परदे को अब और न खीचों मौलवी साहब
मुस्लिम महिलाओं का फोटो मतदाता सूची में हो या न हो, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बहुत साफ शब्दों में तस्वीर साफ कर दी है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से तमाम भारतीय मुस्लिम संगठनों, मौलवियों, विद्वानों ने सहमति जताई है लेकिन इसके बावजूद कुछ लोगों ने शरीयत और कुरान को लेकर नए सिरे से बहस छेड़ दी है।
साल-दर-साल से और हर साल कोई न कोई ऐसा मुद्दा आता है जब शरीयत को लेकर बहस छिड़ जाती है और मुसलमानों की बहुसंख्यक आबादी खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाती है। अभी मदुरै के जिन सज्जन की याचिका पर पर्दानशीं महिलाओं की फोटो को लेकर सुप्रीम कोर्ट को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, उसकी नौबत जानबूझकर पैदा की गई। हालांकि इस तरह के मसलों पर अदालत को तो कायदे से याचिका ही नहीं स्वीकार करनी चाहिए।
आम मुस्लिम जनमानस क्या सोचता है, इसको जानने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाती। जुमे की नमाज में एकत्र नमाजियों की तादाद से गदगद मुस्लिम उलेमा या राजनीतिक दल इस जनमानस का मन नहीं पढ़ पाते। अगर अभी कोई मुस्लिम या गैरमुस्लिम संगठन सर्वे करा ले तो पता चल जाएगा कि मुसलमानों की एक बहुत बड़ी आबादी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत है। एक बहुत आसान सी बात को मुसलमानों के कुछ तबके और मुल्ला-मौलवी नहीं समझ पा रहे हैं। वह यह है कि जिस तरह अन्य धर्मों और जातियों में नई पीढ़ी अपने विचारों के साथ सामने आ खड़ी हुई है, ठीक वही प्रक्रिया भारतीय मुसलमानों में भी जारी है।
यह वह मुसलमान तबका है जिनमें पढ़ाई-लिखाई का अनुपात बहुत ज्यादा है, इनमें थोड़े बहुत वे युवक भी शामिल हैं जिन्होंने दिल्ली-मुंबई की चकाचौंध नहीं देखी है और वे बस्ती-फैजाबाद के गांवों में 12वीं क्लास तक पढ़े हुए हैं। उनमें भी आगे बढ़ने की ललक है और वे शरीयत का मामला खड़ा किए जाने पर खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाते हैं। चाहे वह दारुल उलूम देवबंद के मंच से किसी राष्ट्रीय गीत का विरोध हो या फिर मुस्लिम महिलाओं की फोटो का मामला हो, वे नहीं चाहते कि उनके कौम की रहनुमाई के नाम पर मुट्ठी भर लोग उनके प्रवक्ता भी बन जाएं।
हम लोगों में से तमाम उत्तर भारत या फिर दक्षिण भारत की संस्कृति में पले-बढ़े हिंदू-मुसलमान हैं। अगर हम लोग अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या पर नजर डालें तो दोनों ही समुदाय सिवाय पूजा-पाठ की पद्धति के कोई अलग-अलग जिंदगी नहीं जी रहे होते। देश के मुसलमानों की कुल आबादी में एक फीसदी भी ऐसा मुसलमान नहीं है जिसके घर में फोटो वाली अलबम न होगी या परिवार के किसी व्यक्ति का फोटो किसी न किसी रूप में मौजूद न हो। एक फीसदी में अगर उन तमाम मुल्ला-मौलवियों को शामिल कर लिया जाए जो इस कौम के तथाकथित प्रवक्ता हैं तो उनके घर की नई पीढ़ी भी इन सब चीजों से दूर नहीं है। मुझे मुसलमानों के किसी भी मतावलंबी (स्कूल आफ थाट्स) में अभी तक ऐसा कोई मौलवी नहीं मिला जिसके मत की अपनी वेबसाइट न हो और उस पर फोटो न हों। यानी इंटरनेट का एक्सेस उस मौलाना या मौलवी के इर्द-गिर्द जरूर है, तभी उसकी वेबसाइट है। अगर इंटरनेट है तो आप फोटो देखने या भेजने से कितना दूर रह सकते हैं, वह कम से कम ऐसे लोगों को समझाने की जरूरत नहीं है।
