कवि-कथाकार संजय कुंदन क्या वाकई ब्राह्मणवादी हैं
अविनाश के मोहल्ला ब्लॉग पर फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित प्रमोद रंजन की संपादकीय टिप्पणी , मॉडरेटर का वक्तव्य और इन सब पर कुछ लोगों की प्रतिक्रियाएं पढ़ीं तो मन में कुछ सवाल उठे , बातें उभरीं , जिन्हें आप लोगों से शेयर करना चाहता हूं। पहली बार बहुजन आलोचना की अवधारणा का पता चला। अगर इस संदर्भ को समझने में परेशानी हो तो पहले प्रमोद रंजन की टिप्पणी मोहल्ला लाइव ब्लॉग पर पढ़ें, इस लिंक पर जाएं http://mohallalive.com/2012/04/24/bahujan-sahitya-varshiki-editorial-of-forward-press - यूसुफ किरमानी साहित्य एक जनतांत्रिक माध्यम है। हर किसी को हक है कि वह नई-नई अ ï वधारणा लेकर आए। वैसे बहुजन का फॉर्मूला यूपी और बिहार की राजनीति में पिट चुका है। राजनेता अब इससे आगे निकल चुके हैं। लेकिन अब साहित्य में इसे चलाने की कोशिश की जा रही है। सच्चाई यह है कि सामाजिक संरचना को बौद्धिकों से बेहतर राजनेता ही समझते हैं। (क्या इसीलिए अब भी हिंदीभाषी क्षेत्र की जनता पर साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों से ज्यादा राजनेताओं की बात का असर होता है ?) खैर, प्रमोद रंजन ने जो बहुजन आलोचना पेश की है उसके मानदंड ब...