न लिखने के खूबसूरत बहाने
ऐसा क्यों होता है कि जब हम लोग लिखने से जी चुराने लगते हैं और दोष देते हैं कि क्या करें समय नहीं मिला, क्या करें व्यस्ततता बहुत बढ़ गई है, क्या करें दफ्तर में स्थितियां तनावपूर्ण हैं इसलिए इस तरफ ध्यान नहीं है, क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या लिखें...कुछ ऐसे ही बहाने या इससे भी खूबसूरत बहाने हम लोग तलाश लेते हैं। कुछ और लोगों ने इसमें यह भी जोड़ दिया है कि अरे ब्लॉग पर लिखने के लिए इतना क्या गंभीर होना या ब्लॉग ही तो है जब अपना लिखा खुद पढ़ना और खुश होना है तो फिर कभी भी लिख लेंगे...
लेकिन यह तमाम बातें सही नहीं हैं। मुझे इसका आभास इन दिनों तब हुआ जब मैंने ब्लॉग पर लिखना बिल्कुल बंद कर दिया और ईमेल पर और फोन तमाम लोगों के उलहने सुनने को मिले। कुछ लोगों ने तो उम्र के साथ कलम में जंग लगने तक का ताना मार दिया।
...यह सच है कि जो लिखने वाले हैं उन्हें लिखना चाहिए फिर वह चाहे खुद के परम संतोष के लिए लिखना हो या फिर दूसरों तक अपनी बात पहुंचाने की बात हो। अब देखिए न लिखने से मैंने क्या-क्या इन दिनों मिस किया...जैसे देश के तमाम घटनाक्रमों पर कलम चलाने की जरूरत थी। खासकर दिल्ली में जिस मेट्रो को यहां की लाइफ स्टाइल बदलने का श्रेय दिया जा रहा है किस तरह उसके निर्माण के दौरान मजदूर अपनी जान से हाथ धो रहे हैं और उन्हें किन नारकीय परिस्थितियों में जीवन बिताना पड़ रहा है। सबसे लोमहर्षक घटना – किस तरह एक डॉक्टर मां ने दिल्ली में अपनी दो बच्चियों को इंजेक्शन लगाकर मार डाला और खुद भी जान देने की कोशिश की...और सबसे चर्चित मुद्दा समलैंगिकता का-जो बड़े-बड़े कलमकारों से उगलते बन रहा है और न निगलते बन रहा है। कुछ ने फैशन में इसका समर्थन कर डाला और कुछ ने फैशन में ही महज विरोध के लिए विरोध कर डाला। कुछ ने दुम दबा ली…खैर।
लेकिन इस दौरान अलीगढ़ के डॉ. अमर ज्योति की गजलों का एक संग्रह आया और मैं उस पर कुछ न लिख सका, अपनी इस काहिली पर अफसोस करने के अलावा और क्या कर सकता हूं। डॉ. अमर ज्योति की गजलों का मैं लंबे अर्से से फैन हूं और पुस्तक मिलने के बाद भी उस पर कुछ न लिखना काहलियत की ही निशानी है। बहरहाल, मैं सोच रहा हूं कि उनकी कुछ गजलों को जो मुझे खास तौर पर पसंद हैं, उसको हिंदीवाणी के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत किया जाए। देखते हैं ऐसा कब हो पाता है।
साहित्य चर्चा के नाम पर तो मुझे यही उचित लगा कि डॉ. अमर ज्योति की पुस्तक का उल्लेख करूं लेकिन जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं कि इस दौरान तमाम मुद्दे, बहसें छूट गईं। बस एक मौका और दीजिए...अब ऐसा नहीं करूंगा। माफ करिएगा।
हिंदी हैं हम...वतन है हिंदोस्तां हमारा
महान कवि इकबाल की यह लाइनें आज एक खबर को देखकर याद आई गईं। चलते-चलते बस यही बात कहना चाहता हूं।
अंग्रेजी के पक्ष में तमाम दलीलें हैं और मैं उसके बहुत खिलाफ नहीं हूं। लेकिन यहां बात हिंदी की हो रही है। हिंदुस्तान टाइम्स (26 जुलाई 2009) अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में रह रहे तमाम विदेशी लोग हिंदी भाषा सीख रहे हैं। ऐसा वे यहां के लोगों के साथ अपने संबंध बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। हिंदी का विरोध करने वाले कृपया उस खबर को जरूर पढ़ें।
टिप्पणियाँ
प्रारम्भ के लिए किसी मुहुर्त की आवश्यकता नहीं।
लिखिए - इससे अभिव्यक्ति के साथ मुक्ति भी होती है।
aalekh acha lga padhakar.