बंगलुरु (बंगलोर) या फिर दिल्ली में ओखला के किसी भी बस स्टॉप पर आप खड़े हो जाइए तो तमाम मुस्लिम लड़कियों को आप ऐसे बुर्के में पाएंगे जिसे अब मुस्लिम समाज भी स्वीकार कर चुका है। इन लड़कियों ने बुर्के या चादर से अपना शरीर ढांक रखा होता है और उनके चेहरे पर किसी भी तरह का पर्दा नहीं होता। बगल में लैपटॉप लटक रहा होता है। काले कपड़ों के साथ कभी-कभी जींस भी नजर आती है। ऐसे मौलवी-मौलाना लोगों को शायद यह जवान पीढ़ी नहीं दिखती है, जो न सिर्फ पर्दे का आदर कर आपकी शरीयत का सम्मान भी कर रही है और अपने वजूद का भी एहसास करा रही है। क्या वजूद का एहसास इस तरह हो सकेगा कि आप पर्दे के नाम पर मुस्लिम लड़कियों को न तो पढ़ने दें और न जॉब करने दें। यह तो एक तरह कि साजिश हुई कि शबनम और प्रियंका साथ-साथ पढ़ें और सिर्फ पर्दे की वजह से प्रियंका तो आगे निकल जाए और शबनम पर्दे में रहकर 12वीं क्लास से आगे न बढ़ पाए। क्या हमारे मौलाना या मौलवी इस साजिश में शामिल होने से इनकार कर सकते हैं। मक्का-मदीना की मस्जिदों के इमाम की बेटियां तो अमेरिका में पढ़ें और भारतीय मुसलमान की बेटी को दिल्ली यूनिवर्सिटी या लखनऊ यूनिवर्सिटी की पढ़ाई भी नसीब न हो पाए।
पेशे से पत्रकार होने के नाते उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, आंध्र प्रदेश में मुझे तमाम ऐसी मतदाता सूचियां देखने को मिलीं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं के फोटो बाकायदा लगे हुए थे और वह फोटो इस ढंग से खिंचवाए गए हैं कि उनमें सिर्फ चेहरा ही दिखाई दे रहा है। इस तरह के फोटो पर न तो उन मुस्लिम महिलाओं ने हाय-तौबा मचाई और न ही उनके पतियों ने कोई बवाल किया। हज पर जाने वाले मौलाना साहब जब अपनी बेगम साहब को ले जाना चाहते हैं तो वह यह जिद कतई नहीं करते कि पासपोर्ट पर उनकी बेगम साहिबा का फोटो न लगाया जाए।
हकीकत यह है कि हमारे मौलवी-मौलाना को सोसायटी की सही मायने में जो फिक्र होनी चाहिए, वह नहीं है। उन्हें इन आंकड़ों को देखने की फुर्सत नहीं है कि आईआईटी या आईआईएम में सिलेक्ट होने वाले स्टूडेंट्स में कितनी मुस्लिम लड़कियां होती हैं। या भारतीय सेना में तीन फीसदी ही मुसलमान क्यों नौकरी पाता है या आईएएस में कितने मुस्लिम लड़के-लड़कियां चुने जाते हैं। हम लोग पहले तो सच्चर कमिटी की रिपोर्ट सदन में रखवाने के लिए एड़ी से चोटी का जोर लगाते हैं, सरकार जब कमिटी की रिपोर्ट कार्रवाई रिपोर्ट के साथ रख देती है तो उसके बाद सबकुछ भुला दिया जाता है। अब कोई पूछने वाला नहीं है कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के बाद मामला कहां तक आगे बढ़ा। सन् 2010 बुर्के और शरीयत पर बहस में बीत जाएगा। क्या आपको याद है कि 2009 में मुसलमानों को बहस के किन फंदों में उलझाया गया था। यह बहस थी एक राष्ट्रीय गीत को लेकर और दूसरी सलीम की दाढ़ी को लेकर। अब 2010 शुरू होते ही फिर वही शरीयत और कुरान का मसला खड़ा कर दिया गया है।
शरीयत हमें सिखाती है कि कैसे हम अपने धर्म पर भी रहकर अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं। अगर किसी फोटो वाली मतदाता सूची में मुस्लिम महिला का फोटो है तो उससे इस्लाम या शरीयत खतरे में नहीं पड़ने जा रही है। क्योंकि पासपोर्ट पर लगे मौलाना के बेगम साहिबा की फोटो से आज तक इस्लाम न तो भारत में खतरे में पड़ा और न पाकिस्तान में।
