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उठ मेरी जान...

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उज्मा रिजवी ने यह लेख खासतौर पर महिला दिवस पर एक अखबार के लिए लिखा था। उन्होंने दरअसल इसे मेरे पास पढ़ने के लिए भेजा था लेकिन मैं इसे अपने ब्लॉग पर बाकी पाठकों और मित्रों के लिए देने का लोभ संवरण न कर सका। उज्मा रिजवी अंग्रेजी-हिंदी में प्रकाशित एजुकेशन वर्ल्ड मैगजीन में असिस्टेंट एडिटर हैं। तमाम समसामयिक विषयों पर उनकी कलम चलती रही है। उनका वादा है कि हिंदी वाणी के लिए वह कुछ और भी लिखेंगी। उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे क़द्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं तुझ में शोले भी हैं बस अश्क पिफशानी ही नहीं तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं तेरी हस्ती भी है एक चीज जवानी ही नहीं अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझे उठ मेरी जान............ मशहूर शायर कैफी आजमी की औरत को पुकारती औरत उन्वान की यह खास गज़ल तुझे अपने अंदर इतनी गहराई से उतार लेनी है ताकि इन अल्फाजों का कर्ज़ अदा हो जाए। क्योंकि तू इतनी खुशकिसमत नहीं कि ऐसी इंकलाबी पुकार तुझे बार-बार नसीब हो। हकीकत यही है खुदा भी उनकी मदद नहीं करता जो अपनी मदद खुद नहीं करता.... हां! तुझे अपना उन्वान, अपनी तकदीर खुद बदलनी है, और ऐसी तदबीर करनी

बिछने लगी है मुस्लिम वोटों के लिए बिसात

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मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 25 फरवरी 2009 को संपादकीय पेज पर प्रथम लेख के रूप में प्रकाशित है। सामयिक होने के कारण इस ब्लॉग के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहा हूं। इस पर आई टिप्पणियों को आप नवभारत टाइम्स की आनलाइन साइट के इस लिंक पर पढ़ सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4184206.cms पार्टियां मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन खुद उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देतीं, जितना उन्हें देना चाहिए लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही सियासत के खिलाड़ी अपने-अपने मोहरे लेकर तैयार हो गए हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में वोटों के लिए बिसात बिछाई जा रही है। इसमें भी सबसे ज्यादा जोर मुस्लिम वोटों के लिए है। कहीं कोई पार्टी उलेमाओं का सम्मेलन बुला रही है तो कहीं से कोई उलेमा एक्सप्रेस को दिल्ली तक पहुंचाकर अपना मकसद हासिल कर रहा है। यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं। यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग त

ब्लॉगिंग पर खतरा...चर्चा जारी है

ब्लॉगिंग पर मंडरा रहे खतरे को लेकर तमाम लोगों ने यहां और अन्य जगहों पर अपनी चिंता जाहिर की है। लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो चाहता है कि अगर अनाप-शनाप ब्लॉगिंग पर अदालत या उसकी आड़ में सरकार किसी तरह का नियंत्रण करती है तो उसमें बुराई नहीं है। इन लोगों का यह भी कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि आप किसी के खिलाफ कुछ भी लिख दें या आरोप लगा दें या प्रोपेगंडा करें। लेकिन इस मुद्दे के अलावा और तमाम बातें और मुद्दे हैं, जिन पर इसी के साथ-साथ आगे बढ़ना जरूरी है। फिर भी अगर कोई इस चर्चा को जारी रखना चाहता है तो वह अपनी टिप्पणी अथवा लेख के जरिए इस ब्लॉग पर जारी रख सकता है। तब तक हम लोग कुछ और मुद्दों की तरफ बढ़ते हैं लेकिन यह मुद्दा अभी बरकरार है।...

तेरा क्या होगा ब्लॉगर्स !

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ब्लॉगिंग और ब्लॉगर्स पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के संदर्भ में मेरा जो लेख यहां आप लोगों ने पढ़ा और अपनी चिंता से अवगत कराया, वह यह बताने के लिए काफी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को आम ब्लॉगर्स (वे नहीं जो किसी समुदाय या धर्म अथवा विचारधारा के खिलाफ घृणा अभियान चलाते हैं) ने काफी गंभीरता से लिया है। फिर भी कुछ लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को अच्छा बता रहे हैं और हमारे और आप जैसे लोगों को पाठ पढ़ा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को सही भावना से लिया जाना चाहिए। चलिए पहले तो यह तय हो जाए कि सही क्या है और जो लोग सच के साथ होने का दम भरते हैं वे खुद कितना सच बोलते हैं। सोचिए जरा...अगर आप किसी संचार माध्यम अथवा ब्लॉग पर कुछ लिख-पढ़ रहे हैं तो इतना तो आपको भी पता होगा कि लिखते वक्त लिखने वाले की कुछ जिम्मेदारी बनती है, वरना अगर बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया जाएगा तो वह पहले अपने ही गर्दन पर चला लेगा। कुछ लोगों ने दबी जबान से यह कहने की कोशिश की है कि अगर किसी ब्लॉग के जरिए कोई किसी संगठन अथवा दल के खिलाफ घृणा अभियान चलाता है तो उसके सामने पुलिस की शरण में जाने के अलावा