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वह सपनों में भी बोलती हैं हिंदी

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उनका नाम है मार्ग्ड ट्रम्पर, जन्म ब्रिटिश-इटली परिवार में हुआ, जिसमें विद्वानों और भाषा विज्ञानियों की भरमार है। इस परिवार का हर कोई किसी न किसी भाषा या संस्कृति से जुड़ा हुआ है। मार्ग्ड ने खुद हिंदी आनर्स की डिग्री वेनिस यूनिवर्सिटी से हासिल की है और वह अब खुद मिलान यूनिवर्सिटी में हिंदी टीचर हैं। हिंदी के अलावा उनका दूसरा प्यार भारतीय संगीत और तीसरा प्यार मेंहदी (हिना) है। बनारस घराने की वह फैन है। वह खुद भी ठुमरी गाती हैं। उन्होंने पद्मभूषण श्रीमती गिरिजा देवी, सुनंदा शर्मा से काफी कुछ सीखा है। इसके अलावा प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित राजन-साजन मिश्रा, पंडित ऋत्विक सान्याल और बीरेश्वर गौतम से टिप्स हासिल किए हैं। इटली में हिंदी से जुड़ी हर गतिविधि में वह आगे-आगे रहती हैं। इटली में तो लोग उन्हें भारत का सांस्कृति दूत तक कहते हैं। मार्ग्ड के बारे में यह संक्षिप्त सी जानकारी है, पूरा बायोडेटा लंबा है। मैंने मार्ग्ड ट्रम्पर से उनके हिंदी प्रेम पर बात की हैः हिंदी से लगाव कब हुआ ? वैसे यह कहना मुश्किल है कि हिंदी से मेरा लगाव कब हुआ क्योंकि इसमें कई संयोग जुड़े हुए

ऐसे आंदोलनों का दबना अब मुश्किल

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भारत जब अपनी आजादी की जब 63वीं वर्षगांठ मना रहा था और लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह किसानों के लिए लंबी-चौड़ी बातें कर रहे थे तो ठीक उसी वक्त अलीगढ़-मथुरा मार्ग पर पुलिस ही पुलिस थी। यह सडक ठहर गई थी। सड़क के दोनों तरफ बसे गांवों के किसानों और उनके परिवार के लोगों को बाहर निकलने की मनाही थी। जो निकला, उसे पीटा गया और गिरफ्तार कर लिया गया। यह सब किसी अंग्रेजी पुलिस ने नहीं बल्कि देश की पुलिस फोर्स ने किया। यहां के किसानों ने गलती यह की थी कि इन्होंने सरकार से उनकी जमीन का ज्यादा मुआवजा मांगने की गलती कर दी थी। आंदोलन कोई नया नहीं था और महीनों से चल रहा था लेकिन पुलिस वालों की नासमझी से 14 अगस्त की शाम को हालात बिगड़े और जिसने इस पूरी बेल्ट को झुलसा दिया। यह सब बातें आप अखबारों में पढ़ चुके होंगे और टीवी पर देख चुके होंगे। अपनी जमीन के लिए मुआवजे की ज्यादा मांग का आंदोलन कोई नया नहीं है। इस आंदोलन को कभी लालगढ़ में वहां के खेतिहर लोग वामपंथियों के खिलाफ लड़ते हैं तो कभी बिहार के भूमिहीन लोग सामंतों के खिलाफ लड़ते हैं तो हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपेक्षाकृत संपन्

किसने उठाया भगत सिंह की शहादत का फायदा...जरा याद करो कुर्बानी

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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज के चेयरपर्सन प्रोफेसर चमनलाल ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जीवन और विचारों को प्रस्तुत करने में अहम भूमिका निभाई है। वह भारत की आजादी में क्रांतिकारी आंदोलन की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे व्यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव से जोड़कर देखते हैं। प्रो. चमनलाल से बातचीत जब भी स्वाधीनता आंदोलन की बात होती है, इसके नेताओं के रूप में गांधी, नेहरू और पटेल को ज्यादा याद किया जाता है। भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति श्रद्धा के बावजूद उन्हें पूरा श्रेय नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? गांधी, नेहरू आदि नेताओं का जो भी योगदान रहा हो, लेकिन भगत सिंह के आंदोलन और बाद में उनके शहीद होने से ही आजादी को लेकर लोगों में जागृति फैली। इसका फायदा कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों ने उठा लिया। कुछ दक्षिणपंथी संगठन भी अपने आप को आजादी के आंदोलन में शामिल बताने लगे हैं। वे खुद को पटेल से जोडऩे की कोशिश में लगे हैं। लेकिन कुछ इतिहासकार भगत सिंह के संघर्ष को असफल करार देते हैं। वे कहते हैं कि भारत के सामाजिक- आर्थिक हालात उनके पक्ष में न

क्या भारत में एक और गदर (1857) मुमकिन है

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महमूद फारुकी तब चर्चा में आए थे जब विलियम डेल रेम्पेल की किताब द लास्ट मुगल आई थी। लेकिन इस वक्त यह शख्स दो खास वजहों से चर्चा में है, एक तो उनकी फिल्म फिल्म पीपली लाइव आने वाली है दूसरा उनकी किताब बीसीज्ड वायसेज फ्रॉम दिल्ली 1857 पेंग्विन से छपकर बाजार में आ चुकी है। 1857 की क्रांति में दिल्ली के बाशिंदों की भूमिका और उनकी तकलीफों को बयान करने वाली यह किताब कई मायने में अद्भभुद है। महमूद फारूकी ने मुझसे इस किताब को लेकर बातचीत की है...यह इंटरव्यू नवभारत टाइम्स में 7 अगस्त 2010 को प्रकाशित हो चुका है। इसे वहां से साभार सहित लिया जा रहा है... इसे महज इतिहास की किताब कहें या दस्तावेज इसे दस्तावेज कहना ही ठीक होगा। यह ऐसा दस्तावेज है जो लोगों की अपनी जबान में था। मैंने उसे एक जगह कलमबंद करके पेश कर दिया है। लेकिन अगर उसे जिल्द के अंदर इतिहास की एक किताब मानते हैं तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। आपने इसमें क्या बताया है यह 1857 में दिल्ली के आम लोगों की दास्तान है। अंग्रेजों ने शहर का जब घेराब कर लिया तो उस वक्त दिल्ली के बाशिंदों पर क्या गुजरी। यह किताब दरअसल यही बताती है। इतिहास में 1857 की क