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शब-ए-बरात... (शबरात) पर चंद बातें...

इस बार यह त्यौहार कल बुधवार को ऐसे मौक़े पर पड़ने जा रहा है जब हम लोग कोरोना की वजह से घरों में क़ैद हैं।  इस तरह यह त्यौहार हिंद के तमाम आलम-ए-मुसलमानों के लिए एक इम्तेहान और चुनौती लेकर आया है। इस त्यौहार पर लोग अपने पूर्वजों को याद करते हैं। क़ब्रिस्तान में जाकर मोमबत्ती या दीया जलाकर रोशनी करते हैं। घरों में हलवा बनता है और उस पर नज्र या फातिहा दिलाया जाता है।  जिनके यहाँ पिछले एक साल के अंदर किसी अपने (प्रियजन) की मौत हुई है, उनके लिए तो यह शब ए बरात और भी खास है।  क्योंकि इस #शब_ए_बरात में वो आपके साथ नहीं हैं जबकि पिछले साल वो आपके साथ थे। मैं तमाम #मुसलमानों से हाथ जोड़कर गुजारिश करता हूँ कि इस बार यह सभी काम आप अपने घरों में करें।  किसी को बाहर निकलने या क़ब्रिस्तान और मस्जिदों में जाने की ज़रूरत नहीं हैं। आपके पूर्वज आपकी मजबूरी को समझेंगे और जहाँ वे होंगे आपके लिए दुआ करेंगे।  हर फ़िरक़े के तमाम मौलानाओं, उलेमाओं से भी विनती है कि वे जहाँ भी हैं, इस बार लोगों को इन चीज़ों को घरों में करने के लिए कहें। किसी को भी बाहर निकलने के लिए न कहें।

कोरोनाई पत्रकार और जाहिल मुसलमान

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तबलीगी जमात की आड़ में मुसलमानों को विलेन बनाने की खबरों में अब धीरे-धीरे कमी आ रही है। ...लेकिन आप जानना नहीं चाहते कि अचानक यह कमी कैसे आ गई। दरअसल, #अयोध्या में हिंदू श्रद्धालुओं का मंदिरों में बड़ी तादाद में पहुंचना और उस वीडियो का वायरल होना। एक और वीडियो वायरल है जिसमें #भाजपा सांसद मनोज तिवारी अपने चमचों की भीड़ के साथ मास्क बांटते घूम रहे हैं। वीडियो तो और भी हैं लेकिन अयोध्या पर आए वीडियो से मुख्यधारा का #मीडिया डर गया है। इसके अलावा मीडिया का वो चेहरा भी बेनकाब हुआ, जिसमें उसने एक कैदी के थूकने की घटना का वीडियो तबलीगी जमात का बताकर प्रचारित कर दिया था। इसके अलावा एक दूसरे मौलाना सज्जाद नोमानी का फोटो मौलाना साद बनाकर जारी कर दिया था।...लेकिन मजाल है कि मीडिया के जिन भक्तों ने यह काम किया है, उन्होंने माफी मांगी हो। वाकई पत्रकार जिसे कहते हैं, वो अब कमजर्फ जमात बनते जा रहे हैं। वे खुद एक #कोरोना में तब्दील हो गए हैं। #तबलीगीजमात ने जो जाहिलपना दिखाया, उसमें उसका पक्ष नहीं लेते हुए, बात कमजर्फ पत्रकार जमात और कमजर्फ मीडिया पर करना जरूरी है। क्योंकि सीजफायर कंपनी

