खुतबों से नहीं शाह फैसल जैसों से करें उम्मीद
मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 12 मई 2010 को संपादकीय पेज पर पहले लेख के रूप में प्रकाशित हुआ है। वह लेख संपादित है और इस ब्लॉग पर वही लेख असंपादित रूप में आप लोगों के सामने है। नवभारत टाइम्स में प्रकाशित लेख उसके आनलाइन वेब पोर्टल पर भी उपलब्ध है। वहां पाठकों की प्रतिक्रिया भी आ रही है। - यूसुफ किरमानी
बीते शुक्रवार यानी जुमे को अखबारों में पहले पेज पर दो खबरें थीं, एक तो कसाब को फांसी की सजा सुनाई जाने की और दूसरी सिविल सर्विस परीक्षा में आल इंडिया टॉपर शाह फैसल की। आप इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि एक तरफ तो मुसलमान का एक पाकिस्तानी चेहरा है तो दूसरी तरफ भारतीय चेहरा। हर जुमे की नमाज में मस्जिदों में खुतबा पढ़ा जाता है जिसमें तमाम मजहबी बातों के अलावा अगर मौलवी-मौलाना चाहते हैं तो मौजूदा हालात पर भी रोशनी डालते हैं। अक्सर अमेरिका की निंदा के स्वर इन खुतबों से सुनाई देते हैं। उम्मीद थी कि इस बार जुमे को किसी न किसी बड़ी मस्जिद से आम मुसलमान के इन दो चेहरों की तुलना शायद कोई मौलवी या मौलाना करें लेकिन मुस्लिम उलेमा इस मौके को खो बैठे।
देश की आजादी के बाद यह चौथा ऐसा मौका है जब किसी मुस्लिम युवक ने आईएएस परीक्षा में इतनी बड़ी सफलता पाई है। जिसके पिता का आतंकवादियों ने कत्ल कर दिया हो, जिसने एमबीबीएस परीक्षा भी पास कर ली हो और जिसकी शिक्षक मां ने उसे रास्ता दिखाया, वह जुमे की नमाज में कम से कम उल्लेख किए जाने का हकदार तो है ही। लेकिन कुछ और वजहों से भी शाह फैसल का उल्लेख मस्जिदों और मदरसों से लेकर गली-कूंचों तक में किया जाना जरूरी हो गया है।
पिछले 25 साल से सिविल सर्विसेज की परीक्षा में मुस्लिम कैंडिडेट्स की सफलता का प्रतिशत 2.5 से 3.5 फीसदी के बीच चल रहा था । ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब 2006 के नतीजे सामने आए तो यह आंकड़ा 2.2 फीसदी पर टिका था लेकिन 2008 से इसमें सुधार का सिलसिला शुरू हुआ है। 2009 में जब 2008 की परीक्षा के नतीजे घोषित हुए तो मुस्लिम कैंडिडेट्स की सफलता का प्रतिशत बढ़कर 3.9 फीसदी हो गया। पिछले साल 791 सफल घोषित कैंडिडेट्स में से 31 मुस्लिम युवक थे हालांकि इस बार 2010 में घोषित नतीजों में 21 मुस्लिम कैंडिडेट्स ही इस परीक्षा में चुने गए लेकिन उनकी रैंक में जबर्दस्त सुधार हुआ है। उसका उदाहरण सिर्फ और सिर्फ शाह फैसल है जबकि 2009 में घोषित नतीजों में किसी मुस्लिम कैंडिडेट (सूफिया फारुकी) की सबसे अच्छी रैंक 20वीं थी। देश की कुल आबादी में मुसलमान 13.4 फीसदी हैं, इस नजरिए से सिविल सेवा में 3.92 या 3.62 फीसदी तक पहुंचना कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं है लेकिन शाह फैसल ने एक उम्मीद जगा दी है, भारतीय मुसलमानों की उस युवा पीढ़ी के लिए जो सचमुच में फतवों से ऊपर उठकर कुछ करना चाहती है। जो अपने धर्म और देश के कल्चर में रहकर कुछ पाने की तमन्ना रखता है।
