बिछने लगी है मुस्लिम वोटों के लिए बिसात
मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में 25 फरवरी 2009 को संपादकीय पेज पर प्रथम लेख के रूप में प्रकाशित है। सामयिक होने के कारण इस ब्लॉग के पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहा हूं। इस पर आई टिप्पणियों को आप नवभारत टाइम्स की आनलाइन साइट के इस लिंक पर पढ़ सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4184206.cms
पार्टियां मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन खुद उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देतीं, जितना उन्हें देना चाहिए
लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही सियासत के खिलाड़ी अपने-अपने मोहरे लेकर तैयार हो गए हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में वोटों के लिए बिसात बिछाई जा रही है। इसमें भी सबसे ज्यादा जोर मुस्लिम वोटों के लिए है। कहीं कोई पार्टी उलेमाओं का सम्मेलन बुला रही है तो कहीं से कोई उलेमा एक्सप्रेस को दिल्ली तक पहुंचाकर अपना मकसद हासिल कर रहा है।
यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो लोकसभा की 35 और विधानसभा की 115 सीटों को प्रभावित करते हैं। यह एक विडंबना है कि सभी पार्टियां समय-समय पर मुसलमानों से मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने की मांग तो करती हैं, लेकिन ऐसी सभी पार्टियां उतनी तादाद में उन्हें टिकट नहीं देतीं, जितना उन्हें देना चाहिए। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 417 प्रत्याशी खड़े किए, जिसमें से सिर्फ 33 मुसलमान प्रत्याशी थे। इसमें से सिर्फ 10 जीते। बीएसपी ने 435 उम्मीदवारों में 50 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे, जिसमें 4 जीते। समाजवादी पार्टी ने 237 प्रत्याशियों में से 38 मुसलमानों को टिकट दिया, जिसमें से 7 जीते। सीपीएम ने 70 में से 10 मुस्लिमों को खड़ा किया जिसमें से 5 जीते। इन आंकड़ों की गहराई में जाने पर यही पता चलता है कि सीपीएम को छोड़कर शेष दलों ने मुस्लिम बहुल इलाकों से ही मुस्लिम प्रत्याशियों को खड़ा किया। हालांकि खुद को सेक्युलर कहने वाली ये सारी पार्टियां चाहतीं तो गैर मुस्लिम इलाकों से भी मुस्लिम कैंडिडेट को खड़ा कर उनकी हिस्सेदारी बढ़ा सकती थीं। ऐसा सिर्फ 2004 को ही लोकसभा या किसी एक विधानसभा चुनाव में ही नहीं हुआ, हर छोटे-बड़े चुनाव में मुस्लिम वोटरों के मद्देनजर इसी तरह से कैंडिडेट तय किए जाते हैं।
बीएसपी सुप्रीमो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के करिश्मे को थोड़ी देर भूलकर अगर यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि जहां-जहां मायावती के मुस्लिम कैंडिडेट बीजेपी को हराने में सक्षम थे, वहां मुसलमानों ने बीएसपी के पक्ष में वोट डाला। इसी तरह जहां-जहां समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम को टिकट दिया और अगर वह बीजेपी को हराने में सक्षम था, तो उसे भी मुसलमानों का वोट मिला। पिछले चुनाव में यह भी देखा गया कि मुस्लिम बहुल इलाके से अगर बीएसपी या समाजवादी पार्टी ने अगर किसी गैर मुस्लिम को टिकट दिया तो उसे भी मुस्लिम मतदाताओं ने सहज तरीके से वोट दिया। लेकिन दूसरे इलाकों में मुस्लिम प्रत्याशियों को अन्य समुदायों के वोट इस रूप में नहीं मिले।
