अरब देशों में आजादी की भूख...जाग चुकी हैः अब्बास खिदर

इराकी मूल के जर्मन लेखक अब्बास खिदर (Iraqi born German Writer Abbas Khider) का भारतीय युवक जैसा दिखना एक तरफ मुसीबत बना तो दूसरी तरफ उसने उन्हें एक पहचान भी दी। डैर फाल्शे इन्डैर (गलत भारतीय) नॉवेल ने उन्हें भारत के करीब ला दिया है। इराक में सद्दाम हुसैन (Saddam Hussain) के शासनकाल में युवा आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने की वजह से उन्हें गिरफ्तार किया गया था। सद्दाम ने उनकी हत्या करानी चाही तो उन्होंने सन् 2000 में इराक छोड़ दिया। तमाम अरब, अफ्रीकी मुल्कों से होते हुए स्वीडन जाने की कोशिश में उन्हें जर्मनी की पुलिस ने बॉडर्र पर गिरफ्तार कर लिया। वहां उन्होंने शरण ले ली और वहां पैदा हुआ जर्मन साहित्य को समृद्ध करने वाला एक लेखक। ढेरों अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके अब्बास खिदर ने भारत आने पर सबसे पहला इंटरव्यू मुझे नवभारत टाइम्स के लिए दिया, उनका यह इंटरव्यू नवभारत टाइम्स में 3 मार्च, 2012 को छपा है। अखबार में आपको इस इंटरव्यू के संपादित अंश मिलेंगे लेकिन यहां आपको उसके असंपादित अंश पढ़ने को मिलेंगे।

अब जबकि इराक से अमेरिकी फौजों (US Army) की वापसी हो चुकी है। आप इराक में हुई तबाही के लिए किसको जिम्मेदार मानते हैं

मैं झूठ नहीं बोलना चाहता और न ही चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना चाहता हूं। हकीकत यह है कि इराक में तबाही के लिए अमेरिका, सद्दाम हुसैन और वहां की पब्लिक बराबर की जिम्मेदार है। इराक में 60 फीसदी शिया, 20 फीसदी सुन्नी और 20 फीसदी अन्य लोग हैं। खुद को इंसान न मानकर और अलग-अलग तबकों में बांटकर देखने से वहां के लोग कमजोर हो गए। इराक में अमेरिका का निजी हित था। वहां पर अमेरिका और सद्दाम दोनों ही लोकतंत्र लाने की बात कर रहे थे जो एक फरेब था। यही वजह है कि इराक में न सिर्फ अमेरिका हारा बल्कि वहां सद्दाम और वहां के लोग भी हारे। लोग अमेरिकी हस्तक्षेप का सही ढंग से विरोध नहीं कर सके।

अमेरिका को किसने मौका दिया। आखिर इसकी कुछ वजह तो होगी
 आप इराक का मैप गौर से देखें। उसके चारों तरफ जो हुकुमतें अलग-अलग देशों में हैं, वे सब के सब तानाशाह हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि अमेरिका ने सिर्फ इराक में प्रजातंत्र लाने के नाम पर वहां हस्तक्षेप किया और बर्बादी मचाई। उसकी यह कार्रवाई कुछ ऐसी ही हुई कि जैसे किसी मयखाने से कुछ लोगों को उठाकर इमाम बनाने की कोशिश की जाए। यह एक असंभावित विचार था, जिसकी नाकामी भी तय थी। क्योंकि अमेरिका का असली मकसद इराक के संसाधनों पर कब्जा करना था न कि वहां प्रजातंत्र लाना था। बाद की घटनाओं ने इसे साबित भी किया।
 
 
अमेरिका को लेकर सिर्फ इराकी लोगों की ही नहीं बल्कि आम मुसलमानों की भी सोच बदल रही है, इसकी वजह आप क्या मानते हैं
         यह दुर्भाग्यपूर्ण है। अमेरिका को इस बारे में खुद ही विचार करना चाहिए। यह वक्त का कितना बड़ा मजाक है कि विश्व के सबसे विकसित देशों (Developed Countries) के बारे में इराक के आम आदमी के दिल पर ऐसी नफरत की ऐसी लकीर बन चुकी है जो मिटाए से नहीं मिटने वाली। उनके साथ धोखा हुआ है और उन्हें कम से कम अमेरिका से कोई उम्मीद नहीं है। आगे बढ़ने की तमन्ना और एहसास ही इराकियों को अपने दम पर खड़ा कर सकता है।

अरब अपराइजिंग (Arab Uprising) या तमाम अरब मुल्कों में वहां की तानाशाह हुकूमतों के बदलाव को लेकर जो आंदोलन चल रहा है, आप उसे किस नजरिए से देखते हैं

         बदलाव और विकास कभी बाहर से नहीं आता। ऐसी चीजें हमेशा इंसान के अंदर से आती हैं। इस बदलाव की बुनियाद प्यार और क्रांति हो सकते हैं न कि जंग। अब अरब के तमाम देशों में आजादी की असली भूख जाग चुकी है। हमें नतीजे के लिए कुछ इंतजार करना होगा लेकिन यह होकर रहेगा, कोई उसे रोक नहीं सकता। यह आजादी एक्सपोर्ट या इंपोर्ट की हुई नहीं होगी।   

