अध्यात्मिक भारत में मोहर्रम के मायने
Meaning of Muhramme in Spiritual India
इस्लामिक कैलंडर के हिसाब से साल की शुरुआत हो चुकी है। मोहर्रम उसका पहला महीना है। लेकिन न सिर्फ इस्लामिक कैलंडर के हिसाब से बल्कि पूरी दुनिया में जितनी भाषाएं, धर्म, जातियां मौजूद हैं, उनके लिए भी मोहर्रम के कई मायने और मतलब है। पर, अध्यात्मिक भारत के लिए इसका महत्व बहुत खास है। भारत में मुंशी प्रेमचंद ने कर्बला का संग्राम जैसी प्रसिद्ध पुस्तक लिखकर इसे आम हिंदी भाषी लोगों तक पहुंचाया तो भारत के नामवर उर्दू शायर कुंवर मोहिंदर सिंह बेदी ने इसे नए तेवर और अकीदत के साथ पेश किया।
अपनी एक रचना में वह लिखते हैं कि कर्बला के मैदान में शहीद होने वाले पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन महज किसी एक कौम की जागीर क्यों रहें, क्यों न उस कुर्बानी को आम बनाया जाए जो इंसानियत के नाम दर्ज है। जिसमें छह महीने के बच्चे से लेकर बड़ों तक बेमिसाल शहादत शामिल है। महात्मा गांधी ने अपनी अहिंसा की अवधारणा का जिक्र करते हुए लिखा है कि उन्हें इस तरफ प्रेरित करने वाली विभूतियों में इमाम हुसैन भी शामिल हैं।
पूरी दुनिया में जब हिंसा अपने नए-नए चेहरे रखकर सामने आ रही है तब कर्बला का संदेश और हजारों की फौज के सामने पैगंबर के नवासे के साथ शहीद होने वाले 72 लोगों की कुर्बानी और भी प्रासंगिक हो गई है। 1400 साल पहले इराक में स्थित एक छोटी सी जगह कर्बला में हुए इस संग्राम में ऐसा क्या था जो खासकर अध्यात्मि भारत समेत पूरी दुनिया के लिए जानने का सबब बना हुआ है। उन दिनों जब अरब का विभाजन इस तरह का नहीं हुआ करता था तो यजीद नामक राजा का शासन पूरे अरब जगत पर था। पैगंबर के देहांत के बाद जब इस्लाम में राजनीति की वास्तविक शुरुआत हुई तो जिस मकसद के लिए इस्लाम की स्थापना हुई, वह छिन्न-भिन्न होता नजर आया। पैगंबर ने जिन कुरीतियों के खिलाफ उस वक्त लोगों को जागरूक किया था, उन कुरीतियों को शासक वर्ग ने फिर से अपने संरक्षण में शुरू कर दिया। जिसमें शराबखाने, जुआखाने, सगी बहन से विवाह, लडकियों की भ्रूण हत्या जैसी तमाम बुराइयां फिर से लौटने लगी।
इसका सबसे जबर्दस्त विरोध पैगंबर के घराने यानी अहले बैत ने किया, जो और कोई नहीं बल्कि उनके परिवार और खानदान के ही लोग थे। तत्कालीन व्यवस्था में इन्हें अध्यात्मिक या रूहानी ताकत माना जाता था। इनके आह्वान पर जब चौतरफा विरोध शुरू हुआ तो यजीद ने अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए ऐसी अध्यात्मिक ताकतों से बैयत (संधि-समझौता) करने को कहा। उस समय तक कई इमामों को तत्कालीन शासकों ने जहर देकर या हमला कर शहीद कर दिया था। यजीद के दौर में इमाम हुसैन के अहिंसा का संदेश पूरे अरब में गूंज रहा था और इमाम हुसैन की यह हैसियत और रुतबे से यजीद खासा परेशान था। अंत में उसने भी इमाम हुसैन के पास बैयत का संदेश भेजा, जिसे उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अपने नाना (पैगंबर) की शिक्षा और मकसद के खिलाफ नहीं जा सकते। इमाम हुसैन ने इसके विपरीत यह प्रस्ताव किया कि बेहतर है कि वे उसका देश छोड़कर भारत वर्ष के लिए कूच करना चाहेंगे, जहां वह शांति से अपना जीवन बिताएंगे। इस प्रस्ताव के बाद वह अपने कुनबे के 71 लोगों को लेकर चल पड़े।
