-दिलीप मंडल इशरत जहां केस के कवरेज के लिए नहीं तो अपनी भाषा के लिए, अपनी अनीति के लिए। मुकदमे का फैसला होने तक अभियुक्त लिखा जाता है अपराधी नहीं हम सब जानते हैं पत्रकारिता के स्कूलों यही तो पढ़ते हैं। लेकिन हममें उतना धैर्य कहां मुठभेड़ में मरने वालो को आंतकवादी कहने में देर कहां लगाते हैं हम? मुठभेड़ कई बार फर्जी होती है, पुलिस जानती है कोर्ट बताती है, हम भी जानते हैं, लेकिन हमारे पास उतना वक्त कहां हमें न्यूज ब्रेक करनी होती है सनसनीखेज हेडलाइन लगानी होती है वक्त कहां कि सच और झूठ का इंतजार करें। फर्जी और असली की मीमांसा करने की न हममें इच्छा होती है और न ही उतनी मोहलत और न जरूरत। इसलिए हम हर मुठभेड़ को असली मानते हैं फर्जी साबित होने तक। हम इशरत की मां से माफी नहीं मांग सकते मजिस्ट्रेट की जांच में ये साबित होने के बाद भी कि वो मुठभेड़ फर्जी थी। हम इससे कोई सबक नहीं सीखेंगे अगली मुठभेड़ को भी हम असली मुठभेड़ ही मानेंगे मरने वालों को आतंकवादी ही कहेंगे क्योंकि पुलिस ऐसा कहती है। मरने वालों के परिवार वालों की बात सुनने का धैर्य हममें कहां, पुलिस को नाराज करके क्राइम रिपोर्टिंग चलती है ...