आपकी किताब का नाम गलत हिंदुस्तानी (डैर फाल्शे इन्डेर) क्यों रखा गया
  -जब मैंने अपनी मूल जर्मन पुस्तक का नाम डैर फाल्शे इन्डेर दिया था तो यह अहसास नहीं था कि इन शब्दों का अर्थ कुछ अलग भी निकलेगा या इसका मतलब कुछ अलग भी हो सकता है। यानी जो मैंने सोचा था वह कुछ अलग था और मतलब कुछ और निकला। दरअसल, इराक में जेल से मेरी रिहाई से लेकर लीबिया, सूडान, मिश्र और फिर जर्मनी पहुंचने के दौरान मैंने जो मुसीबतें झेली हैं, उसका ब्योरा इसमें है। मैं जहां भी जाता लोग मुझे भारतीय जैसी शक्ल वाला कहकर चिढ़ाते। मुझे हर जगह यह साबित करना पड़ता था कि मैं असली नहीं बल्कि नकली भारतीय हूं और मूल रूप से इराकी हूं। लोगों द्वारा इस तरह मुझे चिढ़ाया जाना मेरे जेहन में बैठता चला गया। किताब का नाम मैंने रखना चाहा था नकली हिंदुस्तानी लेकिन अनुवादक महोदय ने उसे गलत हिंदुस्तानी लिख मारा। वह गलती अब मशहूर हो गई। मैंने उसे स्वीकार कर लिया।

आप मूल रूप से शिया (Shia-Shiite Muslim) मुसलमान हैं। कर्बला (Karbala), इमाम हुसैन (Imam Hussain), इनके नाना पैगंबर मोहम्मद (Prophet Mohammad) साहब का शिया (Shiites) बहुत आदर करते हैं। आप का इन महान हस्तियों के बारे में क्या विचार है
ये सारे किरदार मेरे लिए और मेरे जैसे मानवीय मूल्यों से सरोकार रखने वाले लोगों के लिए एक हीरो और रोल मॉडल की तरह ही हैं। मैं भी उनका बहुत आदर और सम्मान करता हूं। उनके बलिदान और योगदान सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। लेकिन मैं साफ कर दूं कि मैं कोई धार्मिक शख्स नहीं हूं। मैं सबसे पहले खुद को इंसान मानता हूं। इंसान सारे धर्मों से ऊपर है। मानवता मेरा धर्म है और बिना बॉर्डर वाली दुनिया मेरा घर है।

  

 फारसी, अंग्रेजी बोलने, लिखने के बावजूद जर्मन भाषा में आपने क्यों लिखना शुरू किया

-इराक में अपना वतन छोड़ने के बाद जर्मनी में जब शरण मिली तो वहां खुद को बचाकर और जिंदा रहना ही मेरा मकसद नहीं था। मुझे अपनी पहचान करानी थी जिसमें जर्मन भाषा ही मेरी मदद कर सकती थी। मेरे जर्मन प्रवास का सबसे सुखद पड़ाव वह था जिस दिन जर्मनी के विख्यात भाषाविद ने मेरी पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए कहा कि जर्मनी के मूल लेखक भी इतनी सुंदर जर्मन नहीं लिख सकते।


भारत में पहली बार आने पर कैसा महसूस कर रहे हैं
       अब तो मुझे भी खुद पर शक हो रहा है कि कहीं न कहीं से मैं भारतीय ही हूं। दरअसल मैं एक इराकी पिता और एक जिप्सी मां की संतान हूं। आप जानते हैं कि जिप्सियों का कोई देश या घर नहीं होता। हो सकता है मेरी मां की जड़ें भारत से हों। अब तो भारत का हर कोना मुझे अपना लगता है। रंगकर्मी और लेखक ज्योति संग ने मेरे लिए जो साहित्यिक गोष्ठी रखवाई, उससे इतना उत्साह मिला कि मुझे भारत का मुरीद कर दिया।


यहां के यूथ के बारे में आपकी क्या राय है
मैं तो अभिभूत हूं उन्हें देखकर। एनसीआर एक शहर में मेरी किताब पर बहस हुई और सवाल पूछे गए, वहां सबसे ज्यादा तादाद युवा लोगों की थी। उन्होंने अंत तक मुझे बहुत ही धैर्य से सुना और सवाल पर सवाल पूछे। यहां के यूथ के सवालों की क्वॉलिटी ने मुझे भारतीय युवकों के बारे में अलग राय बनाने को मजबूर किया। आप जर्मनी के किसी शहर को तो छोड़िए बर्लिन जैसी जगह में इतने यूथ नहीं जमा हो सकते जितना मुझे फरीदाबाद की पीपल्सपॉर्लियामेंट में सुनने को पहुंचे। भारतीय यूथ अब भी साहित्य, कला, रंगकर्म से जुड़ा है, यह मेरे एक सुखद एहसास है।

Courtesy : NavBharat Times, March 3, 2012

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