अगर इस मसले पर कुरान के संदर्भ में ही रखकर बात की जाए तो कुरान में यह कहीं नहीं कहा गया है कि मुस्लिम महिला को बुर्का पहनना अनिवार्य है। कुरान में कहा गया है कि महिलाओं को अपने पूरे शरीर को इस तरह से ढंकना चाहिए कि उनके शरीर का कोई अंग उनके परिवार के अलावा किसी और को न दिखे। बस उनका चेहरा दिखाई दे। यानी कुरान ने महिलाओं को सलाह दी है। यह उस महिला पर है कि वह खुद को किस तरह ढंकना चाहती हैं। अगर किसी ने बेनजीर भुट्टो का फोटो अखबार या टीवी में देखा हो तो उनके लिबास को मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में एक आदर्श लिबास माना गया है। इस लिबास को हर देश में मान्यता मिल गई है। यहां तक कि ईरान में टीवी पर इस लिबास में महिलाओं को खबरें पढ़ते देखा जा सकता है। ईरान में पर्दा पूरी तरह जरूरी घोषित है।
अब आइए चार दृश्यों को सामने रखकर बात करते हैं। एक देश है फ्रांस, जहां मुसलमानों की आबादी 50 लाख है। वहां की सरकार मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर पूरी तरह रोक लगाना चाहती है और इसके लिए कानून बनाने पर विचार कर रही है। अभी इस मुद्दे पर वहां बहस चल रही है। एक देश है भारत जहां हर मुसलमान को हर तरह की आजादी है। चाहे कोई मुस्लिम महिला बुर्का पहने या न पहने। मतलब इसे लेकर कोई कानून नहीं है। वहीं पाकिस्तान में मुस्लिम महिलाओं के बाहर निकलने पर तमाम तरह की शर्ते लागू हैं। एक देश है टर्की जो एक मुस्लिम राष्ट्र है और पूरी तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चलता है। वहां भी पर्दा जबरन नहीं है। यह मुस्लिम महिलाओं पर छोड़ दिया गया है लेकिन अगर कोई मुस्लिम महिला किसी सरकारी दफ्तर में काम करती है या जाती है तो वह बुर्का पहनकर नहीं जा सकती। अब इन दृश्यों की तुलना करें तो आपको फर्क समझ में आ जाएगा। काश, इस फर्क को मुसलमानों के मौलवी-मौलाना या स्वयंभू प्रवक्ता समझ पाते और असुविधाजनक स्थितियां पैदा नहीं करते।
(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स, संपादकीय पेज 02-02-2010 से साभार सहित)
साल-दर-साल से और हर साल कोई न कोई ऐसा मुद्दा आता है जब शरीयत को लेकर बहस छिड़ जाती है और मुसलमानों की बहुसंख्यक आबादी खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाती है। अभी मदुरै के जिन सज्जन की याचिका पर पर्दानशीं महिलाओं की फोटो को लेकर सुप्रीम कोर्ट को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, उसकी नौबत जानबूझकर पैदा की गई। हालांकि इस तरह के मसलों पर अदालत को तो कायदे से याचिका ही नहीं स्वीकार करनी चाहिए।
आम मुस्लिम जनमानस क्या सोचता है, इसको जानने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाती। जुमे की नमाज में एकत्र नमाजियों की तादाद से गदगद मुस्लिम उलेमा या राजनीतिक दल इस जनमानस का मन नहीं पढ़ पाते। अगर अभी कोई मुस्लिम या गैरमुस्लिम संगठन सर्वे करा ले तो पता चल जाएगा कि मुसलमानों की एक बहुत बड़ी आबादी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत है। एक बहुत आसान सी बात को मुसलमानों के कुछ तबके और मुल्ला-मौलवी नहीं समझ पा रहे हैं। वह यह है कि जिस तरह अन्य धर्मों और जातियों में नई पीढ़ी अपने विचारों के साथ सामने आ खड़ी हुई है, ठीक वही प्रक्रिया भारतीय मुसलमानों में भी जारी है।
यह वह मुसलमान तबका है जिनमें पढ़ाई-लिखाई का अनुपात बहुत ज्यादा है, इनमें थोड़े बहुत वे युवक भी शामिल हैं जिन्होंने दिल्ली-मुंबई की चकाचौंध नहीं देखी है और वे बस्ती-फैजाबाद के गांवों में 12वीं क्लास तक पढ़े हुए हैं। उनमें भी आगे बढ़ने की ललक है और वे शरीयत का मामला खड़ा किए जाने पर खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाते हैं। चाहे वह दारुल उलूम देवबंद के मंच से किसी राष्ट्रीय गीत का विरोध हो या फिर मुस्लिम महिलाओं की फोटो का मामला हो, वे नहीं चाहते कि उनके कौम की रहनुमाई के नाम पर मुट्ठी भर लोग उनके प्रवक्ता भी बन जाएं।
