ईरान में आ रहे हैं रईसी, परेशान हैं पूँजीवादी मुल्क और उनके पिट्ठू
मुस्लिम राष्ट्रों में पाकिस्तान के बाद ईरान के चुनाव पर पूरी दुनिया की नज़र रहती है। ...तो वहाँ के नतीजे आ रहे हैं और तस्वीर साफ़ हो चुकी है। ईरान के बाद सबसे ज़्यादा शिया मुसलमान भारत और पाकिस्तान में हैं। इसलिए इन दोनों देशों के मुसलमानों की नज़र भी ईरान के आम चुनाव पर है।
ईरान में हुए राष्ट्रपति चुनाव में इब्राहीम रईसी को सबसे ज़्यादा वोट मिले हैं और उनका राष्ट्रपति बनना लगभग तय है। वो सरकार के आलोचक रहे हैं और उन्हें सिद्धांतवादी माना जाता है। यानी एक शिया हुकूमत में लोकतंत्र कैसे चलाया जाना चाहिए, उन्हें सिद्धांतवादी या उसूली माना जाता है।ईरान में जिस तरह अल्पसंख्यकों (यहूदियों, सुन्नियों, सिखों) को अधिकार प्राप्त हैं, उसके वो प्रबल समर्थक हैं। वह करप्शन के सख़्त ख़िलाफ़ हैं।
पाकिस्तान में बीच बीच में सैन्य शासन भी आ जाता है लेकिन ईरान में 1978-79 की इस्लामिक क्रांति के दौरान शाह रज़ा पहलवी को उखाड़ फेंकने के बावजूद वहाँ कभी सेना ने सत्ता पर क़ब्ज़ा नहीं किया। ईरान में उस समय भी चुनाव हुए और आज भी जारी है।
कौन हैं इब्राहीम रईसी
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इब्राहीम रईसी ईरान की सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस हैं। ख़ूबसूरत मशहद शहर के निवासी रईसी को 2019 में ईरान का चीफ़ जस्टिस नियुक्त किया गया था। चीफ़ जस्टिस बनने के बाद उन्होंने कई बड़े सरकारी अफ़सरों और उद्योगपतियों को भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल भेज दिया। कई केसों की सुनवाई का तो टीवी पर लाइव प्रसारण हुआ। दुनिया के किसी और देश में जनता ने टीवी पर भ्रष्टाचार के मुक़दमे चलते और उन पर फ़ैसला आते नहीं देखा सिवाय ईरान के।
उन्होंने 2017 में भी मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए थे। लेकिन हारने के बावजूद उन्हें 38 फ़ीसदी वोट मिले थे। जिसे उन्होंने ईरानी जनता का संकेत माना। और 2021 के चुनाव में फिर उतरे। इस बार उनके प्रतिद्वंद्वी को 3.3 फ़ीसदी वोट मिले। यह लेख लिखे जाने तक 90 फ़ीसदी वोटों की गिनती हो चुकी है। प्रतिद्वंद्वियों ने हार स्वीकार कर इब्राहीम रईसी को बधाइयां देना शुरू कर दी हैं।
पश्चिमी देशों और इस्राइल की नज़र में चुनाव
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दुनिया के सभी पूँजीवादी देश यानी अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस वग़ैरह ईरान के चुनाव पर छींटाकशी हर बार ज़रूर करते हैं। जैसे इस बार वे ईरान के आम चुनाव की आलोचना यह कह कर रहे हैं कि बहुत कम वोट पड़े। लेकिन वो ये भूल गए कि ईरान में भी उनके देश की तरह कोरोना है। ईरान हुकूमत के लिए यह बहुत आसान था कि वो इस आम चुनाव को टाल देती। लेकिन अगर वो चुनाव टालती तो यही देश कहते कि ईरान में लोकतंत्र मर गया और ईरान के धार्मिक नेताओं ने चुनाव टालने के लिए कोरोना की आड़ ली है।
सऊदी अरब जो इन तमाम पूँजीवादी देशों का मित्र है, ये देश कभी सऊदी अरब, बहरीन से चुनाव कराने को नहीं कहते। सऊदी अरब में राजशाही है। इस्राइली मूल के मुसलमान आल-ए-सउद का सत्ता पर क़ब्ज़ा है। जो ज़बरन काबा शरीफ़ का कस्टोडियन बना बैठा है जहां पाँच सितारा होटल और बार खोल दिए गए हैं। यही स्थितियाँ ईरान में शाह रज़ा पहलवी के समय थीं।
पश्चिमी देश सऊदी अरब की इस कमजोरी को जानते हैं तभी वे अरब देशों में लोकतंत्र के समर्थक नहीं हैं। इसलिए कभी वे वहाँ अल क़ायदा तो कभी आईएसआईएस खड़ा कर देते हैं। ये संगठन सीआईए की फ़ाइलों से निकलकर आकार लेते हैं। जिस दिन सऊदी अरब के मूल निवासी वहाँ विद्रोह कर देंगे तो वहाँ भी लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा। खान-ए-काबा के आसपास बने होटलों और बार को नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा। बेशक आप इसे कट्टरपंथी सोच करार दें लेकिन पूँजीवादी देशों के इन्हीं होटलों के कारण हज करना महँगा होता जा रहा है और दुनिया भर में गरीब हज पर नहीं जा पा रहा है। जबकि हज उसके उसूल-ए-दीन में शामिल है। इस्लाम की अवधारणा वैसे भी पूँजीवाद विरोधी है तो गरीब मुसलमानों का तालमेल सऊदी अरब के मौजूदा निज़ाम से नहीं बैठ सकता।
किसके ‘आदमी’ हैं रईसी
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ईरान के नए राष्ट्रपति बनने जा इब्राहीम रईसी को ईरान के सुप्रीम लीडर और रहबर अली खामनेई का “आदमी” बताया जा रहा है। 2017 के चुनाव में जीतने पर हसन रूहानी को खामनेई का आदमी बताया गया था और तब इसी पश्चिमी मीडिया ने कहा था कि बेहतर होता कि रईसी राष्ट्रपति बनते।
अब जब रईसी राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं तो वो खामनेई के ख़ास कहे जा रहे हैं। उन्हें कट्टरपंथी (हार्डलाइनर) और पश्चिम विरोधी बताया जा रहा है। ईरान के संविधान का पालन करने वाले राष्ट्राध्यक्ष को वहाँ के सुप्रीम लीडर या रहबर के निर्देशों का पालन करना पड़ता है। कमियाँ और अपवाद अमेरिका से लेकर भारत के संविधान तक में हैं तो ईरान भी इससे अछूता नहीं है।
बहरहाल, पश्चिमी मीडिया के ज़रिए #भारत के बहुसंख्यकवादी #मीडिया में आपको #ईरान_चुनाव की तमाम तरह की खबरें पढ़ने को मिलेंगी। जिनमें रईसी के कुछ अदालती फ़ैसलों का भी ज़िक्र होगा। उस समय यही पूर्वाग्रही भारतीय मीडिया भारतीय जेलों में बंद व बंद रहे तमाम एक्टिविस्टों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आनंद तेलतुम्बड़े, सुधा भारद्वाज, संजीव भट्ट, गौतम नवलखा, उमर ख़ालिद, खालिद सैफी, सटन स्वामी, वरवरा राव, कप्पन की गिरफ़्तारी पर चुप्पी साधे रहेगा। उसे ईरान के मानवाधिकार की चिन्ता के बजाय भारत और भारतीय कश्मीर के लोगों के मानवाधिकार पर चिन्तित होना चाहिए।
(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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