बाजार के आस्तिकों का कोरोना युद्ध

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तेलंगाना का एक मशहूर मंदिर है, नाम है भद्राचलम मंदिर। यहां हर #रामनवमी वाले दिन यानी आज के दिन सीता-राम कल्याण समारोह होता है। वह कार्यक्रम आज भी हुआ। इसमें #कोरोना को दूर भगाने के लिए भगवान से प्रार्थना की गई।...जानते हैं इस मंदिर में इस बहुत बड़ी पूजा के दौरान #तेलंगाना के दो मंत्री भी परिवार सहित शामिल हुए। पूरा मंदिर पुजारियों, दोनों मंत्रियों के परिवारों और उनके इर्द-गिर्द के चमचों, टीवी कैमरा चलाने वाले और पत्रकारों से भरा हुआ था। मैं #भद्राचलम_मंदिर में आज हुई पूजा की आलोचना नहीं करूंगा। मैं भद्राचलम और निजामुद्दीन मरकज में हुई घटना की तुलना नहीं करना चाहता हूं। चाहे वो #निजामुद्दीन_मरकज में जमा हुए तबलीगी जमात के मुसलमान हों या फिर आज तेलंगाना के भद्राचलम मंदिर में जमा हुए लोग हैं या उस दिन #अयोध्या में योगी की गोद में #रामलला की स्थापना के समय सैकड़ों लोगों का जमावड़ा हो....ये सारे के सारे कट्टर धर्मांध लोगों का ही जमावड़ा है। ऊपर वाले ने मुझे दो ही आंखें दी हुई हैं। उन्हीं दो आंखों से मैं ये सारे दृश्य देख रहा हूं।  लेकिन बड़ा सवाल य

साम्प्रदायिक वायरस और निज़ामुद्दीन में जमाती

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साम्प्रदायिक वायरस (Communal Virus) किसी भी कोरोना वायरस से ज्यादा ख़तरनाक है। कोरोना खत्म हो जाएगा लेकिन साम्प्रदायिक वायरस कभी खत्म नहीं होगा। सरकारी पार्कों में #नागपुरी_शाखाएँ_बंद हैं लेकिन उनके कीटाणु तमाम मीडिया आउटलेट्स में प्रवेश कर चुके हैं और उनके ज़रिए #साम्प्रदायिकवायरस को फैलाने का काम जारी है। भेड़िए को अगर इंसान का ख़ून मुँह में लग जाए तो वह रोज़ाना इंसान का शिकार करने निकलता है। तमाम #टीवी चैनल और कुछ पत्रकारों की हालत इंसानी ख़ून को पसंद करने वाले भेड़िए जैसी हो गई है। #कोरोना में साम्प्रदायिक नुक़्ता अभी तक नदारद या नजरन्दाज था। लेकिन भेड़ियों के झुंड ने आख़िरकार दिल्ली के हज़रत #निज़ामुद्दीन बस्ती के एक मरकज़ की #तबलीगी_जमात में जाकर तलाश लिया। हालाँकि #तबलीगीजमात वग़ैरह जैसी चीज़ों के मैं व्यक्तिगत तौर पर बहुत खिलाफ हूँ। जिन लोगों की दुनिया खुदा के #रसूल और उनके #अहलेबैत, #सूफीज्म से आगे नहीं बढ़ती वो कोई भी तबलीग कर लें, ऊँचा पाजामा पहन लें, कम से कम #इस्लाम को तो नहीं फैला रहे। अभी जो घटना हुई उससे लोगों को बचाया जा सकता था। लेकिन तबलीगी जमात मे

दिल्ली जनसंहार में लुटे-पिटे लोग ही अब मुलजिम हैं...

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#दिल्ली_रक्तपात या #दिल्ली_जनसंहार_2020 की दास्तान खत्म होने का नाम नहीं ले रही है... अकबरी दादी (85) के बाद अब सलमा खातून दादी (70) की हत्या ने मेरे जेहन को झकझोर दिया है। मैंने गामड़ी एक्सटेंशन में तीन मंजिला बिल्डिंग में जिंदा जला दी गई 85 साल की अकबरी दादी की कहानी सोशल मीडिया पर लिखी थी...लेकिन अब एक और बुजुर्ग महिला सलमा खातून का नाम भी #दिल्ली_में_हुई_हिंसा या #जनसंहार में सामने आया है।... सोच रहा हूं कि उन इंसानों का दिमाग कैसा रहा होगा जिसने सलमा खातून और अकबरी की जान ली होगी...क्या हत्यारी #दंगाइयों_की_भीड़ को अपनी मां या दादी का चेहरा याद नहीं रहा होगा...आप लोग मेरी मदद कीजिए कि असहाय, निहत्थी महिला को  एक भीड़ अपनी आंखों के सामने कैसे कत्ल करती होगी...उस भीड़ के दिल-ओ-दिमाग में ऐसा क्या रहता होगा...उत्तेजना के वे कौन से क्षण होते हैं जब भीड़ एक असहाय महिला या पुरुष का कत्ल कर देती है।...कुछ इन्हीं हालात में दंगाइयों ने अंकित शर्मा, दलबीर नेगी और रत्नलाल का कत्ल किया होगा...क्या भीड़ नाम के आधार पर, कपड़ों के पहनावे के आधार पर कत्ल को अंजाम देती है...बताइए..

