पहने कुछ लोगों ने अपहरण कर लिया। रहती बेगम ने हर कोना छान मारा, तलाशने की हर कोशिश की।  वह हर ज़ाहिर जगह और घाटी में बदनाम गुमनाम सेंटरों तक गईं जहाँ युवक बंद हैं। जहाँ से उनके कराहने की आवाज़ फ़िज़ाओं में गूँजतीं हैं। बादामी बाग़ कैंट इलाक़े से लेकर कार्गो सेंटर, पापा 2 के अलावा जहाँ- जहां ऐसे सेंटर बने हुए हैं, वो पहुँचीं। देखते देखते बेटे की तलाश में रहती बेगम ने 28 साल गुज़ार दिए।  2018 में इंतक़ाल के आख़िरी लम्हों तक उनकी आँखें दरवाज़े की तरफ रहीं जैसे बेटा अभी चलकर आ जाएगा।... नजीब और रोहित वेमुला की मां के आंसू आज भी नहीं सूखे हैं। कश्मीर ही नहीं देश में ऐसी न जाने कितनी रहती बेगम होंग

लघु कथा: लॉकडाउन

टीवी पर वो न्यूज देख रहा था। 21 दिन के लॉकडाउन ने उस पर ख़ासा असर नहीं किया। आँखों में कोई अचंभा  नहीं। दिल की धड़कनों में कोई बदलाव नहीं। दूर दूर तक कोई हड़बड़ी भी नहीं। बस, वो हल्का सा हिला, सोफ़े पर खुद को एडजस्ट करने के लिए... देश के उस हिस्से में रह रहे लोगों के लिए लॉकडाउन एक आदत बन चुकी थी। -मुस्तजाब किरमानी

कहानी ...इंसानी पाबंदियां

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-इस कहानी को कई पत्रिकाओं में छपवाने की कोशिश की गई। लेकिन किसी भी पत्रिका ने कश्मीर पर आधारित इस कहानी को छापने में दिलचस्पी नहीं ली। इसलिए यह कहानी हिंदीवाणी ब्ल़़ॉग पर पेश है... सर्दियां बीत रही हैं। लेकिन  इस बार यह आम सर्दी का मौसम नहीं है। ज़हरीली आब-ओ-हवा फ़िज़ा में चारों तरफ़ है। नफ़रतों का तूफ़ान पूरी तरह सब कुछ रौंदने पर आमादा है। कुदरत के तूफान को कैटरीना, हरिकेन, बुलबुल जैसे नाम नसीब हैं लेकिन इंसानी नफरत के तूफान को कोई नाम देने को तैयार नहीं है। नफरत का तूफान जो कभी अपने हरे, नीले, पीले, भगवा, बसंती जैसे रंगों से पहचाना जाता था, अब वह ‘इंसाफ’ के साथ मिलकर इंद्रधनुष बना रहा है। कहना मुश्किल है कि नफरतों के तूफान का इंसाफ के इंद्रधनुष से क्या रिश्ता है लेकिन फिलहाल दोनों एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। हर साल नवंबर का पहला हफ़्ता बीतते बीतते हमारे घर की डोर बेल ज़ोर से बजती थी और दरवाज़ा खोलने पर गेट पर कपड़ों का गठ्ठर लादे और हाथ में काग़ज़ की स्लिप लिए शफ़ीक़ #कश्मीरी नज़र आता था। लेकिन पूरा नवंबर खत्म हो गया। दिसंबर आकर चला गया लेकिन शफीक का दूर-दूर तक अता