इस बात पर जब-तब बहस होती रही है कि भारतीय मुस्लिम युवक शिक्षा के नजरिए से बाकी समुदायों के मुकाबले बहुत पिछड़े हुए हैं। नैशनल सैंपल सर्वे का आंकड़ा (1 जनवरी 2006) इसकी पुष्टि भी करता है। उसके मुताबिक मुसलमानों की कुल आबादी में कॉलेज ग्रैजुएट सिर्फ 3.6 फीसदी हैं। सिविल सेवा परीक्षा के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता ग्रैजुएट है। मुसलमानों में शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन की बहस को अंत में सरकार पर ले जाकर खत्म कर दिया जाता है। राजेंद्र सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद तो इस बहस को और भी मजबूती मिली है।
बात जुमे पर पढ़े जाने वाले खुतबे से शुरू हुई थी। सरकार जब कुछ करेगी, तब करेगी। नमाज पढ़ाने वाले इमाम या मौलवी जुमे पर जुटने वाली भीड़ से क्या इन खुतबों में कभी यह कहते हैं कि हमें ज्यादा मुस्लिम युवकों को आईएएस-आईपीएस बनाने के लिए या आईआईएम तक पहुंचाने के लिए स्टडी सेंटर चाहिए। कितने ऐसे उलेमा या मौलाना हैं जो अपने समुदाय के लोगों से यह अपील करते नजर आते हैं कि हमें भी बिहार और झारखंड के सुपर 30 मॉडल को अपनाकर अपने बच्चों को आईआईटी तक पहुंचाने का रास्ता अपनाना चाहिए। आप मस्जिद और मदरसे के लिए चंदा मांग सकते हैं तो इस काम के लिए परहेज क्यों। अकेले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) और जामिया हमदर्द डीम्ड यूनिवर्सिटी में स्टडी सर्कल चलाकर आप बड़ी तादाद में आईएएस, आईपीएस या आईआटीइन पैदा नहीं कर सकते। यह सही है कि शाह फैसल की सफलता से हमदर्द स्टडी सर्कल का नाम रोशन हुआ है लेकिन क्या यह सफलता हर साल दोहराई जाती रहेगी। क्या अनंतनाग या सीवान का हर युवक शाह फैसल की तरह दिल्ली आकर हमदर्द स्टडी सर्कल में सिविल सर्विसेज की तैयारी कर सकेगा। कुछ नामुमकिन सा लगता है। पर अगर शाह फैसल को रोल मॉडल बनाकर आप इसे एक आंदोलन का रूप दे दें तो यह मुमकिन है। शाह फैसल ने आपको एक मौका दे दिया है। आप चाहें तो मुस्लिम युवकों में इस सकारात्मक पक्ष को उभारकर मौलाना अबुल कलाम आजाद या डॉ. जाकिर हुसैन बन सकते हैं। कुछ ऐसा कीजिए की दारुल उलूम देवबंद या दारुल उलूम नदवा (लखनऊ) को एक ऐसे मदरसे के रूप में भी जाना जाए कि यहां से भी पढ़कर मुस्लिम युवक आईएएस या आईआईएम तक पहुंच सकते हैं।
देवबंद और नदवा के उलेमाओं के पास एक और भी मौका है – अपनी छवि और विचारधारा में हल्का सा बदलाव करने का। वे चाहें तो अपनी दीनी विचारधारा के साथ-साथ शाह फैसल के रोल मॉडल को भी अपनी विचारधारा में शामिल कर उसे देश के मुस्लिम युवकों के सामने रख सकते हैं। शाह फैसल आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर के रहने वाले हैं। वह खुद भी आतंकवाद से पीड़ित हैं। जरा सोचिए कि जिस राज्य में अलगाववाद की आग में झुलसकर भी तमाम युवक उसे गले लगा रहे हैं तो ऐसे में उन्हीं के बीच से ऐसे युवक का आना जो कुछ करना चाहता है, इस देश के धर्म निरपेक्ष स्वरूप की बहुत बड़ी सफलता है। इस संदेश के व्यापक प्रचार-प्रसार की जरूरत है। इस संदेश को देवबंद और नदवा के उलेमा बहुत आसानी के साथ आम मुसलमानों तक पहुंचा सकते हैं।
