गुजरात, हिमाचल, दिल्ली के चुनाव नतीजे क्या बताते हैं- मोदीत्व कितना चलेगा

Election results of Gujarat, Himachal, Delhi : how long Moditva will last


गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे 8 दिसंबर को आए। इससे पहले 7 दिसंबर को दिल्ली में एमसीडी चुनाव के नतीजे आए थे। लेकिन मीडिया गुजरात की चर्चा कुछ ज्यादा ही कर रहा है। 8 दिसंबर को गुजरात में बीजेपी को जीत दिलाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendar Modi) ने अपने संबोधन में भी गुजरात का जिक्र ज्यादा किया, हिमाचल और एमसीडी में बीजेपी की हार की चर्चा नहीं के बराबर की। 


गुजरात में बीजेपी को भारी जीत मिली है। इसमें कोई शक नहीं है। 182 विधानसभा सीटों में से 157 सीटें जीतना मामूली बात नहीं है। दिल्ली एमसीडी चुनावों में भी भगवा पार्टी (Saffron Party ) ने अप्रत्याशित रूप से दमदार प्रदर्शन किया, लेकिन आम आदमी पार्टी से एक मामूली अंतर से हार गई।

गुजरात में बीजेपी की जीत काबिले तारीफ है। तथ्य यह है कि उसे 52% से अधिक वोट शेयर मिला है। यही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दबदबे को बताने के लिए काफी है।





कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच विपक्षी वोटों के बंटवारे के साथ ही गुजराती मतदाताओं से मोदी के  भावनात्मक जुड़ाव की केमिस्ट्री भारी पड़ी। गुजरात में हिन्दुत्व (Hindutva) के रास्ते 'मोदीत्व' राज कायम हो चुका है। अंगद के पैर की तरह मोदीत्व जम गया है। हिंदुत्व, विकास के वादे और मजबूत क्षेत्रीय पहचान ने मोदी के व्यक्तित्व के प्रति गुजरातियों में निष्ठा पैदा की है। गुजरात में चुनाव अभियान के दौरान इस बार मोदी के पोस्टर और बैनर छाए रहे। बीजेपी की हर रैली में "मोदी मोदी" का नारा सुनाई दिया। लोगों को महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, अस्पतालों की बदतर हालत, महंगी शिक्षा और मोरबी पुल हादसे में 135 लोगों की दर्दनाक मौत जैसे मुद्दों से कोई मतलब नहीं था। मोदीत्व ने इन सारे मुद्दों को गौण कर दिया।

इस बार, बीजेपी ने न सिर्फ मध्य गुजरात पर अपनी पकड़ मजबूत की है, बल्कि सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात में भी जीत हासिल की है, सूरत में आप के विरोधियों को हराया है। आप के दो दिग्गज, जिनके जीतने की उम्मीद की जा रही थी, कटरागाम में आप (AAP) के प्रदेश अध्यक्ष गोपाल इटालिया और वराछा रोड से पाटीदार नेता अल्पेश कथीरिया दोनों हार गए हैं। आप के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार इसुदन गढ़वी भी हार गए।


बीजेपी (BJP) ने गुजरात में अब वो उपलब्धि हासिल कर ली है जो लोकतांत्रिक राजनीति में कम ही देखने को मिलती है। एकमात्र  रिकॉर्ड बंगाल में कम्युनिस्टों के गठबंधन का है जिसने 2006 में अपने लगातार सातवें चुनाव में तीन-चौथाई बहुमत हासिल किया था। गुजरात में बीजेपी ने उसी सफलता को दोहराया है।

गुजरात में कांग्रेस का सफाया हो गया है। यह चौंकाने वाली बात है कि वो 17 सीटों के अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गई है। 2017 में बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के करीब आने वाली कांग्रेस इस बार गुजरात चुनाव में रहस्यमय तरीके से गायब थी, जमीन पर नदारद थी। पार्टी के पास इस बार राज्यस्तरीय कोई चेहरा ही नहीं था। पोरबंदर में अर्जुन मोधवाडिया जो अपनी सीट से जीते हैं, अपने ही इलाके में फंस कर रह गए। वंसदा में अनंत कुमार पटेल जो जीते हैं लेकिन बस अपने जिले में सक्रिय रहे। कांग्रेस एक अखिल गुजरात नेता के लिए तरसती रही। कांग्रेस के तथाकथित "मौन," और डोर-टू-डोर अभियान न चलाने की वजह से पार्टी का लगभग सफाया हो गया। वडगाम से जीते जिग्नेश मेवाणी जैसे कुछ ही लोगों ने मोदी लहर से लड़ने का हौसला दिखाया है। बताना पड़ेगा कि मेवाणी को अपने चुनाव अभियान के लिए चंदा जुटाना पड़ा। यानी पार्टी की तरफ से इस होनहार नेता को कोई आर्थिक मदद नहीं मिली।


