हबीब तनवीर का जाना
मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर ने ऐसे वक्त में आंख बंद की है, जब भारत का रंगकर्म धीरे-धीरे परिवक्वता की तरफ बढ़ रहा था। खासकर दिल्ली के रंगकर्मी अब किस दादा के पास टिप्स लेने जाएंगे, कुछ समझ नहीं आ रहा। हबीब साहब ऐसे रंगकर्मी नहीं थे जिन्होंने सत्ता या सरकार से समझौता किया हो। चाहे सन् 2000 में जहरीली हवा का उन्होंने मंचन किया हो या फिर 2006 में राज रक्त का मंचन रहा हो। अपनी शैली और अपने अंदाज में उनकी बात कहने का ढंग बड़ा निराला था। पोंगा पंडित के मंचन पर जब आरएसएस और बीजेपी के लोगों ने हल्ला मचाया तो वह इस नाटक को किसी भी कीमत पर वापस लेने को तैयार नहीं हुए। एक नुक्कड़ नाटक के मंचन के दौरान सफदर हाशमी की हत्या (जिसमें कांग्रेस के एक विधायक पर आरोप है) का सबसे तीखा विरोध हबीब साहब ने ही किया था। उसके बाद सहमत जैसी संस्था अस्तित्व में आई।
रंगकर्म के बारे में मेरे जैसे नासमझ लोगों ने जिन लाहौर वेख्या के बाद ही समझ पाए कि दरअसल नाटक की जुबान क्या होती है और सामने बैठे व्यक्ति से किस तरह सीधा संवाद किया जाता है। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित उनका नाटक मोटेराम का सत्याग्रह इसकी जीती जागती मिसाल है। दिल्ली में होने वाले तमाम नाट्य आयोजन की आलोचना करने वाले एक स्तंभकार से जब मैंने दो साल पहले पूछा था कि हबीब साहब की शैली की कोई कमी बताएं तो वह कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने रहस्य खोला कि दरअसल में पिछले कई साल से इस पर काम कर रहा हूं लेकिन कोई कोना पकड़ में ही नहीं आ रहा है। मैं उनकी बात पर बहुत देर तक हंसता रहा। हालांकि दिल्ली जैसे शहर में जहां अरसे तक राम गोपाल बजाज जैसे लोगों का सिक्का चला, वहां हबीब साहब की विधा की आलोचना न हो पाए, यह कम आश्चर्यजनक नहीं है।
बहरहाल, वह अपनेआप में एक संस्था थे और जीते जागते कभी समझौतावादी नहीं बने। जनवादी लेखकों की सभा में भी खूब खुलकर बोलते थे और धार्मिक कट्टरपन पर उनका कोई वार खाली नहीं जाता था। पत्नी मोनिका मिश्रा के देहांत के बाद हबीब साहब कुछ सदमे में रहने लगे थे और शायद अब 85 साल की उम्र में यह तन्हाई उनके जाने का कारण बनी।
बस इतना ही, उनको श्रद्धापूर्वक याद करते हुए। नीचे एक लेख है, उसे जरूर पढ़ें। यह पिछले साल अनुराग वत्स के ब्लॉग पर छापा गया था और इसे मैं वहां से आभार सहित ले रहा हूं। हबीब साहब पर इससे ज्यादा प्रासंगिक उनके इंतकाल के दूसरे दिन और कुछ भी नहीं हो सकता।
रंगकर्म के बारे में मेरे जैसे नासमझ लोगों ने जिन लाहौर वेख्या के बाद ही समझ पाए कि दरअसल नाटक की जुबान क्या होती है और सामने बैठे व्यक्ति से किस तरह सीधा संवाद किया जाता है। प्रेमचंद की कहानी पर आधारित उनका नाटक मोटेराम का सत्याग्रह इसकी जीती जागती मिसाल है। दिल्ली में होने वाले तमाम नाट्य आयोजन की आलोचना करने वाले एक स्तंभकार से जब मैंने दो साल पहले पूछा था कि हबीब साहब की शैली की कोई कमी बताएं तो वह कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने रहस्य खोला कि दरअसल में पिछले कई साल से इस पर काम कर रहा हूं लेकिन कोई कोना पकड़ में ही नहीं आ रहा है। मैं उनकी बात पर बहुत देर तक हंसता रहा। हालांकि दिल्ली जैसे शहर में जहां अरसे तक राम गोपाल बजाज जैसे लोगों का सिक्का चला, वहां हबीब साहब की विधा की आलोचना न हो पाए, यह कम आश्चर्यजनक नहीं है।
बहरहाल, वह अपनेआप में एक संस्था थे और जीते जागते कभी समझौतावादी नहीं बने। जनवादी लेखकों की सभा में भी खूब खुलकर बोलते थे और धार्मिक कट्टरपन पर उनका कोई वार खाली नहीं जाता था। पत्नी मोनिका मिश्रा के देहांत के बाद हबीब साहब कुछ सदमे में रहने लगे थे और शायद अब 85 साल की उम्र में यह तन्हाई उनके जाने का कारण बनी।
बस इतना ही, उनको श्रद्धापूर्वक याद करते हुए। नीचे एक लेख है, उसे जरूर पढ़ें। यह पिछले साल अनुराग वत्स के ब्लॉग पर छापा गया था और इसे मैं वहां से आभार सहित ले रहा हूं। हबीब साहब पर इससे ज्यादा प्रासंगिक उनके इंतकाल के दूसरे दिन और कुछ भी नहीं हो सकता।
टिप्पणियाँ
उन्हें नमन और आपको हार्दिक आभार उनके बारे में इतना अच्छा आलेख उपलब्ध कराने के लिये।