तिरुपति बालाजी मंदिर का नाम सभी ने सुना होगा। पर कितने लोग तिरुपति देवस्थानम द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं के बारे में जानते हैं। यहां के मठ की शिक्षण संस्थाएं वेल्लूर से लेकर दिल्ली तक फैली हुई हैं और उसमें प्राइमरी स्कूल से लेकर डिग्री कॉलेज तक हैं। इनकी संस्थाओं में गरीब बच्चे पढ़कर आईएएस और आईआईटी की मंजिल तयकरते हैं। अम्मा के नाम से विख्यात मां अमृतानंदमयी तो अब उत्तर भारतीय लोगों में ही उतनी प्रसिद्ध हो गई हैं जितनी दक्षिण भारत में। आज वह अपने प्रवचन से ज्यादा स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने के लिए जानी जा रही हैं। जहां-जहां वह जाती हैं, शिक्षा के लिए उनका संदेश विशेष रूप से होता है। मुस्लिम समुदाय से भी एकाध उदाहरण आप ले सकते हैं। कर्नाटक में गुलबर्गा शरीफ दरगाह में आने वाले चढ़ावे और अन्य आमदनी से वहां की कमिटी कई सफल वोकेशनल कॉलेज चला रही है। शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे सादिक ने अलीगढ़ में एकदम एएमयू की तर्ज पर एक ऐसा शिक्षण संस्थान खड़ा किया है जहां कई रोजगारपरक विषयों की पढ़ाई हो रही है। मौलाना कल्बे जव्वाद लखनऊ में ऐसा कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। पर, ईसाई मिशनरियों की तरह इसे जिस रूप में लिया जाना चाहिए था, उस रूप में नहीं लिया गया। अजमेर शरीफ दरगाह को भारत ही नहीं पूरी दुनिया के मुसलमानों में एक पवित्र स्थल के रूप में जाना जाता है, क्या वहां की कमिटी ने कभी कोई यूनिवर्सिटी या प्रोफेशनल कॉलेज खोलने की पहल की। ज्यादा दूर न जाकर राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अजमेर के मुकाबले कम चढ़ावा नहीं आता, लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल क्या और शाह फैसल पैदा करने में खर्च नहीं किया जा सकता। दिल्ली की सबसे बड़ी शाही जामा मस्जिद में हर जुमे को नमाज पढ़ने वाला मुसलमान अगर एक रुपया भी इस काम के लिए दे तो आप कुछ साल में एक अच्छा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थान खड़ा कर सकते हैं। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब तो धर्म के अलावा इल्म की बात भी बताकर गए थे, पर कितने लोग हैं जो इल्म की अलख जगाने के लिए मौजूदा हालात में सामने आए हैं। यहां पर उन लोगों का जिक्र बेमानी होगा जिन्होंने सांसद और एमएलए बनने के बाद निजी हितों के लिए शिक्षण संस्थाएं खोलीं।
यह वे लोग हैं जो प्रधानमंत्री रोजगार योजना और अल्पसंख्यक कल्याण निगमों से कर्ज दिलाने की बात कर आपको हमेशा हस्तशिल्पी बनाए रखना चाहते हैं। यह लोग नहीं चाहते कि फिरोजाबाद में कांच की भट्ठी में तपने वाला मुस्लिम युवक आईएएस का सपना भी देखे। वे लोग लखनऊ के चिकन कपड़ों का का एक्सपोर्ट लाइसेंस तो खुद हासिल करेंगे लेकिन अपने समुदाय के लड़के और लड़कियों से चाहेंगे कि वे सारी जिंदगी उन कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई करते रहें। इनकी नजर वक्फ की संपत्तियों पर रहती है, ऐसी संपत्तियों पर शिक्षण संस्थाएं खोलना सबसे आसान है लेकिन इसका सौदा यह तत्व कौड़ियों में कर लेते हैं।