मुसलमानों के वोटों को कैश करने की एक और कोशिश यूपी में पीपल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) के रूप में हुई थी। जिसके तहत योजना थी कि मुस्लिम बहुल इलाके वाली सीटों पर पीडीएफ अपने कम से 145 प्रत्याशी खड़ा करे, लेकिन पीडीएफ को अपने मकसद से भटकता देख इसके नेता मौलाना कल्बे जव्वाद ने इसे भंग कर दिया। लेकिन इस संगठन के बनने से यह संकेत जरूर गया कि मुसलमान राजनीति में बराबर की हिस्सेदारी चाहते हैं और वह सिर्फ समाजवादी पार्टी और उसके सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के पिछलग्गू बनकर नहीं रहना चाहते।
यूपी में मुस्लिम वोट पूरी तरह ट्रांसफरेबल है, यानी कोई भी पार्टी जो बीजेपी को हराने का दम-खम रखती हो, वह इन वोटों को अपने हक में ले जा सकती है। यूपी में 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने कुछ हद तक मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में ट्रांसफर कराया था। समाजवादी पार्टी ने उसी चुनाव से सबक लेते हुए बाद में तमाम मुस्लिम नेताओं को अपने पाले में करने की कोशिश तेज कर दी थी। आजमगढ़ से जिस उलेमा एक्सप्रेस को दिल्ली भेजा गया, उसकी तारीफ इसलिए तो की गई कि काफी अनुशासित ढंग से मुसलमान अपनी बात कहने दिल्ली तक पहुंचे, लेकिन सचाई यह है कि इसके जरिए समाजवादी पार्टी ने बीएसपी की मुस्लिम राजनीति को जवाब देने की कोशिश की है। पिछले कुछ महीने से मायावती लगातार कद्दावर मौलवियों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रही हैं। लखनऊ में ही मायावती ने कई मुस्लिम सम्मेलन कर डाले हैं।
इस मामले में कांग्रेस की रणनीति कुछ अलग है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के चेयरमैन राबे हसन नदवी के संकेत पर कांग्रेस ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष मोहम्मद अदीब को राज्यसभा में लाने के लिए एसपी को तैयार ·किया और दोनों की सहमति से अदीब इस वक्त राज्यसभा में हैं। दरअसल नदवी और अदीब जैसे लोग कांग्रेस और एसपी के चुनावी गठबंधन के प्रबल पैरोकार हैं। इसलिए बीएसपी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मुस्लिम वोटों को हथियाने के लिए चाहे कितने ही दांव-पेच चलाएं, देखना यह है कि इस बार वे कितने मुसलमान कैंडिडेट खड़े करते हैं और कितने संसद में पहुंचते हैं।
बहरहाल, यूपी में विभिन्न पार्टियों की मुस्लिम राजनीति में इतना घालमेल है कि उससे लगता है कि देश में पूरी मुस्लिम राजनीति सिर्फ यूपी के मुसलमानों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है और किस पार्टी को वोट देना है और किसे नहीं देना है, यह सब यूपी के मुस्लिम मतदाता ही तय करते हैं। हालांकि दक्षिण भारत के मुस्लिम मतदाता तो यूपी के मुसलमानों के पैटर्न पर ही मतदान करते हैं, लेकिन केरल जैसे राज्य में उसकी पसंद की सूची में सीपीएम भी है जिसकी कई बार उस राज्य में सरकार बन चुकी है। यूपी के मुकाबले दक्षिण भारत में मुसलमान दूसरी पार्टियों से ज्यादा टिकट पाते हैं लेकिन देश की मुस्लिम राजनीति में जितनी मुखर आवाज उत्तर भारत के मुस्लिम नेताओं की होती है, उतनी दक्षिण भारत में नहीं। हालांकि प्रमुखत: मुसलमानों के समर्थन से चलने वाली इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग आज तक उत्तर भारत में अपनी जड़ें नहीं जमा सकी, सिर्फ दक्षिण भारत में ही वह दो-तीन सीटें जीतकर किसी तरह अपना वजूद बचा लेती है।
साभारः नवभारत टाइम्स 25 फरवरी 2009
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