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गुंडों की पहचान

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मुँह पर साफ़ा बाँधे गुंडों की पहचान कैसे होगी वे सिर्फ जेएनयू में नहीं हैं वे सिर्फ एएमयू में नहीं हैं वे सिर्फ जामिया में नहीं हैं वे कहाँ नहीं हैं वे अब वहां भी है, जहां कोई नहीं है वे तो बिजनौर,मेरठ से लेकर मंगलौर तक में है वे चैनलों में हैं वे अखबारों में हैं वे मंत्रालयों में हैं वे एनजीओ में हैं वे कारखानों में हैं, वे रक्षा ठिकानों तक में हैं वे फिल्मवालों में हैं, गोया हर गड़बड़झाले में हैं वे नाजी राष्ट्रवाद के हर निवाले और प्याले में हैं तो क्या कपड़ों से करोगे इनकी पहचान इनके सिरों पर गोल टोपी भी नहीं इनके चेहरे पर दाढ़ी तक नहीं इनकी आंखों में सूरमा तक नहीं इन्होंने ऊंचा पायजामा भी नहीं पहना लड़कियों के चेहरे पर हिजाब भी नहीं फिर कैसे होगी इनकी पहचान सुना है आतंकी राइफल लेकर चलते हैं पर इनके हाथों में सिर्फ कुल्हाड़ी है कुछ के हाथों में लोहे के रॉड भी हैं कुछ के जबान पर उत्तेजक नारे हैं क्या कुल्हाड़ी से कोई विचार मरता है जेएनयू एक विचार है एएमयू एक विचार है जामिया एक विचार है शाहीन बाग एक विचार है विचार कुल्...

मुस्तजाब की कविता ः सब कुछ धुंधला नजर आ रहा है

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मुस्तजाब की कविताएं हिंदीवाणी पर आप लोग पहले भी पढ़ चुके हैं...पेश है उनकी नवीनतम कविता सब धुंधला नजर आ रहा है .............................. ............ सब धुंधला नजर आ रहा है सच, झूठ, तारीख, तथ्य किसे मानें, रह गया है क्या सत्य सलाखें बन गए हैं मस्तिष्क हमारे अंदर ही घुट घुट कर सड़ रहे हैं लोग बेचारे एक कतार में हम सब अटक गए हैं समझ रहे हैं राह है सही, मगर भटक गए हैं जो कहता है अंध बहुमत उसे मान लेते हैं चाहे झूठ हो, संग चलने की ठान लेते हैं क्या हुआ जो लोग मर रहे हैं आजादी के पीर सलाखों में सड़ रहे हैं कहने पर रोक है, अंधा हो गया कोर्ट है डरपोक सब ठंडी हवा में बैठे हैं कातिल संसद में टिका बैठे हैं सच्चे तो खैर आजादी ही गवां बैठे हैं मगर हमें क्या हम तो धुंधलेपन के मुरीद हैं धरम तक ही रह गई साली सारी भीड़ है और इसी धुंधलेपन का फायदा मसनदखोर उठा रहा है हम अंधे हो रहे हैं वो हमारा देश जला रहा है - मुस्तजाब मुस्तजाब की कुछ कविताओं के लिंक - http://www.hindivani.in/2017/12/blog-post.html http://www.hindivani.in/2019/02/blog-post_16.html

शंभू – रसूल संवाद-ए-राजस्थान

कल मुझे जब नींद आई बदलते ही करवट पर देखा तब ख्वाब मैंने शंभू रोते हैं खड़े पर्वत पर हिमालय की ऊंची चोटी पर तंग पड़ी फिर बारिश ऐसी बोले शंभू, क्या बतलाऊं एक जाहिल ने रची है साजिश ऐसी कि गुस्सा है मुझे, मेरे मन में आग उठती है ऐसा जुल्म हुआ है कि कराहट की आह उठती है गुजर उसी दम हुआ वहीं से रसूले खुदा का देखा महादेव को तो किया सलाम दो जहां का बोले शंभू, आवाज भारी किए, नमन हो ऐ रसूल हक में आपके मेरा आदर हो कुबूल परेशान देख हाल उनका, फिर मोहम्मद ने फरमाया ऐ देवों के देव, क्यूं है तुम्हारी आवाज में गम समाया बोले शंभू, ऐ रहबर-ए-हक, हक से बयां करो पाक दहन से अपने सच को रवां करो देखा तुमने, क्या किया धरती पर उस जालिम ने आज कत्ल किया, जलाया, एक नातवां-ओ-बेकस को आज दुख है मुझे की मेरा नाम लिये वो जालिम बैठा है उम्मत का तुम्हारी निशां मिटा देगा, ऐसा वो कहता है बोले रसूल, ऐ शंभू जमीन की तो रोज यही कहानी है इंसान ने कत्ल ओ जुल्म करने की जो ठानी है आज नाम तुम्हारा है तो कल फिर मेरा होगा अंधेरा ही अंधेरा है, देखो कब सवेरा होगा खैर, दुआ करो कि बची ...

मैं चलती ट्रेन में आतंक बेचता हूं...

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मैं उन्माद हूं, मैं जल्लाद हूं मैं हिटलर की औलाद हूं मैं धार्मिक व्यभिचार हूं मैं एक चतुर परिवार हूं मैं चलती ट्रेन में आतंक बेचता हूं मैं ट्रकों में पहलू खान खोजता हूं मैं घरों में सभी का फ्रिज देखता हूं मैं हर बिरयानी में बीफ सोचता हूं मैं एक खतरनाक अवतार हूं मैं नफरतों का अंबार हूं मैं दोधारी तलवार हूं मैं दंगों का पैरोकार हूं मैं आवारा पूंजीवाद का सरदार हूं मैं राजनीति का बदनुमा किरदार हूं मैं तमाम जुमलों का झंडाबरदार हूं मैं गरीब किसान नहीं, साहूकार हूं मुझसे यह हो न पाएगा, मुझसे वह न हो पाएगा और जो हो पाएगा, वह नागपुरी संतरे खा जाएगा फिर बदले में वह आम की गुठली दे जाएगा  मेरे मन को जो सुन पाएगा, वह "यूसुफ" कहलाएगा  ........कवि का बयान डिसक्लेमर के रूप में........ यह एक कविता है। लेकिन मैं कोई स्थापित कवि नहीं हूं। इस कविता का संबंध किसी भी राजनीतिक दल या व्यक्ति विशेष से नहीं है। हालांकि कविता राजनीतिक है। हम लोगों की जिंदगी अराजनीतिक हो भी कैसे सकती है। आखिर हम लोग मतदाता भी हैं। हम आधार कार्ड वाले लोगों के आस...