अफ़वाहों का शहर

अफ़वाहें आपका टेस्ट होती हैं...कल रात भी टेस्ट हुआ... देशभर में गणेश मूर्तियों को दूध पिलाया जाना याद है... क्या यह भी याद है कि वो कौन सा #अफवाहबाज_संगठन था जिसने गणेश मूर्तियों के दूध पीने की बात सुबह सुबह उड़ा दी थी... 21 सितंबर 1995...मैं तब बरेली में था। #दैनिक_जागरण नामक #हिंदूवादी_अखबार में काम करता था। हमारे #संपादक बच्चन सिंह जी और जनरल मैनेजर चंद्रकांत त्रिपाठी जी को यह सब बहुत वाहियात लगा और 11 बजे पूर्वाह्न होने वाली एडिटोरियल मीटिंग में इसकी जाँच पड़ताल का ज़िम्मा मुझे सौंपा गया। #बरेली में उस समय हरदिल अज़ीज़ और बहुत प्यारे इंसान एडीएम सिटी मंजुल जोशी जी थे। वह मित्र जैसे थे। मैं और मेरे #पत्रकार दोस्त गीतेश जौली (दैनिक आज) उनके पास पहुँचे। उसके बाद हमने उनके साथ बरेली के बड़े मंदिरों का दौरा करने का प्लान बनाया। रामपुर गार्डन बरेली के मंदिर में गेट पर अभी हम लोगों के क़दम पड़े ही थे कि जोशी जी ने कहा - ज़रा किनारे, पैरों में दूध लभेड़ उठेगा। मैंने कहा - जब #मूर्तियाँ_दूध_पी_रही_हैं तो दूध यहाँ कैसे आ सकता है? यह चावल का पानी वग़ैरह होगा। उन्होंने कहा - मैं मजा

60 दिन का आंदोलनबाग - शाहीनबाग

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शाहीनबाग आंदोलन 60 दिन पुराना हो गया है। जहरीले चुनाव से उबरी दिल्ली में किसी आंदोलन का दो महीने जिंदा रहना और फिलहाल पीछे न हटने के संकल्प ने इसे आंदोलनबाग बना दिया है। ऐसा आंदोलनबाग जिसे तौहीनबाग बताने की कोशिश की गई, लेकिन शाहीनबाग की हिजाबी महिलाओं ने तमाम शहरों में कई सौ शाहीनबाग खड़े कर दिए हैं। बिना किसी मार्केटिंग के सहारे चल रहे महिलाओं के इस आंदोलन को कभी धार्मिक तो कभी आयडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचनवाने की राजनीति) बताकर खारिज करने की कोशिश की गई। लेकिन आजाद भारत में मात्र किसी कानून के विरोध में हिजाबी महिलाओं का आंदोलन इतना लंबा कभी नहीं चला।  #शाहीनबाग_में_महिलाओं_का_आंदोलन  15 दिसंबर  2019  से शुरु हुआ था। आंदोलन की शुरुआत शाहीनबाग के पास #जामिया_मिल्लिया_इस्लामिया में समान नागरिकता कानून (#सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (#एनआरसी) के खिलाफ छात्र-छात्राओं के आंदोलन पर पुलिस लाठी चार्ज के खिलाफ हुई थी। शाहीनबाग की महिलाओं के नक्श-ए-कदम पर #बिहार में गया , उत्तर प्रदेश में #लखनऊ, #इलाहाबाद और #कानपुर तो पश्चिम बंगाल में कोलकाता में इसी तर्ज पर महिलाएं इसी मुद्दे पर ध

