गवाह भी तुम, वकील भी तुम



उर्दू के मशहूर शायर राहत इंदौरी की दो गजलें...

जिधर से गुजरो धुआं बिछा दो
जहां भी पहुंचो धमाल कर दो

तुम्हें सियासत ने यह हक दिया है
हरी जमीनों को भी लाल कर दो

अपील भी तुम, दलील भी तुम,
गवाह भी तुम, वकील भी तुम

जिसे चाहे हराम कह दो
जिसे भी चाहे हलाल कर दो

जुल्म ढाए सितमगरों की तरह

जिस्म में कैद है घरों की तरह
अपनी हस्ती है मकबरों की तरह

तू नहीं था तो मेरी सांसों ने
जुल्म ढाए सितमगरों की तरह

अगले वक्तों के हाफिज अक्सर
मुझ को लगते हैं नश्तरों की तरह

और दो चार दिन हयात के हैं
ये भी कट जाएंगे सरों की तरह

कल कफस ही में थे तो अच्छे थे
आज फिरते हैं बेघरों की तरह

अपने पहलू पर उछलता है
कतरा कतरा समंदर की तरह

बन के सय्याद वक्त ने 'राहत'
नोच डाला मुझे परों की तरह
-राहत इंदौरी

टिप्पणियाँ

Rahul Singh ने कहा…
वाह, क्‍या खूव चयन है आपका यूसुफ जी.
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
यूसुफ भाई, सचमुच शानदार गजलें परोसी हैं आपने, आभार।
धीरेश ने कहा…
इस वक्त इनका अर्थ और ज्यादा साफ लग रहा है।

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