हाल के दिनों में कुछ लोगों ने शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में मुसलमानों के रिजर्वेशन की बात उठाई है। हालांकि यह मुद्दा वोट बैंक से भी जुड़ा है और आने वाले वर्षों में इस मुद्दे को और हवा भी मिलेगी लेकिन आगे बढ़ने के लिए सिर्फ रिजर्वेशन की बाट जोहना गलत होगा। मुसलमानों में पिछड़े लोगों (पसेमंदा) की बहुत बड़ी तादाद है। उनमें से कुछ को कुछ राज्यों में रिजर्वेशन भी हासिल है लेकिन इससे उनकी स्थिति में कोई चमत्कार होता नजर नहीं आ रहा है। यह सही है कि इस वर्ग को रिजर्वेशन मिलना चाहिए क्योंकि अन्य समुदाय के पिछड़े वर्गों के मुकाबले उसके हालात भिन्न नहीं हैं लेकिन यह काम सरकार और राजनीतिक दलों पर छोड़ देना चाहिए। रिजर्वेशन को लेकर देश के एक बहुत बड़े वर्ग में नफरत भी है। इसलिए इस मसले को राजनीतिक दलों को ही तय करने दें। हां, समय-समय पर इनके चेहरों को पढ़ते भी रहें लेकिन मंजिल की तरफ बढ़ने के लिए किसी रिजर्वेशन का इंतजार करना वक्त बर्बाद करना है।
शाह फैसल ने सिविल सर्विसेज का नतीजा घोषित होने के बाद अपनी प्रतिक्रिया में जो एक बात खासतौर पर रेखांकित की है, उस पर भी उलेमाओं को मुस्लिम युवकों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि वह इस मौके का इस्तेमाल एक बड़े बदलाव के लिए करेंगे। यह एक बड़ी बात उन्होंने कही है, जिससे ध्वनि यह निकलती है कि देश की इस प्रतिष्ठित मानी जाने वाली सेवा में जब तक इन समुदायों के लोग नहीं पहुंचेंगे तब तक आप किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते। देश की नीतियों को अपने हिसाब से नौकरशाही यानी आईएएस लॉबी ही नियंत्रित करती है। फैसल का यह संदेश भी अगर इस समुदाय के लोगों को इस सेवा में आने के लिए प्रेरित कर सका तो यह बड़ी कामयाबी मानी जाएगी।
बीते शुक्रवार यानी जुमे को अखबारों में पहले पेज पर दो खबरें थीं, एक तो कसाब को फांसी की सजा सुनाई जाने की और दूसरी सिविल सर्विस परीक्षा में आल इंडिया टॉपर शाह फैसल की। आप इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि एक तरफ तो मुसलमान का एक पाकिस्तानी चेहरा है तो दूसरी तरफ भारतीय चेहरा। हर जुमे की नमाज में मस्जिदों में खुतबा पढ़ा जाता है जिसमें तमाम मजहबी बातों के अलावा अगर मौलवी-मौलाना चाहते हैं तो मौजूदा हालात पर भी रोशनी डालते हैं। अक्सर अमेरिका की निंदा के स्वर इन खुतबों से सुनाई देते हैं। उम्मीद थी कि इस बार जुमे को किसी न किसी बड़ी मस्जिद से आम मुसलमान के इन दो चेहरों की तुलना शायद कोई मौलवी या मौलाना करें लेकिन मुस्लिम उलेमा इस मौके को खो बैठे।
देश की आजादी के बाद यह चौथा ऐसा मौका है जब किसी मुस्लिम युवक ने आईएएस परीक्षा में इतनी बड़ी सफलता पाई है। जिसके पिता का आतंकवादियों ने कत्ल कर दिया हो, जिसने एमबीबीएस परीक्षा भी पास कर ली हो और जिसकी शिक्षक मां ने उसे रास्ता दिखाया, वह जुमे की नमाज में कम से कम उल्लेख किए जाने का हकदार तो है ही। लेकिन कुछ और वजहों से भी शाह फैसल का उल्लेख मस्जिदों और मदरसों से लेकर गली-कूंचों तक में किया जाना जरूरी हो गया है।
