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कंझावला के किसान

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राजधानी दिल्ली में एक गांव है जिसका नाम कंझावला है। यहां के किसनों की जमीन (Farmers Land) काफी पहले डीडीए ने अपनी विभिन्न योजनाओं के लिए Aquire कर ली थी। उस समय के मूल्य के हिसाब से किसानों को उसका मुआवजा भी दे दिया गया था। अब दिल्ली सरकार जब उसी जमीन पर कई योजनाएं लेकर आई और जमीन का रेट मौजूदा बाजार भाव से तय कर कई अरब रुपये खजाने में डाला लिए तो किसानों की नींद खुली और उन्होंने आंदोलन शुरू कर दिया। पहले तो ये जानिए कि दिल्ली के किसान (नाम के लिए ही सही) की स्थिति बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा के किसान जैसी नहीं है, जहां के किसान पर काफी कर्ज है और उसे मौत को गले लगाना पड़ता है। दो जून की रोटी का जुगाड़ वहां का किसान मुश्किल से कर पाता है और धन के अभाव में उसके फसल की पैदावार भी अच्छी नहीं होती है। दिल्ली के किसान तो आयकर देने की स्थिति में हैं, यह अलग बात है कि देते नहीं। आप दिल्ली के किसी भी गांव में चले जाइए, आपको जो ठाठ-बाट वहां दिखेगा, वैसा तो यूपी-बिहार से यहां आकर कई हजार कमाने वालों को भी नसीब नहीं है। सरकार से अपनी जमीन का मुआवजा लेने के बाद दिल्ली के किसान न

कैसे कहें खुशियों वाली ईद

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इस बार की ईद (Eid) कुछ खास थी, इस मायने में नहीं कि इस बार किसी मुल्ला-मौलवी (Clergy) ने इसे खास ढंग से मनाने का कोई फतवा जारी किया था। खास बात जो तमाम लोगों ने महसूस की कि लोग ईद की मुबारकबाद देने के बाद यह पूछना नहीं भूलते थे कि खैरियत से गुजर गई न? पिछले साल की ईद में यह बात नहीं थी। इस बार मस्जिद में ईद की नमाज पढ़ने गए लोग इस जल्दी में थे कि किस तरह जल्द से जल्द घर पहुंच जाएं, दिल्ली की जामा मस्जिद (Jama Masjid) में पहले के मुकाबले ज्यादा भीड़ नहीं थी। जामा मस्जिद, चांदनी चौक, दरियागंज इलाके के व्यापारियों का कहना था कि ईद से तीन दिन पहले वे जो Business करते थे, वह इस बार नहीं हुआ। यानी बिजनेस के नजरिए से नुकसान सिर्फ मुसलमानों का ही नहीं बल्कि हिंदू व्यापारियों का भी हुआ है। साजिश रचने वाले शायद यह भूल जाते हैं कि एसी घटनाएं किसी एक समुदाय की खुशी या नाखुशी का बायस नहीं बनतीं बल्कि उसकी मार चौतरफा होती है और उस आग में सभी को जलना पड़ता है। कुछ नतीजे जरा देर से आते हैं। बहरहाल, दोपहर होते-होते तमाम गैर मुस्लिम मित्र घर पर ईद की मुबारकबाद देने आए। ये तमाम मित्र जो विचारधारा से कांग

नई दुनिया का शुरू होना

देश में चुनावी माहौल धीरे-धीरे अपने रंग में आ रहा है। कई शहरों में serial blast हो चुके हैं और हिंदू-मुसलमानों के बीच गलतफहमी पैदा करने की कोशिशें परवान चढ़ने लगी हैं। यह सब voting के वक्त फसल काटने की तैयारी का ही हिस्सा है। कुछ इन्हीं हालात में नई दिल्ली New Delhi से एक नए newspaper नई दुनिया का शुरू होना कुछ सुखद अहसास करा गया है। मैं नवभारत टाइम्स में काम करता हूं और आमतौर पर journalism के मक्का दिल्ली में इसका चलन कम ही है कि किसी दूसरे तारीफ की जाए। मैं अपने hawker को बहुत पहले ही कह चुका था कि मुझे २ अक्टूबर से ही नई दुनिया अखबार चाहिए। eid का त्यौहार होने के बावजूद सुबह सबसे पहले अखबार पढ़ने से ही की। हॉकर ने अपना वादा पूरा किया था। सबसे पहले नई दुनिया ही उठाया। पहले ही पेज पर प्रधान संपादक आलोक मेहता देश के कुछ अन्य जानी-मानी शख्सियतों के साथ अखबार के पत्रिका की प्रति हाथ में लिए हुए खड़े नजर आए। साथ में गुलजार, जावेद अख्तर, राजेंद्र यादव भी थे। मुझे लगा कि लगता है किसी मंत्री वगैरह ने टाइम नहीं दिया इसलिए किसी बड़े नेता की तस्वीर नहीं लगी है। लेकिन जैसे-जैसे बाकी पन्ने पलटे त

हम हिंदी ब्लॉगर्स

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हिंदी में ब्लॉगिंग (blogging in hindi) न करने का अफसोस मुझे लंबे अरसे से रहा है। तमाम मित्रों ने मेरे कहने पर ब्लॉग शुरू किए और काफी बेहतर ढंग से अब भी कर रहे हैं लेकिन मैं उनसे किए गए वायदे के बावजूद इसके लिए वक्त नहीं निकल पा रहा था। बहरहाल, अब किसी लापरवाही की आड़ न लेते हुए मैंने फैसला किया कि अपनी मातृभाषा में तो ब्लॉगिंग करना ही पड़ेगी। हिंदी में जिस तरह से रोजाना नए-नए ब्लॉग आ रहे हैं, उससे हिंदी काफी समृद्ध हो रही है और मेरी कोशिश भी उसमें कुछ योगदान करने है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर हिंदी के ब्लॉगों में लिखा क्या जाए? कुछ बहुत बेहतर ब्लॉग हैं जहां तमाम राजनीतिक.सामाजिक और धार्मिक विषयों पर बहस होती है लेकिन कतिपय पत्रकारों द्वारा चलाए जा रहे हैं इन ब्लॉगों का क्या कुल मकसद यही है। आखिर English में विभिन्न विषयों में जो ब्लॉग हैं और जिनको खूब पढ़ा भी जाता है, वैसा कुछ हिंदी में क्यों नहीं है? हालांकि हिंदी में कुछ अच्छी पहल हुई है जिसमें आर. अनुराधा (लिंक – http://ranuradha.blogspot.com) का कैंसर पर पहला एसा ब्लॉग है जो हिंदी में है और कैंसर के मरीजों को संघर्ष की प्रेरण