हम लोगों में से तमाम उत्तर भारत या फिर दक्षिण भारत की संस्कृति में पले-बढ़े हिंदू-मुसलमान हैं। अगर हम लोग अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या पर नजर डालें तो दोनों ही समुदाय सिवाय पूजा-पाठ की पद्धति के कोई अलग-अलग जिंदगी नहीं जी रहे होते। देश के मुसलमानों की कुल आबादी में एक फीसदी भी ऐसा मुसलमान नहीं है जिसके घर में फोटो वाली अलबम न होगी या परिवार के किसी व्यक्ति का फोटो किसी न किसी रूप में मौजूद न हो। एक फीसदी में अगर उन तमाम मुल्ला-मौलवियों को शामिल कर लिया जाए जो इस कौम के तथाकथित प्रवक्ता हैं तो उनके घर की नई पीढ़ी भी इन सब चीजों से दूर नहीं है। मुझे मुसलमानों के किसी भी मतावलंबी (स्कूल आफ थाट्स) में अभी तक ऐसा कोई मौलवी नहीं मिला जिसके मत की अपनी वेबसाइट न हो और उस पर फोटो न हों। यानी इंटरनेट का एक्सेस उस मौलाना या मौलवी के इर्द-गिर्द जरूर है, तभी उसकी वेबसाइट है। अगर इंटरनेट है तो आप फोटो देखने या भेजने से कितना दूर रह सकते हैं, वह कम से कम ऐसे लोगों को समझाने की जरूरत नहीं है।
बंगलुरु (बंगलोर) या फिर दिल्ली में ओखला के किसी भी बस स्टॉप पर आप खड़े हो जाइए तो तमाम मुस्लिम लड़कियों को आप ऐसे बुर्के में पाएंगे जिसे अब मुस्लिम समाज भी स्वीकार कर चुका है। इन लड़कियों ने बुर्के या चादर से अपना शरीर ढांक रखा होता है और उनके चेहरे पर किसी भी तरह का पर्दा नहीं होता। बगल में लैपटॉप लटक रहा होता है। काले कपड़ों के साथ कभी-कभी जींस भी नजर आती है। ऐसे मौलवी-मौलाना लोगों को शायद यह जवान पीढ़ी नहीं दिखती है, जो न सिर्फ पर्दे का आदर कर आपकी शरीयत का सम्मान भी कर रही है और अपने वजूद का भी एहसास करा रही है। क्या वजूद का एहसास इस तरह हो सकेगा कि आप पर्दे के नाम पर मुस्लिम लड़कियों को न तो पढ़ने दें और न जॉब करने दें। यह तो एक तरह कि साजिश हुई कि शबनम और प्रियंका साथ-साथ पढ़ें और सिर्फ पर्दे की वजह से प्रियंका तो आगे निकल जाए और शबनम पर्दे में रहकर 12वीं क्लास से आगे न बढ़ पाए। क्या हमारे मौलाना या मौलवी इस साजिश में शामिल होने से इनकार कर सकते हैं। मक्का-मदीना की मस्जिदों के इमाम की बेटियां तो अमेरिका में पढ़ें और भारतीय मुसलमान की बेटी को दिल्ली यूनिवर्सिटी या लखनऊ यूनिवर्सिटी की पढ़ाई भी नसीब न हो पाए।
पेशे से पत्रकार होने के नाते उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, आंध्र प्रदेश में मुझे तमाम ऐसी मतदाता सूचियां देखने को मिलीं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं के फोटो बाकायदा लगे हुए थे और वह फोटो इस ढंग से खिंचवाए गए हैं कि उनमें सिर्फ चेहरा ही दिखाई दे रहा है। इस तरह के फोटो पर न तो उन मुस्लिम महिलाओं ने हाय-तौबा मचाई और न ही उनके पतियों ने कोई बवाल किया। हज पर जाने वाले मौलाना साहब जब अपनी बेगम साहब को ले जाना चाहते हैं तो वह यह जिद कतई नहीं करते कि पासपोर्ट पर उनकी बेगम साहिबा का फोटो न लगाया जाए।
