प्यार की संवेदनाओं से खड़ा होता है मजहब
सुप्रसिद्ध लेखिका सादिया देहलवी की सूफीज्म पर हाल ही में एक किताब छपकर आई है। यह इंटरव्यू मैंने उसी संदर्भ में उनसे लिया है। इसे आज के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित भी किया जा चुका है। इसे वहां से साभार सहित लिया जा रहा है।
इस्लाम और सूफी सिलसिला एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह एक मजहब है जिसमें कड़े नियम कानून हैं लेकिन दरअसल सूफीज्म इस्लाम की जान है। मेरी किताब सूफीज्म (प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स) इसी पर रोशनी डालती है। सूफी सिलसिले में शानदार शायरी, डांस, आर्ट और सबसे ज्यादा उस प्यार को पाने की परिकल्पना है जिसे पूरी दुनिया अपने-अपने नजरिए से देखती है। बहुत सारे मुसलमानों और ज्यादातर गैर मुस्लिमों के लिए यह स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल है कि इस्लाम में सूफी नामक कोई अध्यात्मिक धारा भी बहती है। सूफी संत इसे अहले दिल कहते हैं यानी दिल वाले। उनकी नजर में धर्म का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि उसमें प्यार की संवेदनाएं न हों। इसीलिए सूफीज्म को इस्लाम का दिल कहा जाता है।
पर, नई पीढ़ी के लिए इसका मतलब बदलता जा रहा है। बहरहाल, इस्लाम और सूफीज्म को अलग नहीं किया जा सकता। कुरानशरीफ से ही हमें पता चलता है कि इस्लाम वह नहीं है जिसे 1400 साल पहले पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने शुरू किया था, इस्लाम तो तब से है जब दुनिया बनी और आदम हमारे पहले पैगंबर थे।
कुछ कट्टरपंथी मुसलमान इस बात को मनवाने पर अड़े हुए हैं कि सूफीज्म इस्लाम में जबरन थोपी गई एक विचारधारा है और यह एक पाप है जिसे मूर्तिपूजा करने वाले हिंदुओं की परंपरा से लिया गया है। इसकी वजह वे यह बताते हैं कि हमारे पूर्वज हिंदू थे और जिस तरह वे भगवान को खुश करने के लिए गाते-बजाते थे, वही काम सूफी लोग इस्लाम में कर रहे हैं। मेरे कुछ मित्र ही इसे अंधविश्वास बताते हैं जब मैं किसी दरगाह या सूफी संतों की मजारों पर जाती हूं। मेंरी किताब पाकिस्तान में भी बिक रही है और मेरे मित्र डरे हुए हैं कि वहां के तालिबानी तत्व मुझे काफिर घोषित कर मेरे खिलाफ फतवा जारी कर देंगे। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है। मुझे जो सच लगा और दिखाई दिया, मैंने वही लिखा है। सभी सच बोलने वालों को ऐसे कट्टरपंथी तत्वों के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। तालिबानी हों या कोई और कट्टरपंथी ये सब बहके हुए लोग हैं। दरअसल तालिबानी तो वहाबी हैं और वहाबियत सऊदी अरब से इंपोर्ट की गई है। ये लोग इस्लाम के नाम पर कट्टरपन को फैलाना चाहते हैं। ये लोग इस्लाम के नाम पर गतफहमियों को फैला रहे हैं। इन लोगों के खिलाफ खड़ा होना बहुत जरूरी है। यही वजह है कि जब मैं सूफीज्म को क्लासिकल इस्लाम कहती हूं तो यही बताने की कोशिश है कि एक ऐसा इस्लाम जिसमें सभी के लिए मोहब्बत है, भाईचारा है और समानता है। इसलिए मैं इस किताब को इस्लाम के नजरिए से महत्वपूर्ण मानती हूं, इसमें उन तमाम गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की गई है और बताया गया है कि इस्लाम और आतंकवाद एक दूसरे से जुड़े नहीं है बल्कि इस्लाम आतंकवाद के खिलाफ है।
