पिछड़ों की राजनीति अब पीछे नहीं आगे बढ़ेगी



बिहार किसे चुनता है, इसका इंतजार सभी को था। तमाम नेता चमत्कार की उम्मीद कर रहे थे। राजनीतिक विश्लेषक भी अपनी-अपनी धारा में बह रहे थे। जाने-माने राजनीतिक टिप्पणीकार और दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रफेसर महेश रंगराजन की नजर भी इस चुनाव पर थी। नतीजे आने के बाद मैंने उनसे बात कीः



क्या नीतिश को वाकई विकास के ही नाम पर वोट मिला
बिहार के लोगों ने सिर्फ विकास के लिए वोट नहीं दिया है। भागलपुर, लातेहार, जैसे कई नरसंहार झेल चुका बिहार पहले से ही राजनीतिक रूप से जागरूक था और उसने हर बार विकास के लिए ही वोट दिया था लेकिन जिस सामाजिक न्याय को उससे छीन लिया गया था, इस चुनाव में उसे वापस लाने की छटपटाहट साफ नजर आ रही थी। नीतिश कुमार ने जनकल्याण की नींव तो पिछले ही चुनाव में डाल दी थी। लालू प्रसाद यादव के वक्त से भी पहले बिहार अपना राजनीतिक चेहरा बदलने के लिए परेशान था लेकिन गुंडो और बाहुबलियों की सेना उसे ऐसा करने से बार-बार रोक रही थी।

पर उन्होंने ऐसा क्या किया
नीतिश आए तो उन्होंने 50 हजार ऐसे गुंडों को सीधे जेल भेज दिया। भागलपुर के हत्यारों को सजा दिलाई। नीतिश ने बिहारी अस्मिता का नारा दिया। इसमें अगड़ा, पिछड़ा, अल्पसंख्यक और पसमंदा सभी शामिल थे। राजनीति तो बिहार के खून में बसी हुई है लेकिन कानून आधारित राजनीति की बात कोई नहीं कर रहा था। नीतिश ने पिछले पांच साल में यही करके दिखाया कि कानून आधारित राजनीति कैसे की जाती है। उनकी नजर चारों तरफ थी। उन्होंने दूर-दराज के गांवों में सड़कें बनवाईं, कई ऐसे छोटे पुल बनवाए जो उन गांवों से बाहर निकलने के लिए जरूरी थे। हालत यह थी कि लोग इसके अभाव में अपने गांव में बंधकर रह जाते थे। उन्होंने स्कूल आने-जाने के लिए लड़कियों को साइकलें दीं। पांच लाख नए स्टूडेंट्स ने स्कूलों में दाखिला लिया। इनमें लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा थी। यह सब बिहार में लौट रहे जनविश्वास का ही नतीजा है। अगर दिल्ली में बैठे लोग इसे चमत्कार मान रहे हैं या हैरान हो रहे हैं तो इसमे उनका दोष नहीं है। बिहार और वहां के लोगों के संघर्ष को पहचानने में दूर बैठे लोग अक्सर अनुमान गलत लगाते हैं। बिहार तो 20वीं सदी से ही भारत का मार्गदर्शन कर रहा है। अब वह 21 सदी में नई इबारत लिखने को तैयार है।

कहा जा रहा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को चुनाव प्रचार से दूर रखने का फायदा भी मिला नीतिश को?
नीतिश कुमार भी जयप्रकाश नारायण के मूल्यों वाली राजनीति के साथ जुड़े रहे हैं। उन्होंने अपने पांच साल के कार्यकाल में फिरकापरस्ती को जिस तरह उसकी औकात बताई है, इससे साबित हो गया कि उनके पास फिरकापरस्त लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। नीतिश के पूरे कार्यकाल में और इस चुनाव में भी बीजेपी के हिंदुत्व का अजेंडा कहीं पीछे रह गया। बीजेपी में इतना दम नहीं था कि वह इस अजेंडे के साथ बिहार के मतदाताओं के पास जाती और वह भी नीतिश कुमार के सामने रहते। नीतिश ने इस मामले में बीजेपी की जरा सा भी नहीं चलने दी। हालांकि नीतिश की इस सख्ती से बीजेपी को भी फायदा हुआ। उसकी सीटें बढ़ गईं। यह हकीकत है कि कई सीटों पर बीजेपी को नीतिश की इमेज का ही फायदा मिला है।

