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अभी बैराग लेकर क्या करेंगे......पौराणिक पृष्ठभूमि पर हिन्दी ग़ज़ल

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 पौराणिक पृष्ठभूमि पर ग़ज़ल  पौराणिक पृष्ठभूमि पर कविता, ग़ज़ल, नज़्म लिखना आसान नहीं होता। और उर्दू पृष्ठभूमि का कोई रचनाकार अगर हिन्दू पौराणिक कहानियों को अपनी ग़ज़ल के साँचे में ढालता है तो ऐसी कविता या ग़ज़ल और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हिन्दी कविता जगत तमाम खेमेबंदियों में उलझा हुआ है। उसे यह देखने, समेटने की फ़ुरसत ही नहीं है कि कवियों, ग़ज़लकारों की जो नई पीढ़ी आ रही है, उसके लेखन को कैसे तरतीब दी जाए या बढ़ाया जाए। हिन्दी की नामी गिरामी पत्रिकाएँ भी सही भूमिका नहीं निभा पा रही हैं।  फहमीना अली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की शोध छात्रा हैं। उनकी ग़ज़ल और कविताओं का आधार अक्सर हिन्दू पौराणिक कहानियाँ होती हैं। यह ग़ज़ल - अभी बैराग लेकर क्या करेंगे - फहमीना अली की ताज़ा रचना है। हिन्दीवाणी पर इसका प्रकाशन इस मक़सद से किया जा रहा है कि हिन्दी वालों को मुस्लिम पौराणिक कहानियों पर कविता, ग़ज़ल लिखने की प्रेरणा मिलेगी। उर्दू स्कॉलर होने के बावजूद फहमीना अली ने हिन्दू पौराणिक कथाओं को अपने साहित्य का हिस्सा बनाने की जो कोशिश की है, उसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इस ग़जल में रदीफ-काफ

फ़ैसलों का गुजराती ढोकला

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मोदी जी ने आज अपने चुनाव क्षेत्र बनारस का हाल जानने के लिए वहां के भाजपा नेताओं को फोन किया। फोन पर बातचीत के दौरान बनारस के जिला भाजपा अध्यक्ष ने मोदी से कहा कि मास्क बनवाने की जरूरत है.... मोदी जी ने उन्हें बीच में ही रोकते हुए कहा - ज्यादा खर्च करने की जरूरत नहीं है। अपने इलाके में जो तौलिया या गमछा चलता है, उसी को मुंह पर लपेटिए। वही बेहतरीन मास्क है। cheap and hot items मोदी जी के इस सुझाव में बुराई नहीं देखनी चाहिए। ...पूरे देश को मुंह पर गमछा या तौलिया बांध लेना चाहिए।...बल्कि कुछ दिन के लिए गमछे को राष्ट्रीय रूमाल घोषित कर देना चाहिए।  चाहे उसे मुंह पर बांधो और अगर पेट खाली है तो उसमें अपने आंसू भी पोंछ लो। महंगाई में इससे सस्ता जुगाड़ और कहां मिलेगा। लेकिन इन भाजपाइयों को जरा भी शर्म नहीं आती। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में मोदी जी से मास्क मांग रहे हैं।  बहरहाल, मास्क की जगह गमछे जैसा सुझाव मैं भी देशवासियों को देना चाहता हूं। मसलन...सेनिटाइजर नहीं है...जमीन पर हाथ रगड़िए फिर पानी से हाथ धो लीजिए। वेंटिलेटर नहीं है...तो अनुलोम विलोम कीजिए.... मु

कविता : तुम अभी याद नहीं आओगे

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तुम अभी याद नहीं आओगे जब मुश्किल तुम पर आई है जब तुम्हारे जाने की बारी आई है तुम अभी याद नहीं आओगे तुम तब याद आओगे जब हम मुश्किल में आ जाएंगे जब जीने के लाले पड़ जाएंगे जब सेठ को याद आएगा घर बनवाना जब पानी लीक करेगा नल पुराना जब दीवारों पर सीलन आ जाएगी जब फर्नीचर बनवाने की बारी आएगी जब धूल मिट्टी बस जाएगी घर के कोने-कोने कपड़े और बर्तन पर गंदगी हो जाएगी जमा होने तुम तब याद आआगे तुम तब याद आओगे जब गाड़ी दौड़ते-दौड़ते ठहर जाएगी जब मोटे टायरों पर कील धंस जाएगी जब पैर थक जाएंगे चलते चलते जब आंखें थक जाएंगी रिक्शा तकते जब कोई बाइक से होम डिलिवरी नहीं करेगा जब दुकान से भार खुद उठाना पड़ेगा जब हरी सब्जी के लिए दिल तरस जाएगा जब घर का गार्डन जंगली घास से भर जाएगा तुम तब याद आओगे अभी तो हमने  अपनी आंखें, अपनी आत्मा क्वारंटाइन कर ली है अभी तो मास्क ने हमारी बोली बंद कर दी है अभी कैसे याद कर लें तुम्हें अभी तो अमीरों की जान एक बीमारी ने जकड़ ली है अभी तुम्हारे आंसू, तुम्हारा दर्द तुम्हारा झोला, तुम्हारी दूरियां