पिछले 25 साल से सिविल सर्विसेज की परीक्षा में मुस्लिम कैंडिडेट्स की सफलता का प्रतिशत 2.5 से 3.5 फीसदी के बीच चल रहा था । ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब 2006 के नतीजे सामने आए तो यह आंकड़ा 2.2 फीसदी पर टिका था लेकिन 2008 से इसमें सुधार का सिलसिला शुरू हुआ है। 2009 में जब 2008 की परीक्षा के नतीजे घोषित हुए तो मुस्लिम कैंडिडेट्स की सफलता का प्रतिशत बढ़कर 3.9 फीसदी हो गया। पिछले साल 791 सफल घोषित कैंडिडेट्स में से 31 मुस्लिम युवक थे हालांकि इस बार 2010 में घोषित नतीजों में 21 मुस्लिम कैंडिडेट्स ही इस परीक्षा में चुने गए लेकिन उनकी रैंक में जबर्दस्त सुधार हुआ है। उसका उदाहरण सिर्फ और सिर्फ शाह फैसल है जबकि 2009 में घोषित नतीजों में किसी मुस्लिम कैंडिडेट (सूफिया फारुकी) की सबसे अच्छी रैंक 20वीं थी। देश की कुल आबादी में मुसलमान 13.4 फीसदी हैं, इस नजरिए से सिविल सेवा में 3.92 या 3.62 फीसदी तक पहुंचना कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं है लेकिन शाह फैसल ने एक उम्मीद जगा दी है, भारतीय मुसलमानों की उस युवा पीढ़ी के लिए जो सचमुच में फतवों से ऊपर उठकर कुछ करना चाहती है। जो अपने धर्म और देश के कल्चर में रहकर कुछ पाने की तमन्ना रखता है।
इस बात पर जब-तब बहस होती रही है कि भारतीय मुस्लिम युवक शिक्षा के नजरिए से बाकी समुदायों के मुकाबले बहुत पिछड़े हुए हैं। नैशनल सैंपल सर्वे का आंकड़ा (1 जनवरी 2006) इसकी पुष्टि भी करता है। उसके मुताबिक मुसलमानों की कुल आबादी में कॉलेज ग्रैजुएट सिर्फ 3.6 फीसदी हैं। सिविल सेवा परीक्षा के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता ग्रैजुएट है। मुसलमानों में शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन की बहस को अंत में सरकार पर ले जाकर खत्म कर दिया जाता है। राजेंद्र सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद तो इस बहस को और भी मजबूती मिली है।
बात जुमे पर पढ़े जाने वाले खुतबे से शुरू हुई थी। सरकार जब कुछ करेगी, तब करेगी। नमाज पढ़ाने वाले इमाम या मौलवी जुमे पर जुटने वाली भीड़ से क्या इन खुतबों में कभी यह कहते हैं कि हमें ज्यादा मुस्लिम युवकों को आईएएस-आईपीएस बनाने के लिए या आईआईएम तक पहुंचाने के लिए स्टडी सेंटर चाहिए। कितने ऐसे उलेमा या मौलाना हैं जो अपने समुदाय के लोगों से यह अपील करते नजर आते हैं कि हमें भी बिहार और झारखंड के सुपर 30 मॉडल को अपनाकर अपने बच्चों को आईआईटी तक पहुंचाने का रास्ता अपनाना चाहिए। आप मस्जिद और मदरसे के लिए चंदा मांग सकते हैं तो इस काम के लिए परहेज क्यों। अकेले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) और जामिया हमदर्द डीम्ड यूनिवर्सिटी में स्टडी सर्कल चलाकर आप बड़ी तादाद में आईएएस, आईपीएस या आईआटीइन पैदा नहीं कर सकते। यह सही है कि शाह फैसल की सफलता से हमदर्द स्टडी सर्कल का नाम रोशन हुआ है लेकिन क्या यह सफलता हर साल दोहराई जाती रहेगी। क्या अनंतनाग या सीवान का हर युवक शाह फैसल की तरह दिल्ली आकर हमदर्द स्टडी सर्कल में सिविल सर्विसेज की तैयारी कर सकेगा। कुछ नामुमकिन सा लगता है। पर अगर शाह फैसल को रोल मॉडल बनाकर आप इसे एक आंदोलन का रूप दे दें तो यह मुमकिन है। शाह फैसल ने आपको एक मौका दे दिया है। आप चाहें तो मुस्लिम युवकों में इस सकारात्मक पक्ष को उभारकर मौलाना अबुल कलाम आजाद या डॉ. जाकिर हुसैन बन सकते हैं। कुछ ऐसा कीजिए की दारुल उलूम देवबंद या दारुल उलूम नदवा (लखनऊ) को एक ऐसे मदरसे के रूप में भी जाना जाए कि यहां से भी पढ़कर मुस्लिम युवक आईएएस या आईआईएम तक पहुंच सकते हैं।