यह सही है कि इस उपमहाद्वीप के तमाम मुसलमानों की तरह मेरे पूर्वज भी हिंदू विचारधारा में विश्वास करते थे। मेरे परिवार के सबसे पहले पूर्वज कोई ओमप्रकाश अरोड़ा थे। मेरे परदादा दिल्ली में 17वीं शताब्दी के मध्य में तब बसे जब यहां मुगलों की हुकूमत थी। हम लोगों का संबंध मुल्तान के पास भैरा नामक जगह से है, जहां सरायकी बोली जाती है। मेरे परिवार के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि हमारे समुदाय के कुछ लोग एक बार हरिद्वार में गंगा स्नान के लिए जा रहे थे, रास्ते में उनकी मुलाकात सूफी शम्सुद्दीन तबरिज (ध्यान रखें ये वह संत नहीं थे जिन्हें रूमी ने अपना गुरू बताया है) से हुई। सूफी शम्सुद्दीन ने इन लोगों से कहा कि अगर वे गंगा को यहीं उनके सामने ले आएं तो क्या वे इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने यह चमत्कार किया और वे सारे लोग मुसलमान हो गए।
सूफीज्म का रास्ता हमें बताता है कि हम कैसे अपने अहंकार से ऊपर उठकर अध्यात्म के उच्च स्तर को प्राप्त कर सकते हैं। इसकी राह ऐसी है कि जो कभी खत्म नहीं होती और यह हर एक की अपनी इच्छा पर है कि वह राह पर किस हद तक चलना चाहता है। सूफी सिलसिला हमें इसके लिए गाइड करता है लेकिन इसमें ढल जाना इतना आसान भी नहीं है। मैंने जब इस पर काम करना शुरू किया तो खुद मैंने अपने में बदलाव पाया। तमाम सूफी संतों की जीवनियों पर मैंने जब खोज शुरू की तो पाया कि सभी संत कितनी मुश्किल भरे दौर से गुजरे हैं और उन पर किस तरह की मुसीबतें गुजरीं लेकिन उन्होंने अपना रास्ता नहीं छोड़ा और हक व सच्चाई के रास्ते पर जमे रहे। वाकई अगर आप अपने दिल, दिमाग और शरीर को तमाम बातों से ऊपर उठा लें तो आप भी इस रास्ते को पा सकते हैं, बेशक आप पर कितने जुल्मो-सितम होते रहें। महान सूफी संत बाबा फरीद के जीवन से मैं इतनी प्रभावित हूं कि बता नहीं सकती। हालांकि सूफी सिलसिले में मैं दो दशक पहले ही आ गई थी लेकिन अब भी मैं उस स्तर को नहीं पा सकी हूं और कई बार इसमें झटका सा लगता है लेकिन फिर संभल जाती हूं।
मैंने पाया कि अध्यात्मिकता और दुख एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ईश्वर खुद कहता है कि वह टूटे दिलों में रहता है। सभी सूफी संत मानते हैं कि खुशियां और मुसीबतें सिर्फ ऊपर वाले की मर्जी से मिलती हैं। इसलिए कुछ ऐसा-वैसा होने पर मैं इसे ईश्वर का प्रसाद मान लेती हूं। इसलिए ईश्वर से मेरा संबंध अब बदल गया है। यह संबंध अब प्यार और दोस्ती का है। मैंने अपनी बिखरी हुई जिंदगी में सूफीज्म के कुछ सिद्धांतों को लागू करने की कोशिश की है। ये हैं रिदा (सब कुछ अल्लाह पर छोड़ देना), तवक्कुल (उस पर विश्वास करना), सब्र (धैर्य) और मोहब्बा (प्यार)। इससे मुझे नई ताकत मिली है। अब मुझे मौत से डर नहीं लगता। यह जीवन अब उसके हवाले है और अगर मौत होती है तो उससे मिलने का मौका मिलता है।
फोटो के बारे में
पहला फोटो सादिया देहलवी का है
दूसरे फोटो में सादिया देहलवी जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के वीसी मुशीरुल हसन और मशहूर लेखक खुशवंत सिंह के साथ अपनी किताब के विमोचन के अवसर पर
तीसरे फोटो में सादिया देहलवी अपनी किताब के साथ
(Courtesy: Navbharat Times, You can read this article at navbharat times online website for reader's comment. Link - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4681220.cms)
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Arjun Sharma, Jalandhar punjab