60 दिन का आंदोलनबाग - शाहीनबाग

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शाहीनबाग आंदोलन 60 दिन पुराना हो गया है। जहरीले चुनाव से उबरी दिल्ली में किसी आंदोलन का दो महीने जिंदा रहना और फिलहाल पीछे न हटने के संकल्प ने इसे आंदोलनबाग बना दिया है। ऐसा आंदोलनबाग जिसे तौहीनबाग बताने की कोशिश की गई, लेकिन शाहीनबाग की हिजाबी महिलाओं ने तमाम शहरों में कई सौ शाहीनबाग खड़े कर दिए हैं। बिना किसी मार्केटिंग के सहारे चल रहे महिलाओं के इस आंदोलन को कभी धार्मिक तो कभी आयडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचनवाने की राजनीति) बताकर खारिज करने की कोशिश की गई। लेकिन आजाद भारत में मात्र किसी कानून के विरोध में हिजाबी महिलाओं का आंदोलन इतना लंबा कभी नहीं चला।  #शाहीनबाग_में_महिलाओं_का_आंदोलन  15 दिसंबर  2019  से शुरु हुआ था। आंदोलन की शुरुआत शाहीनबाग के पास #जामिया_मिल्लिया_इस्लामिया में समान नागरिकता कानून (#सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (#एनआरसी) के खिलाफ छात्र-छात्राओं के आंदोलन पर पुलिस लाठी चार्ज के खिलाफ हुई थी। शाहीनबाग की महिलाओं के नक्श-ए-कदम पर #बिहार में गया , उत्तर प्रदेश में #लखनऊ, #इलाहाबाद और #कानपुर तो पश्चिम बंगाल में कोलकाता में इसी तर्ज पर महिलाएं इसी मुद्दे पर ध

कश्मीर डायरी ः सियासी मसले बुलेट और फौज से नहीं सुलझते....

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जम्मू कश्मीर में 5 अगस्त को जब भारत सरकार ने धारा 370 खत्म कर दी और सभी प्रमुख दलों के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तो उन नेताओं में सीपीएम के राज्य सचिव और कुलगाम से विधायक यूसुफ तारिगामी भी थे। उनकी नजरबंदी को जब  एक महीना हो गया तो सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि उनके कश्मीरी नेता यूसुफ तारिगामी की सेहत बहुत खराब है। उन्हें फौरन रिहा किया जाए ताकि उनका इलाज कराया जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ यूसुफ तारिगामी की रिहाई का आदेश दिया बल्कि उन्हें दिल्ली के एम्स में लाकर इलाज कराने का निर्देश भी दिया। यूसुफ तारिगामी एम्स में इलाज के बाद ठीक हो गए और वहां से दिल्ली में ही जम्मू कश्मीर हाउस में चले गए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में केस अभी लंबित है। मैंने उनसे जाकर वहां कश्मीर के तमाम मसलों पर बात की। जिसे आज नवभारत टाइम्स ने प्रकाशित किया। पूरी बातचीत का मूल पाठ मैं यहां दे रहा हूं लेकिन नीचे एनबीटी में छपी हुई खबर की फोटो ताकि सनद रहे के लिए भी लगाई गई है।.... सियासी मसले बुलेट और फौज से नहीं सुलझते Yusuf.Kirmani@timesgroup.com दिल्ली

कश्मीर डायरी/ मुस्लिम पत्रकार

कांग्रेस और राहुल गांधी की हालत बेचारे मुसलमानों जैसी हो गई है।...जिन पर कभी तरस तो कभी ग़ुस्सा आता है। राहुल का आज का ट्वीट ही लें... वह फ़रमा रहे हैं कि भले ही तमाम मुद्दों पर मेरा सरकार के साथ मतभेद है लेकिन मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। पाकिस्तान आतंक को बढ़ावा देने वाला देश है और वह कश्मीर में भी यही कर रहा है। राहुल के इस बयान की लाचारी समझी जा सकती है कि आरएसएस और भाजपा जिस तरह उनके पाकिस्तानी होने का दुष्प्रचार कर रहे हैं उससे आहत होकर उन्हें यह बयान देना पड़ा। हालाँकि राहुल चाहते तो बयान को संतुलित करने के लिए फिर से कश्मीर के हालात और वहाँ की जनता पर हो रहे अत्याचार पर चिंता जता देते। अपने निजी जीवन में मैं भी मुसलमानों को इस पसोपेश से जूझते देख रहा हूँ। ...किसी दफ़्तर में अगर दो या तीन मुस्लिम कर्मचारी आपस में खड़े होकर बात कर लें तो पूरे दफ़्तर की नज़र उन्हीं पर होती है। अग़ल बग़ल से निकल रहे लोग टिप्पणी करते हुए निकलेंगे...क्या छन रहा है...क्या साज़िश हो रही है...यहाँ भी एकता कर रहे हो...लेकिन ऐसे लोगों को किन्हीं सुरेश-मुकेश की

