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Ek ziddi dhun: सड़ांध मार रहे हैं तालाब

मेरे ही साथी भाई, धीरेश सैनी ने अपने ब्लॉग पर एक गांधीवादी अनुपम मिश्र के सेक्युलरिज्म का भंडाफोड़ किया है। उस पर काफी तीखी प्रतिक्रियाएं भी उन्हें मिली हैं। क्यों न आप लोग भी उस लेख को पढ़ें। ब्लॉग का लिंक मैं यहां दे रहा हूं। Ek ziddi dhun: सड़ांध मार रहे हैं तालाब

प्लीज, उन्हें हिंदू आतंकवादी न कहें

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कुछ जगहों पर हुए ब्लास्ट के सिलसिले में इंदौर से हिंदू जागरण मंच के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पर बहुत सख्त प्रतिक्रिया (tough reaction) देखने को मिली। इनकी गिरफ्तारी से बीजेपी और आरएसएस के लोगों ने एक बहुत वाजिब सवाल उठाया है और उस पर देशव्यापी बहस बहुत जरूरी है। हिंदू जागरण मंच के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद न्यूज चैनलों और कुछ अखबारों ने जो खबर दिखाई और पढ़ाई, इनके लिए hindu terrorist यानी हिंदू आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल किया। यह ठीक वही पैटर्न था जब कुछ मुस्लिम आतंकवादियों के पकड़े जाने पर पहले अमेरिका परस्त पश्चिमी मीडिया (western media) ने और फिर भारतीय मीडिया ने उनको इस्लामी आतंकवादी (islamic terrorist) लिखना शुरू कर दिया। बीजेपी के बड़े नेता यशवंत सिन्हा ने 24 अक्टूबर को एक बयान जारी कर इस बात पर सख्त आपत्ति जताई कि हिंदू जागरण मंच के कार्यकर्ताओं को हिंदू आतंकवादी क्यों बताया जा रहा है। सिन्हा ने अपने बयान में यह भी कहा कि बीजेपी के प्राइम मिनिस्ट इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी यह कई बार कह चुके हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म या जाति नहीं ह

जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि- हम दुनिया में क्‍यों आये अपने साथ ऐसा क्‍या लायें जिसके लिए घुट-घुट कर जीते हैं दिन रात कडवा घूँट पीते हैं क्‍या दुनिया में आना जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि, बच्‍चे पैदा क्‍यों किये जाते हैं, पैदा होते ही क्‍यों छोड दिये जाते हैं, मॉं की गोद बच्‍चे को क्‍यों नहीं मिलती ये बात उसे दिन रात क्‍यों खलती क्‍या पैदा होना जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि, हम सपने क्‍यों देखते हैं सपनों से हमारा क्‍या रिश्‍ता हैं जिन्‍हे देख आदमी अंदर ही अंदर पिसता हैं क्‍या सपने देखना जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि, इंसान-इंसान के पीछे क्‍यों पडा हैं जिसे समझों अपना पही छुरा लिए खडा हैं अपने पन की नौटंकी क्‍यों करता हैं इंसान इंसानियत का कत्‍ल खुद करता हैं इंसान क्‍या इंसानिसत जरूरी हैं अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं। (इस सोच का अभी अंत नही हैं) -जतिन, बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्‍ली विश्विद

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

जिनकी दिलचस्पी साहित्य में है और जिन्हें महाभारत सीरियल के कुछ संवाद अब तक याद होंगे, उन्होंने राही मासूम रजा का नाम जरूर सुना होगा। राही साहब की एक नज्म – मेरा नाम मुसलमानों जैसा है - के बारे में मैं कई लोगों से अक्सर सुना करता था लेकिन किसी ने न तो वह पूरी नज्म सुनाई और न हीं कोशिश की कि मैं उसे पूरा पढ़ सकूं। अलीगढ़ से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका वाड्मय ने अभी राही साहब पर पूरा अंक निकाला है। जहां यह पूरी नज्म मौजूद है। मैं उस पत्रिका के संपादक डॉ. फीरोज अहमद का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने उस नज्म को तलाशा और छापा। वह पत्रिका ब्लॉग स्पॉट पर भी है। आप खुद भी वहां जाकर पूरा अंक पढ़ सकते हैं। उसी अंक में कैफी आजमी साहब की मकान के नाम से मशहूर नज्म दी गई है। वह भी मौजूदा हालात के मद्देनजर बहुत सटीक है। इसलिए उसे भी दे रहा हूं। इसके अलावा सीमा गुप्ता की भी दो रचनाएं हैं, जिन्हें आप जरूर पढ़ना चाहेंगे। मेरा नाम मुसलमानों जैसा है - राही मासूम रजा मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो। मेरे उस कमरे को लूटो जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के