अतीक अहमद: बेवकूफ और मामूली गुंडा क्यों था
Mafia Don Atiq Ahmed and his brother Ashraf live murder on camera in Allahabad
- यूसुफ किरमानी
अतीक और अशरफ़ की हत्या करने वालों के नाम लवलेश तिवारी, सनी सिंह और अरूण मौर्य हैं।
नाम फिर से पढ़िए। नाम में कुछ नहीं रखा है। जो है वो जाति है।
इन तीनों अपराधियों में जाति नाम का ग़ज़ब का संतुलन है। नाम फिर से पढ़िए।
यूपी सरकार ने अतीक-अशरफ़ हत्याकांड की जाँच के लिए तीन सदस्यीय न्यायिक जाँच समिति बनाई है। इस समिति में कौन-कौन हैं- जांच समिति के अध्यक्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस अरविंद कुमार त्रिपाठी, सदस्यों में रिटायर्ड जस्टिस बृजेश कुमार सोनी और पूर्व डीजीपी सुबेश कुमार सिंह हैं।
जाँच समिति के तीनों नाम फिर से पढ़िए। फिर हत्या करने वाले तीनों आरोपियों के नाम पढ़िए ...और फिर उन्हें मिलाकर पढ़िए।
जाँच रिपोर्ट का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि वो क्या होगी। जातिवाद सत्य है। धार्मिक नारे सत्य हैं।
वैसे, यह लेख अपराधियों या जाँच समिति के लोगों की जाति पर नहीं है। यह लेख अतीक पर है और उस सिस्टम पर है, जिसमें अतीक जैसे मोहरे तैयार होते हैं।
अतीक-अशरफ़ की हत्या का जिन तीनों पर आरोप है, उनके बारे में जो मीडिया रिपोर्ट सामने आई, बताती है कि तीनों किसी न किसी अपराध में लिप्त थे। जेल भी जा चुके थे। तीनों बेरोजगार थे। इनमें से लवलेश तिवारी ड्रग्स यानी नशे का भी आदी था। इनके घर वालों को मीडिया पीड़ित के तौर पर पेश कर रहा है। मीडिया पुलिस लापरवाही पर सवाल नहीं कर रहा है। वो अपराधियों के परिवार के प्रति हमदर्दी पैदा कर रहा है।
इन तीनों अपराधियों का प्रोफ़ाइल बता रहा है कि इन्हें कोई बड़ा लालच दिया गया है, तभी ये लोग अतीक को मारने के लिए तैयार हुए होंगे। लेकिन कौन है वो शख़्स या वो नेता या फिर वो राजनीतिक दल जिसने इन्हें काम पर लगाया। मीडिया अपनी तौर पर वो पड़ताल नहीं करना चाहता। यह सच कभी सामने नहीं आ पाएगा कि अतीक की हत्या की साज़िश किसने रची थी। लोग जानते हैं, समझ भी रहे हैं। लेकिन बोल नहीं सकते। यूपी पुलिस में अतीक के मामलों से जुड़ा कोई पुलिस अधिकारी कभी भी सच बताने के लिए सामने नहीं आएगा।
सभी सत्यपाल मलिक नहीं हो सकते। सत्यपाल मलिक की तरह पुलवामा का सच बताने का कलेजा होना चाहिए। सत्यपाल मलिक घोषित रूप से भाजपाई थे। उन्हें जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया था लेकिन पुलवामा में सीआरपीएफ़ के 40 जवानों की शहादत पर वो चुप नहीं रह सके और सच बता बैठे। देश के निरंकुश सत्ताधीशों ने उन्हें चुप रहने को कहा। लेकिन वो चुप नहीं रहे।
बहरहाल, अतीक-अशरफ़ की हत्या में आरोपी ये तीनों अगर जल्द विधायक लवलेश तिवारी, विधायक सनी सिंह और विधायक अरूण मौर्य के रूप में किसी भगवा पार्टी से नज़र आएँ तो ताज्जुब मत कीजिएगा। ऐसे अपराधी पहले भी विधायकी से नवाज़े जा चुके हैं। कोई पार्टी दूध की धुली नहीं है।
2013 के मुज्जफरनगर दंगों के बाद उसके कई आरोपी विधायक और मंत्री बन गए। उड़ीसा में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को ज़िन्दा जलाने के आरोपी बाद में विधायक और मंत्री बन गए।
अतीक पर किस तरह के केस
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अतीक तीन बार विधायक और एक बार सांसद रह चुका था। अपराधी कब बना, वो घड़ी, दिन और तारीख़ नहीं मालूम। लेकिन उसके ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमे ज़्यादातर राजनीतिक रंजिश के हैं। वो कितना बड़ा बेवकूफ था कि विधायक और सांसद रहते हुए अपने केस वापस नहीं करा सका और न खुद को क्लीन चिट दिला सका। तमाम मुख्यमंत्री या भाजपाई नेताओं के उदाहरण सामने हैं जिन्होंने सरकार बनने के बाद खुद पर दर्ज मुक़दमों का वापस कराया, खुद को क्लीनचिट दिलाई। मुलायम, अखिलेश, मायावती के अलावा फूलपुर से चुनाव लड़कर भाजपा की मदद करने की कोशिश की। यानी वो सपा, बसपा, भाजपा सबका मोहरा बना। लेकिन जो उसे अपनी मौत सामने दिखी तो किसी पार्टी ने उसकी मदद नहीं की। अतीक से कोई सहानुभूति नहीं। जो लोग नेताओं के मोहरे बनते रहे और कौम को इस्तेमाल करते रहे उनसे कैसी हमदर्दी?
