उठ मेरी जान...
उज्मा रिजवी ने यह लेख खासतौर पर महिला दिवस पर एक अखबार के लिए लिखा था। उन्होंने दरअसल इसे मेरे पास पढ़ने के लिए भेजा था लेकिन मैं इसे अपने ब्लॉग पर बाकी पाठकों और मित्रों के लिए देने का लोभ संवरण न कर सका। उज्मा रिजवी अंग्रेजी-हिंदी में प्रकाशित एजुकेशन वर्ल्ड मैगजीन में असिस्टेंट एडिटर हैं। तमाम समसामयिक विषयों पर उनकी कलम चलती रही है। उनका वादा है कि हिंदी वाणी के लिए वह कुछ और भी लिखेंगी।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क पिफशानी ही नहीं
तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान............
मशहूर शायर कैफी आजमी की औरत को पुकारती औरत उन्वान की यह खास गज़ल तुझे अपने अंदर इतनी गहराई
से उतार लेनी है ताकि इन अल्फाजों का कर्ज़ अदा हो जाए। क्योंकि तू इतनी खुशकिसमत नहीं कि ऐसी इंकलाबी पुकार
तुझे बार-बार नसीब हो। हकीकत यही है खुदा भी उनकी मदद नहीं करता जो अपनी मदद खुद नहीं करता.... हां! तुझे
अपना उन्वान, अपनी तकदीर खुद बदलनी है, और ऐसी तदबीर करनी है कि तारीख भी बदल जाए। तू बेजान वजूद के
चोले से निकलकर एक हस्ती के रूप में ढल जाए... उठ मेरी जान....! हां उठ! आज तेरी तारीख, तेरा दिन है। अपने
आपको बदलने के लिए कहीं से तो शुरूआत करनी होती है तो पिफर यह शुरूआत आज ही कर, अभी से कर। अपने
रोते-बिसूरते अन्दाज को उतार पफेंक, अपने जिस्म पर पड़ने वाले फफोलों और जुल्म के निशानात को मिटा डाल, अपने
लिए तय किए गए दोयम दर्जे को नकार, अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना, अपने हक को पहचान। जब तक तू
ऐसा नहीं करेगी। जहेज के लिए जलती रहेगी, अपनी ही कोख को उजड़ते देखती रहेगी, जिस्म और जवानी की लाश
को ढोती रहेगी, दुनिया के रहमो-करम पर पलती रहेगी, रस्मो रिवाज की भेंट चढ़ती रहेगी।
तू ये जान ले समाज तुझसे है तू समाज से नहीं। तु तो जननी है, तेरे आंचल में एक जहान बसता है, तेरे कदमों में जन्नत है अगर तू नहीं तो दुनिया का वजूद नहीं, समाज का सवाल नहीं। बस इस ख्याल को अपनी ताकत बना । कि तो समाज
की रचयिता है, कायनात का हसीन तोहपफा है, तो पिफर तू क्यों जहालत के जहन्नुम में जलती है, अश्कों में अपने आप
को डुबोती है। तुझे न अब जलना है न रोना है बस अपने होने का यकीन करना है अपने वजूद को तस्लीम करना है।
देख आज तेरा दिन है, सिपर्फ तेरा!
लेकिन तुझे दिन-तारीख के बन्धन में भी नहीं बंधना बल्कि हर दिन तेरा हो तुझे कुछ ऐसा करना है, ऐसा बनना है।
तुझे बराबरी की हक की मांग नहीं करनी, तुझे तो समाज को रचना है एक बयार बनना है। ये तू ही है जो अपने मुल्क
के तख्त पर भी है और तख्त को ठुकराने वाली भी है। तू दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, पफात्मा, ज़हरा, मरियम है, तू इन्दिरा से लेकर सानिया है पिफर क्यों परेशान, पशेमान है! अपने आप को पहचान! उठ मेरी जान..
-उज्मा रिजवी
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्क पिफशानी ही नहीं
तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान............
मशहूर शायर कैफी आजमी की औरत को पुकारती औरत उन्वान की यह खास गज़ल तुझे अपने अंदर इतनी गहराई
से उतार लेनी है ताकि इन अल्फाजों का कर्ज़ अदा हो जाए। क्योंकि तू इतनी खुशकिसमत नहीं कि ऐसी इंकलाबी पुकार
तुझे बार-बार नसीब हो। हकीकत यही है खुदा भी उनकी मदद नहीं करता जो अपनी मदद खुद नहीं करता.... हां! तुझे
अपना उन्वान, अपनी तकदीर खुद बदलनी है, और ऐसी तदबीर करनी है कि तारीख भी बदल जाए। तू बेजान वजूद के
चोले से निकलकर एक हस्ती के रूप में ढल जाए... उठ मेरी जान....! हां उठ! आज तेरी तारीख, तेरा दिन है। अपने
आपको बदलने के लिए कहीं से तो शुरूआत करनी होती है तो पिफर यह शुरूआत आज ही कर, अभी से कर। अपने
रोते-बिसूरते अन्दाज को उतार पफेंक, अपने जिस्म पर पड़ने वाले फफोलों और जुल्म के निशानात को मिटा डाल, अपने
लिए तय किए गए दोयम दर्जे को नकार, अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना, अपने हक को पहचान। जब तक तू
ऐसा नहीं करेगी। जहेज के लिए जलती रहेगी, अपनी ही कोख को उजड़ते देखती रहेगी, जिस्म और जवानी की लाश
को ढोती रहेगी, दुनिया के रहमो-करम पर पलती रहेगी, रस्मो रिवाज की भेंट चढ़ती रहेगी।
तू ये जान ले समाज तुझसे है तू समाज से नहीं। तु तो जननी है, तेरे आंचल में एक जहान बसता है, तेरे कदमों में जन्नत है अगर तू नहीं तो दुनिया का वजूद नहीं, समाज का सवाल नहीं। बस इस ख्याल को अपनी ताकत बना । कि तो समाज
की रचयिता है, कायनात का हसीन तोहपफा है, तो पिफर तू क्यों जहालत के जहन्नुम में जलती है, अश्कों में अपने आप
को डुबोती है। तुझे न अब जलना है न रोना है बस अपने होने का यकीन करना है अपने वजूद को तस्लीम करना है।
देख आज तेरा दिन है, सिपर्फ तेरा!
लेकिन तुझे दिन-तारीख के बन्धन में भी नहीं बंधना बल्कि हर दिन तेरा हो तुझे कुछ ऐसा करना है, ऐसा बनना है।
तुझे बराबरी की हक की मांग नहीं करनी, तुझे तो समाज को रचना है एक बयार बनना है। ये तू ही है जो अपने मुल्क
के तख्त पर भी है और तख्त को ठुकराने वाली भी है। तू दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, पफात्मा, ज़हरा, मरियम है, तू इन्दिरा से लेकर सानिया है पिफर क्यों परेशान, पशेमान है! अपने आप को पहचान! उठ मेरी जान..
-उज्मा रिजवी
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