देवबंद और नदवा के उलेमाओं के पास एक और भी मौका है – अपनी छवि और विचारधारा में हल्का सा बदलाव करने का। वे चाहें तो अपनी दीनी विचारधारा के साथ-साथ शाह फैसल के रोल मॉडल को भी अपनी विचारधारा में शामिल कर उसे देश के मुस्लिम युवकों के सामने रख सकते हैं। शाह फैसल आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर के रहने वाले हैं। वह खुद भी आतंकवाद से पीड़ित हैं। जरा सोचिए कि जिस राज्य में अलगाववाद की आग में झुलसकर भी तमाम युवक उसे गले लगा रहे हैं तो ऐसे में उन्हीं के बीच से ऐसे युवक का आना जो कुछ करना चाहता है, इस देश के धर्म निरपेक्ष स्वरूप की बहुत बड़ी सफलता है। इस संदेश के व्यापक प्रचार-प्रसार की जरूरत है। इस संदेश को देवबंद और नदवा के उलेमा बहुत आसानी के साथ आम मुसलमानों तक पहुंचा सकते हैं।
तिरुपति बालाजी मंदिर का नाम सभी ने सुना होगा। पर कितने लोग तिरुपति देवस्थानम द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं के बारे में जानते हैं। यहां के मठ की शिक्षण संस्थाएं वेल्लूर से लेकर दिल्ली तक फैली हुई हैं और उसमें प्राइमरी स्कूल से लेकर डिग्री कॉलेज तक हैं। इनकी संस्थाओं में गरीब बच्चे पढ़कर आईएएस और आईआईटी की मंजिल तयकरते हैं। अम्मा के नाम से विख्यात मां अमृतानंदमयी तो अब उत्तर भारतीय लोगों में ही उतनी प्रसिद्ध हो गई हैं जितनी दक्षिण भारत में। आज वह अपने प्रवचन से ज्यादा स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने के लिए जानी जा रही हैं। जहां-जहां वह जाती हैं, शिक्षा के लिए उनका संदेश विशेष रूप से होता है। मुस्लिम समुदाय से भी एकाध उदाहरण आप ले सकते हैं। कर्नाटक में गुलबर्गा शरीफ दरगाह में आने वाले चढ़ावे और अन्य आमदनी से वहां की कमिटी कई सफल वोकेशनल कॉलेज चला रही है। शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे सादिक ने अलीगढ़ में एकदम एएमयू की तर्ज पर एक ऐसा शिक्षण संस्थान खड़ा किया है जहां कई रोजगारपरक विषयों की पढ़ाई हो रही है। मौलाना कल्बे जव्वाद लखनऊ में ऐसा कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। पर, ईसाई मिशनरियों की तरह इसे जिस रूप में लिया जाना चाहिए था, उस रूप में नहीं लिया गया। अजमेर शरीफ दरगाह को भारत ही नहीं पूरी दुनिया के मुसलमानों में एक पवित्र स्थल के रूप में जाना जाता है, क्या वहां की कमिटी ने कभी कोई यूनिवर्सिटी या प्रोफेशनल कॉलेज खोलने की पहल की। ज्यादा दूर न जाकर राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अजमेर के मुकाबले कम चढ़ावा नहीं आता, लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल क्या और शाह फैसल पैदा करने में खर्च नहीं किया जा सकता। दिल्ली की सबसे बड़ी शाही जामा मस्जिद में हर जुमे को नमाज पढ़ने वाला मुसलमान अगर एक रुपया भी इस काम के लिए दे तो आप कुछ साल में एक अच्छा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थान खड़ा कर सकते हैं। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब तो धर्म के अलावा इल्म की बात भी बताकर गए थे, पर कितने लोग हैं जो इल्म की अलख जगाने के लिए मौजूदा हालात में सामने आए हैं। यहां पर उन लोगों का जिक्र बेमानी होगा जिन्होंने सांसद और एमएलए बनने के बाद निजी हितों के लिए शिक्षण संस्थाएं खोलीं।
