बारह बरस से भटकती रूहें...
साभार...जनपथ ब्लॉग लेखक अभिषेक श्रीवास्तव इतिहास गवाह है कि प्रतीकों को भुनाने के मामले में फासिस्टों का कोई तोड़ नहीं। वे तारीखें ज़रूर याद रखते हैं। खासकर वे तारीखें, जो उनके अतीत की पहचान होती हैं। खांटी भारतीय संदर्भ में कहें तो किसी भी शुभ काम को करने के लिए जिस मुहूर्त को निकालने का ब्राह्मणवादी प्रचलन सदियों से यहां रहा है, वह अलग-अलग संस्करणों में दुनिया के तमाम हिस्सों में आज भी मौजूद है और इसकी स्वीकार्यता के मामले में कम से कम सभ्यता पर दावा अपना जताने वाली ताकतें हमेशा ही एक स्वर में बात करती हैं। यह बात कितनी ही अवैज्ञानिक क्यों न जान पड़ती हो, लेकिन क्या इसे महज संयोग कहें कि जो तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कालिख की तरह यहां के फासिस्टों के मुंह पर आज से 12 साल पहले पुत गई थी, उसे धोने-पोंछने के लिए भी ऐन इसी तारीख का चुनाव 12 साल बाद दिल्ली से लेकर वॉशिंगटन तक किय...