उस सिस्टम से समाज को नफ़रत और बढ़ाने की ज़रूरत है जो अतीक जैसों को मोहरे बनाता है। उस सिस्टम को उखाड़ने के लिए संगठित प्रयास की ज़रूरत है। एक अलग रहनुमाओं की ज़रूरत है। जाने दीजिए, ये बात बहुत लंबी है।
अतीक पर फिर बात करते हैं।
अतीक के प्रोफ़ाइल का मैंने गौर से कई बार विश्लेषण किया, वो Organised Crime के बारे में कुछ नहीं जानता था। उसका कोई सिंडिकेट यानी उससे जुड़े ऐसे लोग जो हर समय उसे सुरक्षा देते, उसके इशारे पर अपराध करते, जो स्थानीय गिरोहों से काम लेते। उसके पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इलाहाबाद के बाहर उसकी कोई गुंडई नहीं थी। अतीक यूपी लेवल का भी ठीक से गुंडा नहीं था।
उस पर सिर्फ़ राजूपाल और हाल ही में उमेश पाल की हत्या का आरोप है। ये दोनों हत्याएं क्षणिक आवेश में बिना सोचे समझे कराई गईं। राजू पाल को इसलिए मारा गया क्योंकि उसने अतीक के भाई अशरफ़ को चुनाव में हरा दिया था। उमेश पाल की हत्या इसलिए कराई गई कि वो राजपाल की हत्या का मुख्य गवाह था। इन दोनों हत्याओं के अलावा बाक़ी मुक़दमे उस पर मामूली हैं। लेकिन मीडिया और भाजपा ने अतीक को राष्ट्रीय स्तर का गुंडा बना दिया जबकि वो ज़िला स्तरीय गुंडा भी ठीक से नहीं था।
अतीक का अगर सिंडिकेट होता तो अतीक को ये दिन नहीं देखने पड़ते। वो अपराध की दुनिया का बहुत घटिया और नौसिखिया खिलाड़ी था। भारत में दाऊद इब्राहीम के अलावा किसी का सिंडिकेट नहीं रहा। मुंबई में आए दिन गैंगवॉर में हत्याएं होती थीं, एक में भी दाऊद का नाम नहीं आता था। दाऊद का आफिस था, जहां से हर चीज मैनेज होती थी। टारगेट दिया जाता था और लोकल गिरोह काम कर देते थे। कई बार तो दाऊद ने जिस बदमाश या गुंडे का इस्तेमाल मर्डर में किया, उसे कवर कर रहे दाऊद के लोग उसे भी मौक़े पर मार देते थे। यानी इस तरह सुबूत को जड़ से ख़त्म कर दिया जाता था। अगर अतीक का सिंडिकेट होता तो उसके लोग पुलिस कस्टडी के बावजूद कवर कर रहे होते। यहाँ तक की उसकी सुरक्षा में तैनात पुलिस में भी उसके अपने लोग उसकी तनख़्वाह पर होते।
इस घटना के सबक
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यूपी-बिहार में तीन मुस्लिम नाम माफियागीरी या डॉन के रूप में लिए जाते हैं। अतीक मारा गया। सीवान (बिहार) के शहाबुद्दीन को जेल में रख कर मारा गया। आख़िरी नाम मुख़्तार अंसारी का है। मुख़्तार का पूरा परिवार राजनीति में है। मुख़्तार भी कई बार विधायक और सांसद रह लिया। लेकिन मुख़्तार भी Organised Crime में नहीं है। ये सारे बस शेखी बघारने वाले छुटभैया और नौसिखिया गुंडे टाइप लोग है। जैसा कि ऊपर बताया है इनकी गुंडई बस इनके इलाक़े तक ही रहती है।
अतीक की तरह मुख़्तार अंसारी सपा संस्थापक मुलायम, अखिलेश के अलावा मायावती के नज़दीक रहा। लेकिन इतना बड़ा बेवकूफ कि अपने खिलाफ दर्ज केस वापस नहीं करा सका। भाजपाई नेताओं से कुछ नहीं सीखा। मुख़्तार भी अभी जेल में है। विधायक बेटा भी जेल में है। बेटे के ख़िलाफ़ मामूली अपराध का केस नहीं है। विधायक भाई अफजाल अंसारी पर केस हैं। इसी तरह सीवान का शहाबुद्दीन आरजेडी संस्थापक लालू प्रसाद यादव के लिए काम करता था। तिहाड़ जेल में कोरोना से मौत हुई। परिवार का कहना है कि शहाबुद्दीन को मारा गया। शहाबुद्दीन के जनाज़े में आरजेडी का कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा।