अहमदाबाद की दीवारें

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हथियार बेचने आ रहे हिरोशिमा के क़ातिलों की संतान के स्वागत में वो कौन लाखों लोग अहमदाबाद की सड़कों पर होंगे ? दीवार के इस पार या उस पार वाले नरोदा पाटिया वाले या गुलबर्गा वाले। डिटेंशन कैंप सरीखी बस्तियों वाले या खास तरह के कपड़े पहनने वाले।। वो जो भी होंगे पर किसान तो नहीं होंगे तो क्या वो फिर जियो के कामगार होंगे। नरसंहारक होंगे या दुष्प्रचारक होंगे तड़ीपार होंगे या फिर चिड़ीमार होंगे।। हो सकता है वो फ़क़ीरी सरदार हों दस लाख के सूट वाले असरदार हों। लुटते पिटते दलितों के रिश्तेदार हों या वो नागपुर से आए चौकीदार हों।। आओ ऐसी बाँटने वाली दीवारें गिरा दें हर कोने में शाहीनबाग आबाद करा दें। सब मक्कार तानाशाहों को झुका दें नागरिकता के मायने इन्हें भी बता दें।। -यूसुफ़ किरमानी Ahamadaabaad kee Deevaaren hathiyaar bechane aa rahe hiroshima ke qaatilon kee santaan ke svaagat mein vo kaun laakhon log ahamadaabaad kee sadakon par honge ?  deevaar ke is paar ya us paar vaale naroda paatiya vaale ya gulabarga vaale.  ditenshan kaimp sa

क्योंकि वे मुसलमान थे...

सुनो ऐ अल्लाह वालों...सुनो ऐ मोहम्मद के अनुयायियों सुनो... आप सभी को ईद मिलादुन नबी बहुत मुबारक हालाँकि मैं खुद 17 रबी उल अव्वल को पैगंबर साहब का जन्मदिन मनाता हूँ। ख़ैर यह कोई मसला नहीं है, जिसका जब दिल करे मनाये। यह पहली ऐसी मिलादुन नबी है जब आप उदास हैं। हालाँकि आपकी ख़ामोशी ने उन धार्मिक आतंकियों को हरा दिया है, जिनके मंसूबे कुछ और थे। क्या कोई अदालती फ़ैसला आपका मुस्तकबिल (भविष्य) बदल देगा... ज़रा अपने हंगामाखेज और गौरवशाली अतीत पर नज़र डालिए...याद कीजिए... क्या आप भूल गए...जब आपके पास न हवाई जहाज थे, न मिसाइलें थी, ऐसे वक्त में आप अपने घोड़े दौड़ाते हुए रेगिस्तान, पहाड़, नदियों को रौंदते हुए आए और भारत वर्ष पर छा गए। उस वक्त आपके पास गोला बारूद था। आपने धनुष बाण वालों को गोला बारूद का फॉरमूला दिया और बताया कि युद्ध कैसे जीते जाते हैं। आपने ख़ैरात, ज़कात, खुम्स से दूसरों की ग़ुरबत को मिटा दिया। आपने खाने-पीने, जिंदगी जीने का नया हुनर दिया जो तब तक इन मामलों में पिछड़े हुए थे। आपने यहाँ की धरती को अपना लिया। ख़ून पसीने से सींचने लगे। महल तैयार कर दिये। लाल क़िला खड़ा क

मुसलमानों के पास खोने को क्या है...

अयोध्या में राम मंदिर बनेगा या बाबरी मस्जिद को उसकी जगह वापस मिलने का संभावित फ़ैसला आने में अब कुछ घंटे बचे हैं। सवाल यह है कि अगर फ़ैसला मंदिर के पक्ष में आया तो मुसलमान क्या करेंगे... मुसलमानों को एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस सारे मामले में न तो उनका कुछ दाँव पर लगा है और न ही उनके पास कुछ खोने को है। अगर इस मामले में किसी का कुछ दाँव पर लगा है या कुछ खोने को है तो वह हैं दोनों धर्मों के उलेमा, राजनीतिक नेता, उनके दल, महंत, शंकराचार्य, अखाड़ों और बिज़नेसमैन बन चुके बाबा।  जिस जगह पर विवाद है, वहाँ पाँच सौ साल से विवाद है। अयोध्या में पहने वाले मुसलमानों ने तो वहाँ जाकर एक बार भी नमाज़ पढ़ने की कोशिश नहीं की। फिर बाहरी मुसलमान आज़म खान और अौवैसी ने क्या वहाँ कभी जाकर नमाज़ पढ़ने की कोशिश नहीं की। मेरे वतन के मुसलमान अयोध्या और फ़ैज़ाबाद की मस्जिदों में शांति से नमाज़ पढ़ रहे हैं। अगर फ़ैसला मस्जिद के पक्ष में भी आ जाता है तो भी अयोध्या में रहने वाले मुसलमान पुरानी जगह पर नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं जायेंगे। आज़म या ओवैसी रोज़ाना तो आने से रहे। इसलिए फ़ैसला