बहरहाल, गुजरात के इन चुनाव नतीजों को सिर्फ गुजरात के चश्मे से देखना गलत होगा। हकीकत यह है कि बीजेपी की गुजरात में सफलता के महज 24 घंटे पहले ही आम आदमी पार्टी भारी बाधाओं के बावजूद एमसीडी चुनाव में बीजेपी को हराने में सफल रही थी। एमसीडी चुनाव मार्च में होने थे। लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार किसी और तैयारी में लगे थे। उन्होंने एमसीडी वार्ड की सीमाओं को बदलवा दिया। आप के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए और कुछ को जेल में डाल दिया गया। दिल्ली में कई केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने बीजेपी के लिए प्रचार किया। लेकिन आप इन सब भारी पड़ी। एक दशक पुरानी नौसिखिया पार्टी ने बीजेपी पर एमसीडी में विजय पा ली।  हालांकि यह जीत बहुत बड़ी नहीं है लेकिन जीत तो फिर जीत ही है।

पर, जरा ठहरिए । दिल्ली एमसीडी के नतीजों से भी ज्यादा अहम हिमाचल प्रदेश का नतीजा है। चार साल बाद कांग्रेस ने बीजेपी को सीधे मुकाबले में मात दी है। आखिरी बार कांग्रेस 2018 में ऐसा करने में सफल रही थी जब उसने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल की थी। उसके बाद से चाहे गोवा हो या उत्तराखंड या उत्तर प्रदेश कांग्रेस बार-बार बीजेपी से पिटती रही है। हिमाचल प्रदेश ने इस पैटर्न को एक महत्वपूर्ण विराम दे दिया है।

हिमाचल प्रदेश के नतीजे यह भी दिखाते हैं कि कुछ स्थितियों में मोदी फैक्टर या मोदीत्व पर्याप्त नहीं है और चुनाव जीतने के "मोदी मॉडल" की अपनी सीमाएँ हैं। गुजरात में मोदीत्व चल सकता है लेकिन गुजरात या दिल्ली में नहीं चल सकता। पीएम ने पहाड़ी राज्य हिमाचल में बड़े पैमाने पर प्रचार किया था। यहां तक ​​​​कि मतदाताओं से कहा गया कि वे स्थानीय उम्मीदवार को भूल जाएं, सिर्फ कमल पर वोट मोदी के लिए वोट होगा। लेकिन यह जुमलेबाजी या पिच काम नहीं आई।

पुरानी पेंशन योजना को लेकर सरकारी कर्मचारियों की चिंता, सेब उत्पादकों के संकट के अलावा बीजेपी नेताओं में आपसी कलह और विद्रोह जैसी शिकायतों ने बीजेपी के चुनाव प्रचार पर भारी असर डाला। जेपी नड्डा गुट ने जिस तरह बीजेपी के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री पीके धूमल को दरकिनार किया, उससे पार्टी में गंभीर विद्रोह हुआ। जबकि कांग्रेस ने बिल्कुल ही स्थानीय अभियान चलाया, जिसका नेतृत्व राज्य के नेताओं ने किया और पार्टी में असंतोष को सफलतापूर्वक मिटा दिया। राहुल गांधी एक बार भी हिमाचल नहीं गए, हालांकि प्रियंका गांधी वाड्रा ने कई रैलियां कीं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत से पता चलता है कि सत्ता विरोधी लहर जबरदस्त तरीके से मौजूद थी और सत्ता विरोधी लहर बीजेपी को अलोकप्रिय बनाकर सरकार से बेदखल कर सकती है। यानी राज्य में आम जनता के मुद्दों को तरीके से पेश किया जाए तो ऐसा नहीं है कि जनता आपको वोट नहीं देगी।


