सिर्फ परंपरा निभाने के लिए मत मनाइए बकरीद
आपकी नजर से वह तस्वीरें जरूर गुजरी होंगी, जिनमें कुरबानी (Sacrifice) के बकरे काजू, बादाम और पिज्जा (Pizza)खाते हुए नजर आ रहे होंगे। यह सिलसिला कई साल से दोहराया जा रहा है और हर साल यह रिवाज बढ़ता ही जा रहा है। जिसके पास जितना पैसा (Money)है, वह उसी हिसाब से कुरबानी के बकरे की सेवा करता है और उसके बाद उसे हलाल कर देता है।
यह अब रुतबे का सबब बन गया है। जिसके पास जितना ज्यादा पैसा, उसके पास उतना ही शानदार कुरबानी का बकरा और उसकी सेवा के लिए उतने ही इंतजाम। इस्लाम के जिस संदेश को पहुंचाने के लिए इस त्योहार का सृजन हुआ, उसका मकसद कहीं पीछे छूटता जा रहा है। इस त्योहार (Festival)की फिलासफी किसी हलाल जानवर की कुरबानी देना भर नहीं है। इस्लाम ने इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि लोग खुश होकर खूब पैसा लुटाएं और उसका दिखावा भी करें।
हजरत इब्राहीम से अल्लाह ने अपनी सबसे कीमती चीज की कुरबानी मांगी थी। उन्होंने काफी सोचने के बाद अपने बेटे की कुरबानी का फैसला किया। उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वह किसी जानवर की बलि देकर अपनी भक्ति पूरी कर लेते, लेकिन उन्होंने वह फैसला किया जिसके बारे में किसी को अंदाजा भी नहीं था।
हजरत इब्राहीम ने अल्लाह के सामने जो परीक्षा दी, क्या मौजूदा दौर में कोई इंसान उस तरह की परीक्षा दे सकेगा? नामुमकिन है। लेकिन उस कुरबानी के पीछे छिपे संदेश को तो हम अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर सकते हैं। कुर्बानी का मतलब है त्याग, उस चीज का त्याग जो आपको प्रिय हो।
आप कुरबानी के जिस बकरे को काजू, बादाम और पिज्जा खिला रहे हैं, वह इससे आपका अजीज नहीं हो जाता, क्योंकि आप उसे कुर्बानी की नीयत से ही मोल ले कर आए हैं। उसका मूल आहार तो कुछ और है। उसे यह सब चाहिए भी नहीं और न ही उसकी अंतिम इच्छा है कि उसे काजू, बादाम खिलाकर हलाल किया जाए। और कुरान शरीफ में भी यह नहीं लिखा है कि बिना काजू, बादाम खिलाए आप उसे हलाल नहीं कर सकते।
तो क्यों न ऐसा हो कि जो पैसा आप उसके काजू, बादाम पर खर्च कर रहे हैं और जो दिखावे के अलावा और कुछ नहीं है, वह पैसा आप जरूरतमंदों तक पहुंचाएं। यदि ईद में आपने खैरात और जकात किया था, और फितरा गरीब लोगों तक पहुंचाया था, तो वैसा ही करने से आपको बकरीद (Bakreed) में कौन रोक रहा है?
यह त्योहार सिर्फ परंपरा निभाने के लिए मत मनाइए। परंपरागत त्योहार होते हुए भी इस त्योहार का संदेश कुछ अलग तरह का है। यह त्याग करने का संदेश देता है। पैसे के बाद जिस चीज ने हम लोगों को सबसे ज्यादा अपने चंगुल में ले रखा है वह है हम लोगों का अहंकार। क्या आप ईद या बकरीद की नमाज में इस बात की दुआ मांगते हैं कि अल्लाह मुझे अहंकार से बचा लो। आज से मैं इसका त्याग करता हूं। मुझे गुनाहों से बचा लो, आज से मैं उनका त्याग करता हूं।
अब अगर अहंकार को खत्म करने की ही दुआ न मांगी गई तो वही अहंकार आप को अपने पैसे का प्रदर्शन करने- कराने के लिए बाध्य करेगा और आप लोगों को दिखाने के लिए कुरबानी के बकरे को काजू-बादाम खिलाते नजर आएंगे। दरअसल, वह अहंकार शैतान ही है जो आपको तमाम गुनाहों की तरफ धकेल रहा है। इस बकरीद पर इसे खत्म करने की दुआ मांगिए। इनका आप त्याग कर बहुत कुछ पा सकते हैं।
साभारः नवभारत टाइम्स, 17 नवंबर 2010
Courtesy: Nav Bharat Times, 17 Nov. 2010
टिप्पणियाँ
नमस्कार !
विद्वतापूर्ण आलेख के लिए बधाई !
वास्तव में बिना समझ देखादेखी परंपरा के नाम पर , धार्मिक कृत्य के रूप में की जाने वाली जीवहत्या
पर जीभ के स्वाद के दृष्टिकोण से हटकर सोचने की ज़रूरत है ।
कुरबानी के पीछे छिपे संदेश को अपने जीवन में उतारने की कोशिश की आवश्यकता है। कुर्बानी का मतलब है त्याग, उस चीज का त्याग जो आपको प्रिय हो ,आपकी सबसे कीमती चीज हो ।
ज़ाहिर है,
बकरा प्रिय हो सकता है, कीमती तो परिवाजन ही होंगे !!
ईद मुबारक !
शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बधाई!!