हकीकत यह है कि हमारे मौलवी-मौलाना को सोसायटी की सही मायने में जो फिक्र होनी चाहिए, वह नहीं है। उन्हें इन आंकड़ों को देखने की फुर्सत नहीं है कि आईआईटी या आईआईएम में सिलेक्ट होने वाले स्टूडेंट्स में कितनी मुस्लिम लड़कियां होती हैं। या भारतीय सेना में तीन फीसदी ही मुसलमान क्यों नौकरी पाता है या आईएएस में कितने मुस्लिम लड़के-लड़कियां चुने जाते हैं। हम लोग पहले तो सच्चर कमिटी की रिपोर्ट सदन में रखवाने के लिए एड़ी से चोटी का जोर लगाते हैं, सरकार जब कमिटी की रिपोर्ट कार्रवाई रिपोर्ट के साथ रख देती है तो उसके बाद सबकुछ भुला दिया जाता है। अब कोई पूछने वाला नहीं है कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के बाद मामला कहां तक आगे बढ़ा। सन् 2010 बुर्के और शरीयत पर बहस में बीत जाएगा। क्या आपको याद है कि 2009 में मुसलमानों को बहस के किन फंदों में उलझाया गया था। यह बहस थी एक राष्ट्रीय गीत को लेकर और दूसरी सलीम की दाढ़ी को लेकर। अब 2010 शुरू होते ही फिर वही शरीयत और कुरान का मसला खड़ा कर दिया गया है।
शरीयत हमें सिखाती है कि कैसे हम अपने धर्म पर भी रहकर अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं। अगर किसी फोटो वाली मतदाता सूची में मुस्लिम महिला का फोटो है तो उससे इस्लाम या शरीयत खतरे में नहीं पड़ने जा रही है। क्योंकि पासपोर्ट पर लगे मौलाना के बेगम साहिबा की फोटो से आज तक इस्लाम न तो भारत में खतरे में पड़ा और न पाकिस्तान में।
अगर इस मसले पर कुरान के संदर्भ में ही रखकर बात की जाए तो कुरान में यह कहीं नहीं कहा गया है कि मुस्लिम महिला को बुर्का पहनना अनिवार्य है। कुरान में कहा गया है कि महिलाओं को अपने पूरे शरीर को इस तरह से ढंकना चाहिए कि उनके शरीर का कोई अंग उनके परिवार के अलावा किसी और को न दिखे। बस उनका चेहरा दिखाई दे। यानी कुरान ने महिलाओं को सलाह दी है। यह उस महिला पर है कि वह खुद को किस तरह ढंकना चाहती हैं। अगर किसी ने बेनजीर भुट्टो का फोटो अखबार या टीवी में देखा हो तो उनके लिबास को मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में एक आदर्श लिबास माना गया है। इस लिबास को हर देश में मान्यता मिल गई है। यहां तक कि ईरान में टीवी पर इस लिबास में महिलाओं को खबरें पढ़ते देखा जा सकता है। ईरान में पर्दा पूरी तरह जरूरी घोषित है।
अब आइए चार दृश्यों को सामने रखकर बात करते हैं। एक देश है फ्रांस, जहां मुसलमानों की आबादी 50 लाख है। वहां की सरकार मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर पूरी तरह रोक लगाना चाहती है और इसके लिए कानून बनाने पर विचार कर रही है। अभी इस मुद्दे पर वहां बहस चल रही है। एक देश है भारत जहां हर मुसलमान को हर तरह की आजादी है। चाहे कोई मुस्लिम महिला बुर्का पहने या न पहने। मतलब इसे लेकर कोई कानून नहीं है। वहीं पाकिस्तान में मुस्लिम महिलाओं के बाहर निकलने पर तमाम तरह की शर्ते लागू हैं। एक देश है टर्की जो एक मुस्लिम राष्ट्र है और पूरी तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चलता है। वहां भी पर्दा जबरन नहीं है। यह मुस्लिम महिलाओं पर छोड़ दिया गया है लेकिन अगर कोई मुस्लिम महिला किसी सरकारी दफ्तर में काम करती है या जाती है तो वह बुर्का पहनकर नहीं जा सकती। अब इन दृश्यों की तुलना करें तो आपको फर्क समझ में आ जाएगा। काश, इस फर्क को मुसलमानों के मौलवी-मौलाना या स्वयंभू प्रवक्ता समझ पाते और असुविधाजनक स्थितियां पैदा नहीं करते।
(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स, संपादकीय पेज 02-02-2010 से साभार सहित)
टिप्पणियाँ
आपको बधाई!.
अभी मै इजिप्ट जाकर आया हूं, जहां शापिंग मॊल या कॊलेज आदि जगहों में मुस्लिम युवा लडकियां अमूमन इसी पोशक में रहती है, जिसमें सिर ढका हुआ रहता है. ये इश्यु भी नहीं है वहां.
ये बात बहुत अच्छी लिखी है सर आपने। मैं आपकी हर बात से सहमत हूं। मौलवियों की सोच को आपने बहुत सटिक तरीके से सामने लाने की कोशिश की है।
main aapki baat se poori tarah sehmat hoon