ऐसे आंदोलनों का दबना अब मुश्किल
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अपनी जमीन के लिए मुआवजे की ज्यादा मांग का आंदोलन कोई नया नहीं है। इस आंदोलन को कभी लालगढ़ में वहां के खेतिहर लोग वामपंथियों के खिलाफ लड़ते हैं तो कभी बिहार के भूमिहीन लोग सामंतों के खिलाफ लड़ते हैं तो हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपेक्षाकृत संपन्न इलाकों में वहां के किसान शासन के खिलाफ लड़ते हैं। छत्तीसगढ़ में यह तेंदुपत्ता माफिया के खिलाफ लड़ा जाता है।
लेकिन मुद्दा हर जगह किसान या खेतिहर मजदूरों की जमीन का ही है, जिसे सरकार अपने नियंत्रण में लेकर वहां कंक्रीट के जंगल खड़ा करना चाहती है या फिर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी (एमएनसी) के पालन-पोषण का जरिया बनाने के लिए सौदा किया जाता है। कतिपय लोग विकास, रोटी-रोजी का वास्ता देकर इस तर्क को खारिज कर सकते हैं। लेकिन यह तर्क सुनने वाला कोई नहीं है कि जिस किसान से उसकी जमीन छीनी जा रही है वह उसके बाद क्या खाएगा और कैसे जिंदा रहेगा। आपके कुछ लाख रुपये कुछ समय के लिए उसका लाइफ स्टाइल तो बदल देंगे लेकिन उसके मुंह में जिंदगी भर निवाला नहीं डाल सकेंगे।
मैं ही क्या आप तमाम लोगों में से बहुतों ने देखा होगा कि इस तरह का पैसा किस तरह किसानों को या उस इलाके की आबादी के हालात को बदल देता है। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली के शहरीकृत गांवों और एनसीआर के तमाम गांवों के किसानों को बड़ा मुआवजा मिला और देखते ही देखते उन गांवों में लैंड क्रूजर और पजेरों पहुंच गई। मुखिया और उनके बेटे शहर में आकर बार में बैठने लगे और कुछ ने होटल में कमरा लेकर कॉलगर्ल भी बुला ली। यह सब गुड़गांव, फरीदाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, सोनीपत, बहादुरगढ़, लोनी में हुआ। और अगर दिल्ली के गांवों की बात करें तो जौनापुर, जैतपुर, पल्ला, मुनीरका, महरौली के किसानों के साथ भी यही बीता। इन इलाकों के गांवों में आप चले जाएं तो पाएंगे कि दरवाजे पर पजेरो खड़ी है, पूछेंगे कि आपका बिजनेस क्या है तो जवाब मिलेगा कि – हम तो पुराने जमींदार हैं। तगड़ा मुआवजा मिला है, उसी को खर्च कर रहे हैं। या फिर किसी ने ब्लूलाइन बस खरीद ली है और उसको चलवा रहा है।
फरीदाबाद के ग्रेटर फरीदाबाद या नहरपार इलाके में चले जाइए, आपको सड़क के दोनों तरफ बड़े-बड़े अपार्टमेंट नजर आएंगे, लेकिन जैसे ही आप इन इलाकों के गांवों में जाएंगे तो घरों के सामने कोई न कोई गाड़ी खड़ी नजर आएगी। पता चलेगा कि घर का मुखिया सुबह से शराब पी रहा है और लड़का अपनी अलग मंडली लगाए हुए हैं। जिन किसान परिवारों का पैसा खत्म हो चुका है वे कब को जमीन पर आ चुके हैं और उस घर का लड़का अब उसकी जमीन पर बने अपार्टमेंट में या तो तीन हजार रुपये वेतन पाने वाला चौकीदार बन चुका है या फिर किसी की गाड़ी की धुलाई करके दो हजार रुपये कमा रहा है।
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मैं चाहता तो इन तथ्यों को तमाम आंकड़ों औऱ नामों की चाशनी के साथ पेश करके बड़े ही गंभीर किस्म की रिपोर्ट बना सकता था लेकिन मैं यहां किसी नई रिसर्च रिपोर्ट को पेश करने नहीं आया हूं। यह हकीकत मेरे सामने की है इसलिए बयान कर रहा हूं। मुझे इन तमाम गांवों में जाने का मौका मिलता रहता है और हर बार कुछ नई जानकारी किसी न किसी परिवार के बारे में मिलती रहती है। यह ऐसे गांव हैं जहां टीवी भी उपलब्ध है और अखबार भी।
