चार्वाक: इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"...
चार्वाक: इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"...
27 फरवरी 2002 को हुए गोधरा कांड के परदे में जिस गुजरात कत्लेआम की शुरुआत हुई थी, समूची इंसानी सभ्यता के उस ऐतिहासिक कलंक को दफ़न करने की मंशा से इस तारीख पर अब धुंधली परतें चढ़ाने की कोशिश की जा रही हैं। लेकिन क्या वह सचमुच भूल सकने वाली कोई त्रासद साजिश थी? क्या उसे भूला जाना चाहिए? गुजरात कत्लेआम की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी "मास्टर साहब की डायरी" बड़ी जद्दोजहद से किसी तरह "पाखी" में छप सकी थी। इससे पहले "कथादेश" जैसी एकाध पत्रिकाओं में घोषणा के कई महीने के बाद भी नहीं छप सकी थी। कुछ जगहों पर इसमें संपादक ने अपने हिसाब से फेरबदल करने की सलाह दी थी। हमने यह सलाह ख़ारिज़ कर दी। लेकिन प्रेम भारद्वाज ने इसे अपनी शक्ल में छापा था। आज उस कत्लेआम की शर्म पर परदा डालने की कोशिश के बीच उसकी याद बनाए रखने के मकसद से इस कहानी को आप सबके साथ फिर से साझा कर रहा हूं। हां, मैं चाहता हूं कि इंसानियत के लिए शर्मिंदगी और सभ्यता पर कलंक उस "शासकीय" कत्लेआम को याद रखा जाए, तब तक, जब तक हम एक ऐसी जमीन नहीं रच लेते, जहां मजहब या जात का कोई नामलेवा नहीं बचे... जब तक धर्म और जात के नाम पर खूनी दुकानदारी करने वालों की नस्ल जिंदा है! यह ख़्वाब अगर महज ख़्वाब है तो क्या हमें अपनी उम्मीद का कत्ल कर देना चाहिए? नहीं...! हम उम्मीद करेंगे... अपनी जान रहने तक... हम उम्मीद करेंगे... दुनिया के कायम रहने तक... अपने तईं तब तक जान भी देते रहेंगे... जब तक उनकी खून के स्वाद से लिथड़ी जुबान जहर उगलती रहेगी...
मास्टर साहब की डायरी....
A Must Read....
27 फरवरी 2002 को हुए गोधरा कांड के परदे में जिस गुजरात कत्लेआम की शुरुआत हुई थी, समूची इंसानी सभ्यता के उस ऐतिहासिक कलंक को दफ़न करने की मंशा से इस तारीख पर अब धुंधली परतें चढ़ाने की कोशिश की जा रही हैं। लेकिन क्या वह सचमुच भूल सकने वाली कोई त्रासद साजिश थी? क्या उसे भूला जाना चाहिए? गुजरात कत्लेआम की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी "मास्टर साहब की डायरी" बड़ी जद्दोजहद से किसी तरह "पाखी" में छप सकी थी। इससे पहले "कथादेश" जैसी एकाध पत्रिकाओं में घोषणा के कई महीने के बाद भी नहीं छप सकी थी। कुछ जगहों पर इसमें संपादक ने अपने हिसाब से फेरबदल करने की सलाह दी थी। हमने यह सलाह ख़ारिज़ कर दी। लेकिन प्रेम भारद्वाज ने इसे अपनी शक्ल में छापा था। आज उस कत्लेआम की शर्म पर परदा डालने की कोशिश के बीच उसकी याद बनाए रखने के मकसद से इस कहानी को आप सबके साथ फिर से साझा कर रहा हूं। हां, मैं चाहता हूं कि इंसानियत के लिए शर्मिंदगी और सभ्यता पर कलंक उस "शासकीय" कत्लेआम को याद रखा जाए, तब तक, जब तक हम एक ऐसी जमीन नहीं रच लेते, जहां मजहब या जात का कोई नामलेवा नहीं बचे... जब तक धर्म और जात के नाम पर खूनी दुकानदारी करने वालों की नस्ल जिंदा है! यह ख़्वाब अगर महज ख़्वाब है तो क्या हमें अपनी उम्मीद का कत्ल कर देना चाहिए? नहीं...! हम उम्मीद करेंगे... अपनी जान रहने तक... हम उम्मीद करेंगे... दुनिया के कायम रहने तक... अपने तईं तब तक जान भी देते रहेंगे... जब तक उनकी खून के स्वाद से लिथड़ी जुबान जहर उगलती रहेगी...
मास्टर साहब की डायरी....
A Must Read....
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