जज साहबान...मीडिया ट्रायल तो होगा
मॉडल जेसिका लाल मामले में सोमवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और मंगलवार को यह खबर अखबारों में प्रमुखता से छपी। मेरे साथ काम करने वाले एक साथी पत्रकार की दिलचस्पी यह देखने की थी कि जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा के परिवार के अखबार आज समाज ने इस खबर को किस तरह छापा।
हमारे वह सहयोगी खुद ही उठे और जाकर आईटीओ के स्टाल से आज समाज अखबार खरीद लाए। हम दोनों ने उस अखबार की हर खबर पर उंगली रख-रखकर पढ़ा कि कहीं वही खबर तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले की नहीं है लेकिन आखिरी पेज और लोकल पेज खंगालने के बावजूद न तो वह खबर मिली और नही कोई संपादकीय उस पर पढ़ने को मिला। मंगलवार का वह अखबार पत्रकारिता जगत में अब ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुका है।
हम लोग झूठों की दुनिया में रहते हैं लेकिन इसके बावजूद ऐसी उम्मीद करते हैं कि सभी लोग अपने प्रोफेशन में ईमानदार और कम से कम सच बात कहने की कोशिश तो जरूर करें। हालांकि मिशनरी पत्रकारिता तो नहीं रही लेकिन कम से कम इतना तो है ही कि और प्रोफेशनों के मुकाबले पत्रकारों के प्रोफेशन में अलग किस्म की हल्की लकीर तो खिंची हुई है जो उसे बार-बार उसके जिम्मेदार होने का एहसास कराती को रहती ही है। वे लोग भी जो इसे (पत्रकारिता को) महज एक नौकरी समझ कर कर रहे हैं, उनकी पूरी कोशिश रहती है कि आम आदमी तक सही और सच्ची खबर पहुंचे।
बहरहाल, मैं और मेरे वह सहयोगी पत्रकार गलत थे। आज समाज अखबार भला क्यों कातिल मनु शर्मा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला छापता। आप आरएसएस के अखबार में यह सोचें कि वह गुलबर्गा सोसायटी (अहमदाबाद) नरसंहार के आरोपी नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ छापेगा तो जाहिर है कि नाममुकिन है। पर भावुकता में बहुत सारे पत्रकार ऐसा सोच लेते हैं। बहरहाल, ऐसा होता तो एक चमत्कार होता लेकिन न्यूज चैनलों के बजाय अखबारों में चमत्कार की आशा करना मूर्खता से कम नहीं। अब सारे चमत्कार न्यूज चैनल पर दिखते हैं। जादू...टोना...फूंक.. वगैरह।
खैर, आज समाज अखबार के मालिक कार्तिकेय शर्मा हैं जो मनु शर्मा के भाई हैं। मनु शर्मा और कार्तिकेय शर्मा हरियाणा के कांग्रेस नेता विनोद शर्मा के बेटे हैं। चंडीगढ़ का मशहूर पिकाडली होटल इन्हीं का है और इसके अलावा भी इनका बड़ा बिजनेस साम्राज्य है।
जेसिका लाल कांड दरअसल मीडिया की जीत की जीती-जागती मिसाल है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में मीडिया पर बहुत सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसे केसों में या किसी भी केस में मीडिया ट्रायल नहीं होना चाहिए। मीडिया को इससे बचना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से मैं सहमत नहीं हूं। कानून की कुछ किताबें पढ़ लेने वाले जज साहबान मीडिया को बार-बार उसका कर्तव्यबोध क्यों याद दिलाते हुए नजर आते हैं। मैं जज साहबान से जानना चाहता हूं कि आखिर ऐसे लोग जिन्हें समाज में रसूखदार कहा जाता है, उनसे किस तरह निपटा जाए। हजूर, माई-बाप का फैसला आने में तो दशक लग जाते हैं। तारीख पर तारीख...क्या करे इंसान, सिवाय इस फिल्मी डॉयलॉग के दोहराने के अलावा।
यह बिल्कुल सही है कि मीडिया के अपने स्वार्थ हैं और वह उसी ढंग से चलता है लेकिन इस देश में जितने भी बड़े मामले या कह लीजिए हाई प्रोफाइल मामले सामने आए हैं, वह मीडिया ट्रायल की ही बदौलत अपने अंजाम तक पहुंचे। अगर जेसिका लाल मामले में मीडिया ट्रायल नहीं हो रहा होता तो क्या जरूरत थी मनु शर्मा के पिता और भाई को अपना अखबार और न्यूज चैनल लाने की। वे लोग सिर्फ मीडिया से मुकाबला करने के लिए ही अपना मीडिया लेकर आए थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचने तक तमाम अखबार और न्यूज चैनल अपने स्टैंड पर कायम रहे और उनके मीडिया की परवाह नहीं की। जब अंतिम फैसला आया तो साबित हो गया कि विनोद शर्मा ने जिस मकसद के लिए अखबार और न्यूज चैनल का जुआ खेला था वह उसी में फंस कर रह गए।
क्या उनके अखबार और न्यूज चैनल में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खबर न होने से इस देश के लोग वह सूचना जानने से वंचित रह गए...नहीं क्योंकि अब कोई मीडिया हाउस, राजनीतिक पार्टी या असरदार लोग सूचना के प्रवाह को नहीं रोक पाएंगे। यहां तक कि अदालतें भी एक सीमा तक ही कुछ कर पाएंगी लेकिन मेरे इस ब्लॉग को ब्लॉक कराने के लिए अदालत को गूगल से कहना पड़ेगा और अगर गूगल पाएगा कि मैं समाज में घृणा फैला रहा हूं तो वह इसे ब्लॉक करने के बारे में सोचेगा। वह दिन आएगा जब भारतीय अदालतों के फैसलों पर एक बहस सोशल मीडिया में भी होगी। जब ट्विटर के जरिए अदालत की रिपोर्टिंग हो सकती है तो बहस क्यों नहीं हो सकती।
सोशल मीडिया सभी के सामने सीना ताने खड़ा है। रोक सको तो रोक लो। यह उसी की देन है कि मैं अपने यह तुच्छ विचार आप लोगों को तक पहुंचा सका। अगर यह लेख मैं किसी अखबार या अपने अखबार में देता तो शायद वहां पॉलिसी का वास्ता देकर उसे नहीं छापा जाता या फिर उसमें संपादन कर दिया जाता। अब वह वक्त गया। अपनी बात आप पहुंचा सकते हैं।
पर, यह तो एक मामला, एक अखबार, एक चैनल और कोर्ट की बात थी। हम लोग तमाम ऐसे अखबारों को जानते हैं जो इस या उस पार्टी अथवा विचारधारा का समर्थन करते हुए नजर आते हैं। यही वजह है कि जब बड़े मामले सामने आते हैं तो तमाम अखबार या चैनल अपने आप किसी न किसी खेमे से जुड़ा हुआ पाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के संदर्भ में अगर यह कहा होता कि मीडिया किसी भी व्यक्ति या किसी भी पार्टी के प्रति पूर्वाग्रह न अपनाए तो बात कुछ समझ में आती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट तो सिर्फ कर्तव्यबोध करा रहा है।
मेरा यह कहने का कतई मकसद नहीं है कि मीडिया बहुत साफसुथरा है। मीडिया के पूर्वाग्रह की बात मैं बार-बार कर रहा हूं। होना तो यह चाहिए कि मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाए और अदालतें अपनी जिम्मेदारी निभाएं। आखिर दोनों ही तो सोसायटी के वॉच डॉग हैं।
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