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इसे जरूर पढ़ें - भारत मां के ये मुस्लिम बच्चे...

यह लेख सतीश सक्सेना जी ने लिखा है। हम दोनों एक दूसरे को व्यक्तिगत रुप से नहीं जानते। पर उन्होंने एक अच्छे मुद्दे पर लिखा है। इसके पीछे उनका जो भी उद्देश्य हो...बहरहाल आप इस लिंक पर जाकर इस लेख को जरूर पढ़े। अगर आपको आपत्ति हो तो भी पढ़ें और आपत्ति न भी हो तो भी पढ़ें। यह लेख एक नई बहस की शुरुआत भी कर सकता है। इससे कई सवाल आपके मन में भी होंगे। उन सवालों को उठाना न भूलें। चाहें दोबारा वह सवाल यहां करें या सतीश सक्सेना के ब्लॉग पर करें। पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं - ब्लॉग - मेरे गीत, लेख - भारत मां के ये मुस्लिम बच्चे, लेखक - सतीश सक्सेना

सिर्फ परंपरा निभाने के लिए मत मनाइए बकरीद

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आपकी नजर से वह तस्वीरें जरूर गुजरी होंगी, जिनमें कुरबानी (Sacrifice) के बकरे काजू, बादाम और पिज्जा (Pizza)खाते हुए नजर आ रहे होंगे। यह सिलसिला कई साल से दोहराया जा रहा है और हर साल यह रिवाज बढ़ता ही जा रहा है। जिसके पास जितना पैसा (Money)है, वह उसी हिसाब से कुरबानी के बकरे की सेवा करता है और उसके बाद उसे हलाल कर देता है। यह अब रुतबे का सबब बन गया है। जिसके पास जितना ज्यादा पैसा, उसके पास उतना ही शानदार कुरबानी का बकरा और उसकी सेवा के लिए उतने ही इंतजाम। इस्लाम के जिस संदेश को पहुंचाने के लिए इस त्योहार का सृजन हुआ, उसका मकसद कहीं पीछे छूटता जा रहा है। इस त्योहार (Festival)की फिलासफी किसी हलाल जानवर की कुरबानी देना भर नहीं है। इस्लाम ने इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि लोग खुश होकर खूब पैसा लुटाएं और उसका दिखावा भी करें। हजरत इब्राहीम से अल्लाह ने अपनी सबसे कीमती चीज की कुरबानी मांगी थी। उन्होंने काफी सोचने के बाद अपने बेटे की कुरबानी का फैसला किया। उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वह किसी जानवर की बलि देकर अपनी भक्ति पूरी कर लेते, लेकिन उन्होंने वह फैसला किया जिसके

गवाह भी तुम, वकील भी तुम

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उर्दू के मशहूर शायर राहत इंदौरी की दो गजलें... जिधर से गुजरो धुआं बिछा दो जहां भी पहुंचो धमाल कर दो तुम्हें सियासत ने यह हक दिया है हरी जमीनों को भी लाल कर दो अपील भी तुम, दलील भी तुम, गवाह भी तुम, वकील भी तुम जिसे चाहे हराम कह दो जिसे भी चाहे हलाल कर दो जुल्म ढाए सितमगरों की तरह जिस्म में कैद है घरों की तरह अपनी हस्ती है मकबरों की तरह तू नहीं था तो मेरी सांसों ने जुल्म ढाए सितमगरों की तरह अगले वक्तों के हाफिज अक्सर मुझ को लगते हैं नश्तरों की तरह और दो चार दिन हयात के हैं ये भी कट जाएंगे सरों की तरह कल कफस ही में थे तो अच्छे थे आज फिरते हैं बेघरों की तरह अपने पहलू पर उछलता है कतरा कतरा समंदर की तरह बन के सय्याद वक्त ने 'राहत' नोच डाला मुझे परों की तरह -राहत इंदौरी

राहत इंदौरी और जावेद अख्तरः दो रंग (ताजा शेर)

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मौजूदा दौर में उर्दू के दो मशहूर शायरों की कलम अलग-अलग बातों और रुझानों को लेकर चलती रहती है। यह दोनों बॉलिवुड की फिल्मों के लिए गीत भी लिखते हैं। लेकिन इनका असली रंग झलकता है इनकी शायरी में। मुझे दोनों शायरों की गजल के कुछ ताजा शेर मिले हैं, जो आप लोगों के लिए भी पेश कर रहा हूं। हो सकता है कि बाद में यह शेर आपको सुधरे हुए या किसी बदलाव के साथ पढ़ने को मिले। फिलहाल तो दोनों शायरों ने जो बयान किया है, वह हाजिर है... वह शख्स जालसाज लगता है सफर की हद है वहां तक, की कुछ निशां रहे चले चलो कि जहां तक ये आसमां रहे/ यह क्या, उठे कदम और आ गई मंजिल मजा तो जब है कि पैरों में कुछ थकन रहे/ वह शख्स मुझको कोई जालसाज लगता है तुम उसको दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे/ - राहत इंदौरी (शनिवार, 25 सितंबर 2010) तन्हा...तन्हा...तन्हा इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में ढूढ़ता फिरा उसको वो नगर नगर तन्हा तुम फूजूल बातों का दिल पे बोझ मत लेना हम तो खैर कर लेंगे जिंदगी बसर तन्हा जिंदगी की मंडी में क्या खरीद पाएगी इक गरीब गूंगी सी प्यार की नजर तन्हा - जावेद अख्तर (24 सितंबर 2010)