इन घटनाओं से सबक़ क्या मिलता है? अगर आप किसी मुलायम, अखिलेश, मायावती, भगवा नेताओं वग़ैरह को मज़बूत करने के लिए राजनीतिक दुश्मनी कर रहे हैं तो छोड़ दीजिए। ये लोग आपको बचाने नहीं आएँगे। ऐसी हिम्मत सिर्फ़ भाजपा में है जो आपराधिक मुक़दमों में घिरे अपने मुख्यमंत्रियों के केस वापस करा देती है। अगर आप अपराध की दुनिया के दाऊद इब्राहीम नहीं हैं तो इलाहाबाद में अतीक-अशरफ़ और झाँसी में उसके बेटे असद अहमद की तरह बेमौत मारे जाएँगे। शहाबुद्दीन की तरह जेल में सड़ाकर मारे जा सकते हैं।
अतीक की पत्नी कहां है
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अतीक की पत्नी शाइस्ता को यूपी पुलिस ने नया विलेन बना दिया है। उस पर अनगिनत मुक़दमे लाद दिए गए है। पुलिस मीडिया में शाइस्ता की छवि ख़राब करने वाली खबरें प्लांट करा रही है। बेहतर होगा कि शाइस्ता सुप्रीम कोर्ट में आकर सरेंडर कर दे। मुक़दमा चलेगा लेकिन उनके ख़िलाफ़ सबूत नहीं मिलेगा। छूटना तय है। शाइस्ता की मदद के लिए मानवाधिकार के वकीलों को आगे आना चाहिए।
अतीक के परिवार और समर्थकों को चाहिए कि वो फ़िलहाल बदला लेने की बात भूल जाए। उनके पास और कोई रास्ता नहीं है।...आग को ठंडा होने दीजिए। मुसलमानों को ऐसे गुंडों के मारे जाने पर ज़रा भी परेशान या उत्तेजित होने की ज़रूरत नहीं है। आपका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। बहुसंख्यकों को खूब खुश हो लेने दीजिए? दरअसल, दांव पर इन्हीं लोगों का सबकुछ लगा है। हक़ीक़त ये है कि अमनचैन, सुकून इन्हें चाहिए। लेकिन वो क़ानून व्यवस्था किसकी क़ीमत पर चाहिए। उन्हें ही सोचने दीजिए। किसी गुंडे के मारे जाने पर वो कौम या समाज पराजित नहीं होता। अदालत और संविधान के बावजूद जिन लोगों ने सजा देने के लिए अपने नियम तय कर लिए हैं, वे शेर की सवारी कर रहे हैं।
अब कैसा डर
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अपराधियों को मिट्टी में मिलाने की बात कहने वालों को पूरे यूपी में धारा 144 क्यों लगाना पड़ी? जगह जगह पुलिस क्यों तैनात करना पड़ी। मुख्यमंत्री और दोनों उपमुख्यमंत्रियों के दौरे क्यों स्थगित हो गए? किसका डर है? आख़िर क्या डर है जो आपको अनहोनी की आशंका में डाले हुए है। पुलिस आपकी, व्यवस्था आपकी, अदालत भी आपकी...। गोया की मिट्टी में मिलाने की पूरी पावर आपके पास। विपक्ष के नाम पर शिखंडियों की जमात। फिर कैसा डर है? एक गुंडा ही तो मारा गया है। गुंडे का काम तमाम होने के बावजूद डर? ताज्जुब है।
मिट्टी में मिलाने की बात करने वालों को भी मिट्टी में ही जाना है। परिवार के लोग बाद में राख उठाने या फूल चुनने आते हैं। हमने इतिहास में निरंकुश सत्ता मिट्टी में मिलते देखी है। हमे निरंकुश सत्ताओं के खंडहर या निशानियाँ आज भी देखने को मिलतीं हैं। कई सभ्यताएं मिट गईं। उनका नामलेवा कोई न रहा। सारनाथ से लेकर बेबीलोन तक उन खंडहरों को हम ख़ुद देखकर आए हैं। हमने वो सच्चा इतिहास भी पढ़ा है जब फिरौन को ख़त्म करने के लिए मूसा को भेजा गया। हमने वो कहानी भी पढ़ी है जब कंस को ख़त्म करने के लिए कृष्ण का अवतार हुआ था।
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