जिंदगी क्यों अधूरी हैं
कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि- हम दुनिया में क्यों आये अपने साथ ऐसा क्या लायें जिसके लिए घुट-घुट कर जीते हैं दिन रात कडवा घूँट पीते हैं क्या दुनिया में आना जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्यों अधूरी हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि, बच्चे पैदा क्यों किये जाते हैं, पैदा होते ही क्यों छोड दिये जाते हैं, मॉं की गोद बच्चे को क्यों नहीं मिलती ये बात उसे दिन रात क्यों खलती क्या पैदा होना जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्यों अधूरी हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि, हम सपने क्यों देखते हैं सपनों से हमारा क्या रिश्ता हैं जिन्हे देख आदमी अंदर ही अंदर पिसता हैं क्या सपने देखना जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्यों अधूरी हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि, इंसान-इंसान के पीछे क्यों पडा हैं जिसे समझों अपना पही छुरा लिए खडा हैं अपने पन की नौटंकी क्यों करता हैं इंसान इंसानियत का कत्ल खुद करता हैं इंसान क्या इंसानिसत जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्यों अधूरी हैं। (इस सोच का अभी अंत नही हैं) -जतिन, बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्विद...