इन्हीं गांवों का किसान जब उसी अखबार में पढ़ता है कि किस तरह जिस जमीन का मुआवजा उसे सरकार ने छह लाख रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से दिया है और अब वही जमीन डीएलएफ, यूनीटेक, बीपीटीपी या ओमेक्स जैसे बिल्डर सरकार से नीलामी में कई करोड़ रुपयों में खरीद रहे हैं तब उसकी नींद टूटती है। उसे अपने छले जाने का एहसास होता है। फिर वह अपनी बात कहने का मंच कहीं तो टिकैत के साथ खोजता है तो कहीं माओवादियों के रूप में उसे नजर आता है। कहीं उसे कुछ अवसरवादी राजनीतिक दल भी मिल जाते हैं। पर लाठी, गोली में उसका आंदोलन बिगड़ जाता है। वह जेल जाता है और वहां से लौटने के बाद यथास्थिति को स्वीकार कर लेता है। तब तक उसकी जमीन पर कोई न कोई मॉल या पीवीआर अपनी शक्ल ले चुका होता है।
बहरहाल, इन बातों और तर्कों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, यह ब्लॉग मेरे नियंत्रण में है तो इन विचारों को यहां जगह भी मिल गई है, चाहे आप उसे पढ़ें या न पढ़ें। वरना ऐसी सोच रखने वाले अब हाशिए पर जा चुके हैं। शहरों में रहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, जिन्हें बड़े-बड़े मॉल्स में विकास नजर आता है, वे ऐसी तमाम बातों को खारिज करते रहे हैं और आगे भी करेंगे लेकिन वे ऐसे छोटे-छोटे आंदोलनों को अपने तर्कों से रोक नहीं पाएंगे। बेशक, उनका हिमायती, दलाल या पेड जर्नलिजम करने वाला मीडिया भी उनका साथ दे लेकिन वे समाज में आ रही चेतना को रोक नहीं पाएंगे। वह किसी न किसी रूप में फूटकर सामने आएगी। यह डरे हुए लोग लोगों को और डराना चाहते हैं। लेकिन इधर आंदोलनों का रुख बता रहा है कि इन डरे हुए लोगों के तर्क अब पब्लिक में खारिज होने लगे हैं।
अंत में एक अपील
यह लेख लिखने की सबसे बड़ी वजह वह संदेश है, जो मुझे पत्रकार और अंग्रेजी की मशहूर लेखिका अनी जैदी ( recent book - Known Turf) की ओर से मिला। उन्होंने शीतल रामजी बर्डे नामक बालिक की ओर से एक अपील इंटरनेट पर जारी की है जो दिल को हिला देती है। इस लड़की के पिता किसान थे और अब आत्महत्या कर चुके हैं। अब यह परिवार कागज के लिफाफे बनाकर अपना पेट पालता है। इस लड़की ने देशभर के लोगों से अपील की है कि वे उसे हर महीने एक पुरानी मैगजीन उसके पते पर भेजें, जिसका वह इस्तेमाल लिफाफा बनाने में कर सके। इससे उसकी मदद तो होगी ही और पर्यावरण की भी मदद होगी। प्लास्टिक की थैलियों का प्रचलन रुक सकेगा। आप नीचे उस बच्ची की अपील पढ़ें और जो कर सकते हैं करें।
From Annie Zaidi, Mumbai
One old magazine = somebody's freedom of livelihood
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A very BIG THANK YOU from my brother, sister, my mother and me...
SHEETAL RAMJI BARDE"
our address:
support 4 suicide farmers families, House No: 200 Opp: Dr. Harne's Hospital, Dhantoli Chowk Wardha: 442001
अगर मौका हो तो इस लिंक (South Asia Report) पर इसे भी पढ़ें....
टिप्पणियाँ
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9899768301
पंद्रह अगस्त यानी किसानों के माथे पर पुलिस का डंडा
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html