कश्मीर डायरी/ इतिहास से सीखो

कश्मीर डायरी/  बहुत पुरानी कहानी नहीं है .............................. इराक़ में सद्दाम हुसैन की हुकूमत थी। सद्दाम इराक़ के जिस क़बीले या ग्रुप से था वह अल्पसंख्यक है। इसके बावजूद उसका बहुसंख्यक शिया मुसलमानों पर शासन था। वहाबी विचारधारा से प्रभावित होने की वजह से इराक़ की बहुसंख्यक शिया आबादी पर उसका ज़ुल्म-ओ-सितम सारी हदें पार कर गया था। बहुसंख्यक होने के बावजूद शिया सद्दाम का विरोध इसलिए नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें अहिंसा के बारे में चूँकि जन्म से ही शिक्षा मिलती है तो वे सद्दाम का हर ज़ुल्म सह रहे थे। इसी दौरान अमेरिका ने सद्दाम को पड़ोस के शिया मुल्क ईरान पर हमले के लिए इस्तेमाल किया और अमेरिका की मदद से हमला कर दिया। एक साल तक लड़ाई चली। सद्दाम हार गया और पीछे हट गया। लेकिन इस बहाने अमेरिका इराक़ में जा घुसा। अमेरिका को इराक़ में जाकर यह समझ आया कि सद्दाम तो अल्पसंख्यक है, क्यों न यहाँ बहुसंख्यक शियों में से किसी को खड़ा करके उनकी कठपुतली सरकार बनाई जाए। अमेरिका ने इस नीति को लागू करना शुरू कर दिया। सद्दाम क़ैद कर लिया गया और इराक़ में बहुसंख्यक शिया हुकूमत क़ायम

एक कविता शहीदों के नाम...

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पुलवामा की बर्फीली सड़क और छद्म युद्ध

जब आप इस वक्त गहरी नींद में हैं, तब कश्मीर के पुलवामा में उन जवानों की लाशों के टुकड़े जमा किए जा रहे हैं, जिन्हें आतंकी हमले में मार दिया गया... मेरी नींद भी गायब है...मैं उन 42 नामों की सूची को पढ़ रहा हूं, जो अब हमारे बीच नहीं हैं। शहीदों की सूची में दूसरा ही नाम निसार अहमद का है... थोड़ा तसल्ली सी हुई कि चलो, भक्तों और भगवा ब्रिगेड को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा...कि मरने वाले एक ही धर्म या बिरादरी के थे...या इस्लामिक आतंकवाद ने सिर्फ एक ही धर्म वालों को मार दिया... जैश-ए-मोहम्मद या हिजबुल मुजाहिदीन सिर्फ एक ही धर्म या देश के दुश्मन नहीं है। दरअसल, वह मुसलमान और कश्मीरियत के दुश्मन हैं। ...जानते हैं इस हमले से कश्मीरी अवाम की आवाज कमजोर कर दी गई है। उनके साथ अब लिबरल लोग खड़े होने से छिटक जाएंगे।... हर हिंसक हमला बड़े आंदोलन को कमजोर कर देता है। खैर, ऐसे बहुत सारे निसार अहमद आज उन 42 लोगों में हो सकते थे, लेकिन बेचारे जब भर्ती किए जाएंगे, तभी तो ढेर सारे निसार अहमद ऐसी कुर्बानी देने को मिलेंगे।...यह एक शिकवा है, निसार अहमदों को जब भर्ती नहीं क