यह वे लोग हैं जो प्रधानमंत्री रोजगार योजना और अल्पसंख्यक कल्याण निगमों से कर्ज दिलाने की बात कर आपको हमेशा हस्तशिल्पी बनाए रखना चाहते हैं। यह लोग नहीं चाहते कि फिरोजाबाद में कांच की भट्ठी में तपने वाला मुस्लिम युवक आईएएस का सपना भी देखे। वे लोग लखनऊ के चिकन कपड़ों का का एक्सपोर्ट लाइसेंस तो खुद हासिल करेंगे लेकिन अपने समुदाय के लड़के और लड़कियों से चाहेंगे कि वे सारी जिंदगी उन कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई करते रहें। इनकी नजर वक्फ की संपत्तियों पर रहती है, ऐसी संपत्तियों पर शिक्षण संस्थाएं खोलना सबसे आसान है लेकिन इसका सौदा यह तत्व कौड़ियों में कर लेते हैं।
हाल के दिनों में कुछ लोगों ने शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में मुसलमानों के रिजर्वेशन की बात उठाई है। हालांकि यह मुद्दा वोट बैंक से भी जुड़ा है और आने वाले वर्षों में इस मुद्दे को और हवा भी मिलेगी लेकिन आगे बढ़ने के लिए सिर्फ रिजर्वेशन की बाट जोहना गलत होगा। मुसलमानों में पिछड़े लोगों (पसेमंदा) की बहुत बड़ी तादाद है। उनमें से कुछ को कुछ राज्यों में रिजर्वेशन भी हासिल है लेकिन इससे उनकी स्थिति में कोई चमत्कार होता नजर नहीं आ रहा है। यह सही है कि इस वर्ग को रिजर्वेशन मिलना चाहिए क्योंकि अन्य समुदाय के पिछड़े वर्गों के मुकाबले उसके हालात भिन्न नहीं हैं लेकिन यह काम सरकार और राजनीतिक दलों पर छोड़ देना चाहिए। रिजर्वेशन को लेकर देश के एक बहुत बड़े वर्ग में नफरत भी है। इसलिए इस मसले को राजनीतिक दलों को ही तय करने दें। हां, समय-समय पर इनके चेहरों को पढ़ते भी रहें लेकिन मंजिल की तरफ बढ़ने के लिए किसी रिजर्वेशन का इंतजार करना वक्त बर्बाद करना है।
शाह फैसल ने सिविल सर्विसेज का नतीजा घोषित होने के बाद अपनी प्रतिक्रिया में जो एक बात खासतौर पर रेखांकित की है, उस पर भी उलेमाओं को मुस्लिम युवकों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि वह इस मौके का इस्तेमाल एक बड़े बदलाव के लिए करेंगे। यह एक बड़ी बात उन्होंने कही है, जिससे ध्वनि यह निकलती है कि देश की इस प्रतिष्ठित मानी जाने वाली सेवा में जब तक इन समुदायों के लोग नहीं पहुंचेंगे तब तक आप किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते। देश की नीतियों को अपने हिसाब से नौकरशाही यानी आईएएस लॉबी ही नियंत्रित करती है। फैसल का यह संदेश भी अगर इस समुदाय के लोगों को इस सेवा में आने के लिए प्रेरित कर सका तो यह बड़ी कामयाबी मानी जाएगी।
टिप्पणियाँ
ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया।
एक अच्छे लेख के लिए शुक्रिया.....
मैंने आपके दोनों लेख का प्रिन्ट ले लिया है. घर जा कर आराम से देखूंगा कि संपादित और असंपादित में क्या फर्क है.
अब तो आना-जाना लगा रहेगा आपके ब्लॉग पर