लघु कथा: लॉकडाउन

टीवी पर वो न्यूज देख रहा था। 21 दिन के लॉकडाउन ने उस पर ख़ासा असर नहीं किया। आँखों में कोई अचंभा  नहीं। दिल की धड़कनों में कोई बदलाव नहीं। दूर दूर तक कोई हड़बड़ी भी नहीं। बस, वो हल्का सा हिला, सोफ़े पर खुद को एडजस्ट करने के लिए... देश के उस हिस्से में रह रहे लोगों के लिए लॉकडाउन एक आदत बन चुकी थी। -मुस्तजाब किरमानी

लघु कथा - चाचा की दुकान

चाचा की दुकान -मुस्तजाब किरमानी वो चाचा की दुकान को जलते देख खुश हुआ था।  चाचा और उसका धर्म अलग-अलग जो थे। उसने  आग खुद नहीं लगाई थी। हाँ, दंगाइयों को राह  जरूर दिखाई थी। मगर, आज जनता कर्फ़्यू के बीच  जब उसे एक जरूरत का सामान याद आया तो उसने  खिड़की से काली राख की चादर ओढ़े उस दुकान को  हसरत से देखा। ...चाचा तो उसे उधार सामान भी दे दिया करते थे। -मुस्तजाब किरमानी #लघुकथा #चाचा_की_दुकान #जनताकर्फ्यू #दंगाई #धर्म #HindiShortStory #JantaCurfew #Rioters  #Religion #शाहीनबाग अपडेट यह लघु कथा अप्रत्यक्ष रूप से शाहीनबाग से भी जुड़ी है। इसे पढ़ने से पहले यह अपडेट लीजिए कि #करोना की आड़ में #दिल्ली_में_शाहीनबाग को दिल्ली पुलिस ने आज पूरी तरह ख़ाली करा लिया है। सारा टेंट और सामान हटा लिया गया। इस तरह 101 वें दिन इस #महिला_आंदोलन को बलपूर्वक खत्म कर दिया गया। यह कहानी शाहीनबाग से अप्रत्यक्ष रूप से इसलिए जुड़ी हुई, क्योंकि #सीएए और #एनआरसी विरोधी प्रदर्शन के दौरान ही दिल्ली के चांदबाग, #मुस्तफाबाद, #जाफराबाद, #गोकुलपुरी, #खजुरीखास, #शिवविहार वग़ै

शाहीनबाग़ पर प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा से बातचीत

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आलोक धन्वा की कविता - फर्क

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शाहीनबाग में कहानी के किरदारों की तलाश

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कोई लेखक-लेखिका जब किसी जन आंदोलन में अपनी कहानियों और उपन्यासों के किरदारों को तलाशने पहुंच जाए तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि शाहीन बाग का आंदोलन कहां से कहां तक पहुंच गया है। हिंदी की मशहूर उपन्यासकार औऱ कहानी लेखिका नासिरा शर्मा ऐसी ही एक रात शाहीन बाग में जा पहुंचीं और वहां बैठी महिलाओं और युवक-युवतियों में उन किरदारों को अलग-अलग रूप में पाया। वहां से लौटने के बाद उन्होंने कुछ किरदारों को कलमबंद भी किया। नासिरा शर्मा के उस रात शाहीन बाग पहुंचने के फोटो सोशल मीडिया पर भी वायरल हुए थे। नासिरा वही लेखिका हैं जो ईरान में इस्लामिक क्रांति के दौरान वहां जा पहुंची थीं। वहां उस क्रांति के जनक आयतुल्लाह खुमैनी ने किसी महिला पत्रकार और लेखिका को पहला इंटरव्यू दिया था, जिसे उस समय (1982) भारत की नामी साहित्यिक पत्रिका सारिका ने प्रकाशित किया था। नासिरा शर्मा ने जेएनयू से पढ़ाई की है और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ाया भी है। यहां पेश है उनका लेख जो एक महिला लेखक की नजर से इस आंदोलन को समझने की कोशिश भी है... मेरी दुनिया मेरे लोग... शाहीनबाग की वह रात मेरे लिए बोलने की नहीं, महसूस

होली के बहाने...एक अधूरी ग़ज़ल

रंग कोई भी डाल दो, गुलाल कोई भी लगा दो ........................................................ दीवारों पर लिखी इबारत मिटाना आसान है, दिलों पर लिखी इबारत मिटाता नादान है... रंग कोई भी डाल दो, गुलाल कोई भी लगा दो, ज़ख़्मों पर फिर मरहम लगाता नहीं शैतान है...y राष्ट्रवाद को बेशक तिरंगे में लपेट दो, क़ातिल को यूँ भुलाना क्या आसान है... रहबर ही जब बन गये हों रहजन जिस मुल्क में, बचे रहने का क्या अब कुछ इमकान है ??.... (मेरी एक अधूरी ग़ज़ल की कुछ लाइनें होली और साहेब के ताज़ा बयान पर...बहरहाल, हर आम व ख़ास को, दूर के, नज़दीक को होली बहुत बहुत मुबारक)