भजन और अजान को मधुर और विनम्र होना चाहिए
अजान की आवाज आपने कभी न कभी जरूर सुनी होगी। इसमें एक तरह का निमंत्रण होता है नमाजियों के लिए कि आइए आप भी शामिल हो जाएं ईश्वरीय इबादत में। अजान का उद्घोष आपका रुख ईश्वर की ओर मोडऩे के लिए होता है।
पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने अपने समय में हजरत बिलाल को खास तौर पर अजान देने का निर्देश दिया था। हजरत बिलाल का उस समय अरब समाज में जो स्टेटस था, वह बाकी लोगों के मुकाबले बहुत निम्न स्तरीय था। वह ब्लैक थे और एक यहूदी के यहां गुलाम थे। उन्हें पैगंबर मोहम्मद साहब ने ही आजाद कराया था। उन्होंने अजान के लिए हजरत बिलाल का चयन बहुत सोच समझकर किया था। इस्लाम की तारीख में पैगंबर के इस फैसले को इतिहासकारों ने सामाजिक क्रांति का नाम दिया है।
अजान में जो बात पढ़ी जाती है, उसका मतलब है इबादत के लिए बुलाना। इसमें इस बात को भी दोहराया जाता है कि और कोई ईश्वर नहीं है। अरब में जब इस्लाम फैला और अजान की शुरुआत हुई, उन दिनों लाउडस्पीकर नहीं थे। सुरीली आवाज में अजान का प्रचलन सिर्फ इसलिए शुरू हुआ कि लोगों तक यह सूचना सुखद ढंग से पहुंचे कि नमाज का वक्त हो चुका है।
जब लाउडस्पीकर - माइक का आविष्कार हो गया तो लोगों तक यह संदेश पहुंचाने में सुविधा हो गई। लेकिन अजान देने के उस तरीके पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो पैगंबर के समय में प्रचलित था। किताबों में मिलता है कि विभिन्न देशों में अलग-अलग समय में अनेक लोग सिर्फ अजान की अपनी सुरीली आवाज के लिए प्रसिद्ध और सम्मानित हुए थे। आज भी यह रुतबा एकाध लोगों को ही हासिल है। उनकी आवाज सुन कर लोग खुद खिंचे चले आते हैं।
लेकिन कई बार अजान इतनी कर्कश आवाज में सुनाई देती है कि वह सुनने वाले को मुग्ध करने और प्रेरित करने की जगह किसी असुखद शोर जैसा प्रभाव डालता है। अजान देने के लिए जिस प्रतिभा और प्रयास की दरकार होती है, उसके प्रति हम तनिक गंभीर नहीं दिखाई देते।
गुरुद्वारों में रागी गुरुवाणी पढ़ते समय आवाज को अद्भुत ढंग से संतुलित करते हैं। इसके लिए वे रोजाना घंटों रियाज करते हैं। वैसी ही कोशिश अजान को लेकर भी होनी चाहिए। अजान ऐसी हो कि लगे कि आपके कानों में कोई रस घोल रहा हो।
ईसाईयों में कैरल गायन के दौरान ऐसा ही होता है। कैरल में वे लोग ईसा मसीह की वंदना करते हैं। हर चर्च अपनी कैरल टीम तैयार करता है। लेकिन हर किसी को कैरल गाने का अधिकार नहीं मिलता। टीम के लोगों को इसकी तैयारी के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती है।
ईश्वर की वंदना के लिए हिंदू धर्म में भजन-कीर्तन का प्रचलन है। आजकल तो भगवती जागरण का खासा क्रेज है। लेकिन वहां भी भजन गायन के लिए किसी अभ्यास या प्रशिक्षण की जरूरत को महत्व नहीं दिया जाता। यही वजह है कि अक्सर भक्त जन ऐसे आयोजनों पर फिल्मी धुनों की पैरोडी बना कर भजन गाते नजर आते हैं। कई बार वह कर्कश शोर बन कर रह जाता है।
अब रमजान जल्द शुरू होने वाले हैं। जिन मस्जिदों से तेज आवाज में अजान नहीं सुनाई देती, वहां से भी रमजान के दिनों में तेज अजान सुनाई देती है, सुबह और शाम के वक्त की अजान की टोन में फर्क आ जाता है। वह हमेेशा सुरीली हो एक जैसी हो। न तो अजान देने वाले को कोई हड़बड़ी हो और न ही उस अजान को सुनने वाले को कोई असुविधा हो।
ईश्वर की वंदना में कर्कश स्वरों की कोई जरूरत नहीं होती। अजान या भजन में आवाज की जरूरत तो दूसरों को प्रेरित करने के लिए पड़ती है। यदि उसमें मधुरता और विनम्रता न हो तो वह इबादत का हिस्सा नहीं बन सकती।
(नवभारत टाइम्स 6 अगस्त से साभार)
पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने अपने समय में हजरत बिलाल को खास तौर पर अजान देने का निर्देश दिया था। हजरत बिलाल का उस समय अरब समाज में जो स्टेटस था, वह बाकी लोगों के मुकाबले बहुत निम्न स्तरीय था। वह ब्लैक थे और एक यहूदी के यहां गुलाम थे। उन्हें पैगंबर मोहम्मद साहब ने ही आजाद कराया था। उन्होंने अजान के लिए हजरत बिलाल का चयन बहुत सोच समझकर किया था। इस्लाम की तारीख में पैगंबर के इस फैसले को इतिहासकारों ने सामाजिक क्रांति का नाम दिया है।
अजान में जो बात पढ़ी जाती है, उसका मतलब है इबादत के लिए बुलाना। इसमें इस बात को भी दोहराया जाता है कि और कोई ईश्वर नहीं है। अरब में जब इस्लाम फैला और अजान की शुरुआत हुई, उन दिनों लाउडस्पीकर नहीं थे। सुरीली आवाज में अजान का प्रचलन सिर्फ इसलिए शुरू हुआ कि लोगों तक यह सूचना सुखद ढंग से पहुंचे कि नमाज का वक्त हो चुका है।
जब लाउडस्पीकर - माइक का आविष्कार हो गया तो लोगों तक यह संदेश पहुंचाने में सुविधा हो गई। लेकिन अजान देने के उस तरीके पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो पैगंबर के समय में प्रचलित था। किताबों में मिलता है कि विभिन्न देशों में अलग-अलग समय में अनेक लोग सिर्फ अजान की अपनी सुरीली आवाज के लिए प्रसिद्ध और सम्मानित हुए थे। आज भी यह रुतबा एकाध लोगों को ही हासिल है। उनकी आवाज सुन कर लोग खुद खिंचे चले आते हैं।
लेकिन कई बार अजान इतनी कर्कश आवाज में सुनाई देती है कि वह सुनने वाले को मुग्ध करने और प्रेरित करने की जगह किसी असुखद शोर जैसा प्रभाव डालता है। अजान देने के लिए जिस प्रतिभा और प्रयास की दरकार होती है, उसके प्रति हम तनिक गंभीर नहीं दिखाई देते।
गुरुद्वारों में रागी गुरुवाणी पढ़ते समय आवाज को अद्भुत ढंग से संतुलित करते हैं। इसके लिए वे रोजाना घंटों रियाज करते हैं। वैसी ही कोशिश अजान को लेकर भी होनी चाहिए। अजान ऐसी हो कि लगे कि आपके कानों में कोई रस घोल रहा हो।
ईसाईयों में कैरल गायन के दौरान ऐसा ही होता है। कैरल में वे लोग ईसा मसीह की वंदना करते हैं। हर चर्च अपनी कैरल टीम तैयार करता है। लेकिन हर किसी को कैरल गाने का अधिकार नहीं मिलता। टीम के लोगों को इसकी तैयारी के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती है।
ईश्वर की वंदना के लिए हिंदू धर्म में भजन-कीर्तन का प्रचलन है। आजकल तो भगवती जागरण का खासा क्रेज है। लेकिन वहां भी भजन गायन के लिए किसी अभ्यास या प्रशिक्षण की जरूरत को महत्व नहीं दिया जाता। यही वजह है कि अक्सर भक्त जन ऐसे आयोजनों पर फिल्मी धुनों की पैरोडी बना कर भजन गाते नजर आते हैं। कई बार वह कर्कश शोर बन कर रह जाता है।
अब रमजान जल्द शुरू होने वाले हैं। जिन मस्जिदों से तेज आवाज में अजान नहीं सुनाई देती, वहां से भी रमजान के दिनों में तेज अजान सुनाई देती है, सुबह और शाम के वक्त की अजान की टोन में फर्क आ जाता है। वह हमेेशा सुरीली हो एक जैसी हो। न तो अजान देने वाले को कोई हड़बड़ी हो और न ही उस अजान को सुनने वाले को कोई असुविधा हो।
ईश्वर की वंदना में कर्कश स्वरों की कोई जरूरत नहीं होती। अजान या भजन में आवाज की जरूरत तो दूसरों को प्रेरित करने के लिए पड़ती है। यदि उसमें मधुरता और विनम्रता न हो तो वह इबादत का हिस्सा नहीं बन सकती।
(नवभारत टाइम्स 6 अगस्त से साभार)
टिप्पणियाँ
घंटा बाजै मंदिर में कछु बहरो है भगवान
शायद ही आपकी कोई पोस्ट पढ़ पाने से भूल हुई हो.हमेशा एक नयी जानकारी मिलती है.
समय हो तो अवश्य पढ़ें और अपने विचार रखें:
मदरसा, आरक्षण और आधुनिक शिक्षा
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_05.html
@धीरू सिंह: अधिकतर लोग यही मानते हैं.... और अपने आपको भगवन का सच्चा भक्त मानते हैं.