इन छोटे से चुनाव में एक तरह से तीनों दलों - बीजेपी, कांग्रेस और आप के लिए संदेश है। ये सभी इन नतीजों से सीख ले सकते हैं। जहां तक ​​बीजेपी की बात है, सबक यह है कि "डबल इंजन सरकार" मॉडल हर राज्य में काम नहीं करता है, और मोदीत्व फैक्टर की भी अपनी सीमाएं हैं। हां, गुजरात में, मोदी लोगों की जिन्दगी से जरूर बड़े हो गए हैं, लेकिन याद रखें कि राज्य में सत्ता विरोधी लहर की वजह से ही 44 मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए गए। मुख्यमंत्री बदलना पड़ा।

 
ठीक उसी समय हिमाचल में, एक हल्के मुख्यमंत्री, जयराम ठाकुर, मोदी के हाई-प्रोफाइल अभियान के बावजूद, जनता के असंतोष को दूर करने में नाकाम रहे। इस तरह बीजेपी मोदी पर अत्यधिक निर्भर तो हो सकती है, लेकिन वह अभी भी अपने सारे अंडे मोदी की टोकरी में डालने का जोखिम नहीं उठा सकती है, न ही वह "डबल इंजन" से हर जगह काम चलाने की उम्मीद कर सकती है।

कांग्रेस के लिए, सबक स्पष्ट हैं: भारत जोड़ो यात्रा को चुनावी मुकाबलों से 'अलग' करना नुकसानदेह रहा। पार्टी संगठन कमजोर बना हुआ है और लगातार लड़खड़ा रहा है। कांग्रेस के गुजरात प्रभारी, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, राजस्थान में अपने क्षेत्र में आग बुझाने में बहुत व्यस्त थे और शायद ही अपना पूरा ध्यान गुजरात पर लगा सके। पिछले दो दशकों में, गुजरात में कांग्रेस पर बीजेपी के साथ 'सेटिंग' करने का आरोप लगाया गया है। इससे नेतृत्व में विश्वसनीयता की कमी साफ नजर आ रही है। सटीक और दमदार नेतृत्व के अभाव में पार्टी उभर नहीं पाएगी।

आप के कदमों में एक उछाल तो है लेकिन जो सबक वह सीख सकती है वह यह है: "स्वास्थ्य और शिक्षा" मॉडल हमेशा काम नहीं करते हैं। एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की कमी के कारण कुछ सामाजिक समूह उससे दूर हो सकते हैं। आम आदमी पार्टी की स्पष्ट विचारधारा क्या है, कोई नहीं जानता। कभी तो वो हिन्दुत्व का मुखौटा लगा लेती है तो कभी मुसलमानों को अपने मतलब के लिए पटाने लगती है। वो दिल्ली के हिन्दुओं को तीर्थ यात्रा और अयोध्या भेजने का साहस जुटा लेती है लेकिन पार्टी के खर्च पर दिल्ली के मुसलमानों को हज यात्रा पर भेजने का साहस नहीं जुटा पाती है। पार्टी अभी भी कई राज्यों में उम्मीदवारों के एक विस्तृत पूल और मजबूत स्थानीय संगठन से दूर है।

अब देश और हम लोग 2024 के आम चुनावों में प्रवेश करने जा रहे हैं, संदेश स्पष्ट है: राष्ट्रीय चुनावों में मोदी नेतृत्व या मोदीत्व बीजेपी के लिए काम कर सकता है लेकिन यह साफ है कि राज्यों में, स्थानीय मुद्दे ज्यादा मायने रखते हैं। भारतीय चुनावी लोकतंत्र भले ही थोड़ा घुट रहा हो, लेकिन यह अभी भी सांस ले रहा है और अभी भी जीवित है। मोदी अजेय नहीं हैं, न अमृत पीकर आए हैं। उनके सामने उनके रहते उनके जुमलों के बावजूद बीजेपी को हराया जा सकता है आरएसएश को चुनौती दी जा सकती है। हिमाचल विधानसभा और दिल्ली एमसीडी चुनाव के नतीजों ने यही बताया है।
 




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