इस प्रस्वाव ने यजीद की बेचैनी बढ़ा दी, उसने अपने एक गर्वनर को इमाम हुसैन का रास्ता रोकने और युद्ध का आदेश दिया। तब तक इमाम हुसैन का काफिला कर्बला में पहुंच चुका था। वहां उन्हें रोका गया और युद्ध के लिए ललकारा गया। इमाम हुसैन ने फिर दोहराया कि वह युद्ध नहीं चाहते, लेकिन यजीदी फौज ने चारों तरफ से घेरा डाल दिया। सात मोहर्रम को पानी बंद कर दिया गया, रसद की आमद रोक दी गई। भूखे प्यासे लोग कब तक इस तरह रहते। दस मोहर्रम को अंततः फौज ने हमला किया और मजबूरन 72 निहत्थे लोगों को हजारों की फौज से लड़ना पड़ा। इस दौरान इमाम हुसैन का दुश्मन की फौज को संबोधन, अपने दोस्तों-रिश्तेदारों को संबोधन जैसी तमाम घटनाएं हैं जो विस्तार से व्याख्या मांगती हैं। लेकिन भारत के लिए जो बात मोहर्रम को खास बनाती है कि भारत वर्ष ने, जिसकी सीमाएं तब अफगानिस्तान तक फैली हुई थीं, में तब भी हर धर्म के मनीषियों का स्वागत था। भारत शुरू से ही अध्यात्म और ज्ञान का केंद्र रहा है, यह बात 1400 साल पहले इमाम हुसैन के तमाम संबोधनों और प्रस्तावों से जाहिर है और वह इस देश में सिर्फ इन्हीं खूबियों की वजह से आना चाहते थे।
तमाम लोग यह जानकर दंग रह जाएंगे कि भारत, पाकिस्तान, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, रूस, बरमूडा टापू से लेकर चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में मोहर्म के जुलूस पर पाबंदी नहीं है, लेकिन सऊदी अरब के तमाम हिस्सों में आज भी मोहर्रम के जुलूस पर पाबंदी है। कहने को अरब का शासक वर्ग खुद को लोकतांत्रिक देश कहता है लेकिन वहां पर इमाम हुसैन के अनुयायी जुलूस नहीं निकाल सकते। महज भारतीय संविधान या यहां के शासक वर्ग ने ही भारत को महान लोकतांत्रिक या अध्यात्मिक देश नहीं बनाया। ऐसी छोटी-छोटी बातें भी उसे बाकी के मुकाबले अलग कतार में खड़ा करती हैं। उर्दू के मशहूर शायर पंडित ब्रज नारायण चकबस्त, बासवा रेड्डी से लेकर लता मंगेशकर, जयती बावरी, सोनू निगम ने इमाम हुसैन पर तमाम कसीदे और कलाम लिखे-पढ़े हैं। भारत के सूफी संतों की वाणियां अगर इसमें शामिल कर लें तो यह सूची और भी समृद्ध हो जाएगी। भारत में इमाम हुसैन को मनाने वाले हुसैनी पंडित जो हिंदू हैं और पंजाब में रहते हैं, उन पर तैयार की गई बीबीसी की एक रिपोर्ट का अगर जिक्र किया जाए तो अध्यात्मिक भारत में अहिंसा का संदेश देता मोहर्रम किसी एक धर्म विशेष की जायदाद न होकर सभी के लिए खास है।
साभारः नवभारत टाइम्स, संपादकीय पेज, 06 दिसंबर 2011
यह लेख नवभारत टाइम्स की वेबसाइट (http://nbt.in)पर भी उपलब्ध है।
Courtesy: NavBharat Times, Editorial Page, December 06, 2011
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