तो क्या बीजेपी इस तरह का प्रयोग किसी अन्य राज्य में भी कर सकती है?
मुश्किल है। क्योंकि जहां जैसी स्थिति होती है, बीजेपी अपनी रणनीति उसी तरह बनाती है। महाराष्ट्र में शिवसेना और पंजाब में अकाली दल उसके सहयोगी हैं जिनके साथ वह मिलकर चुनाव लड़ती है। दोनों ही राज्यों में वे दोनों दल मुख्य दल हैं और बीजेपी उनके पीछे है। अपने-अपने राज्यों में दोनों ही दल अपनी कट्टर छवि के लिए जाने जाते हैं। वहां तमाम मामलों में बीजेपी की नहीं चलती है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि बीजेपी बिहार मॉडल को कहीं और भी लागू करेगी। उसे जो चीज जहां सूट करती है, वैसा ही वह करती है।

नीतिश की आगे आप क्या भूमिका देखते हैं?
हालांकि वह कह चुके हैं कि वह खुद को बिहार तक ही सीमित रखेंगे लेकिन मैं समझता हूं कि राष्ट्रीय रंगमंच पर ही नहीं एनडीए में भी नीतिश की भूमिका अब महत्वपूर्ण हो जाएगी। बीजेपी को अब अपना अजेंडा या कोई बात मनवाना एनडीए के अंदर आसान नहीं होगा। उसके कई नेताओं के मुकाबले अब नीतिश का कद काफी बड़ा हो चुका है। बीजेपी को नीतिश की सुननी ही होगी।

और पिछड़ों की राजनीति का क्या होगा, जबकि आप कह रहे हैं कि नीतिश सभी वर्गों को साथ लेकर चल रहे हैं?
अब पिछड़ों की राजनीति पीछे नहीं जाने वाली है। वह आगे बढ़ेगी। नीतिश उसे आगे बढ़ाएंगे। पिछड़ों की राजनीति अब इस देश में निर्णायक मोड़ पर पहुंचने वाली है। नीतिश ने पिछड़ों को जोड़ने के लिए अपना नया फॉम्युर्ला ईजाद किया है। उनके पिछड़ों की राजनीति लालू, पासवान और मायावती से बिल्कुल अलग है। पर, बिहार को अभी सबसे बड़ी जरूरत आर्थिक रूप से मजबूत करने की है। इसके लिए चौतरफा काम करने की जरूरत है। तमिलनाडु जैसा उदाहरण नीतिश बिहार में पेश कर सकते हैं। जिस तरह के. कामराज नाडार ने तमिलनाडु का मुख्यमंत्री (1954-1963) रहते हुए उस राज्य को आर्थिक रूप से मजबूत किया, शिक्षा को सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाया और गांवों के गरीब बच्चे स्कूलों तक पहुंचे। उन्होंने वहां राजाजी की पॉलिसी बदलते हुए एकदम से 6000 स्कूल गांव-गांव में खोल दिए। तमिलनाडु का मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने दो प्रधानमंत्रियों लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। (कांग्रेस की राजनीति में कामराज प्लान काफी मशहूर रहा है।) नीतिश भी इस तरह का कुछ करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। बिहार में तो दरअसल उस राज्य को अब बनाने की शुरुआत होनी है।

साभारः नवभारत टाइम्स, 27 नवंबर 2010
यह लेख नवभारत टाइम्स की वेबसाइट http://nbt.in पर भी उपलब्ध है।

Courtesy: Nav Bharat Times, Nov. 27, 2010

टिप्पणियाँ

बहुत श्रम किया है आपने इस पोस्ट पर...यहाँ एक तथ्य यह भी स्पष्ट है कि आप अपनी आँखें खुली रखते हैं...और दिल-दिमाग़ भी!

आज के सुसुप्त समाज में प्रायः कहीं आँखें खुली दिखती हैं, तो दिमाग़ बंद मिलता है...अगर दिमाग़ खुला भी दिख गया, तो दिल बंद! तीनों एक-साथ कम ही खुले दिखते हैं...या फिर हो सकता कि मेरे देखने का नज़रिया ही ग़लत हो...शायद!

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