प्रेस फ्रीडम को कूड़ेदान में फेंक दो
आज प्रेस फ्रीडम डे है। अंग्रेजी में यही नाम दिया गया है। मित्र लोग संदेश भेज रहे हैं कि आज की-बोर्ड की आजादी की रक्षा करें। मतलब कलम की जगह अब चूंकि कंप्यूटर के की-बोर्ड ने ले ली है तो जाहिर है कि अब कलम की बजाय की-बोर्ड की आजादी की बात ही कही जाएगी। आप तमाम ब्लॉगर्स में से बहुत सारे लोग पत्रकार है और जो नहीं हैं वे ब्लॉगर होने के नाते पत्रकार हैं। क्या आप बता सकते हैं कि क्या वाकई प्रेस फ्रीडम नामक कोई चीज बाकी बची है। भयानक मंदी के दौर में तमाम समाचारपत्र और न्यूज चैनल जिस दौर से गुजर रहे हैं क्या उसे देखते हुए प्रेस फ्रीडम बाकी बची है। तमाम लोग जो इन संचार माध्यमों में काम कर रहे हैं वह बेहतर जानते हैं कि कि प्रेस फ्रीडम शब्द आज के दौर में कितना बेमानी हो गया है। आज कोई भी मिशनरी पत्रकारिता नहीं कर रहा है और न ही इसकी जरूरत है। हम लोग अब तथाकथित रूप से प्रोफेशनल हो गए हैं और प्रोफेशनल होने में हम मशीन बन जाते हैं तो क्या उसमें कहीं फ्रीडम की गुंजाइश बचती है। प्रेस की दुनिया में अब सारा काम इशारेबाजी में होता है। बड़े से लेकर छोटे तक को बस इशारे किए जाते हैं।
मेरा मानना है कि प्रेस फ्रीडम निहायत ही बकवास चीज है औऱ इसे कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए। इसके लिए मैं सिर्फ अखबार मालिकों या न्यूज चैनल के मालिकों को ही दोष नहीं देना चाहता। अब देखिए तमाम पत्रकार कांग्रेस, बीजेपी, सीपीएम, बीएसपी और समाजवादी पार्टी की बीट देखते हैं। शाम को जब वह खबर लिख रहे होते हैं या कहीं से लाइव कर रहे होते हैं तो उनकी प्रतिबद्धताएं झलक रही होती हैं। उन्हें राहुल गांधी से बड़ा गरीबों का हमदर्द कोई नजर नहीं आता।...उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ा कोई विकास पुरुष नजर नहीं आता और प्रकाश कारत से बड़ा कोई अर्थशास्त्री नजर नहीं आता। ...आखिर ये पत्रकार किस फ्रीडम की बात कर रहे हैं और किसको बेवकूफ बना रहे हैं। फीस बढ़ाने वाले स्कूलों की खबर का टोन बदल दिया जाता है। चैनल के न्यूज रूम में बैठे लोगों के बच्चे किसी संस्कृति स्कूल, किसी डीपीएस, किसी मॉडर्न स्कूल में पढ़ रहे होते हैं। फीस भी दे सकते हैं लेकिन स्कूल मालिक का फोन आ चुका है तो भला ओबलाइज कैसे न करें। इसी तरह के सीन अखबारों के दफ्तर में भी मिलते हैं।
प्रतिबद्धता की यह हद है कि अखबारों में तमाम पत्रकार संघी, वामपंथी, कांग्रेसी या लीगी के नाम से जाने-पहचाने जाते हैं। होता भी यही है कि ऐसे पत्रकार जब बहस करते हैं तो उनकी बातों से भी इसकी झलक मिलती है। इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और भारतीय संविधान में प्रदत्त शक्तियों के मुताबिक यहां की प्रेस स्वतंत्र भी हैं। लेकिन हम पत्रकारों ने इस स्वतंत्रता का कुछ गलत फायदा उठा लिया है। हमारी कलम और प्रतिबद्धता राज्यसभा में कुर्सी, फ्लैट, प्लॉट, विदेशी दौरे के लिए सरेआम नीलाम हो रही है। इन स्थितियों के लिए किसी अखबार मालिक या न्यूज चैनल के मालिक को पूरी तौर पर दोष देना ठीक नहीं है क्योंकि वे लोग भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। उन हालात में उन चैनलों या अखबारों के पत्रकारो मैन्युपुलेटर की भूमिका अदा करते हैं। यह बात अकेले हिंदी या अंग्रेजी के पत्रकारों की नहीं हो रही है। यही हाल मलयाली या तेलगू में लिखने वाले पत्रकारों का भी है। इस हमाम में सब नंगे हैं।
हालात इतने बदतर हैं कि चैनलों और अखबारों में अमुक-अमुक खूंटे से बंधे पत्रकारों को टॉक शो में बुलाया जाता है या लिखवाया जाता है। आपको जैसा मसाला चाहिए, उसी तरह के पत्रकार इस बाजार में उपलब्ध हैं। चाहे वामपंथी विचार खरीद लो या संघी विचारधारा से ओतप्रोत लिखवा लो। सबकी दुकानें सजी हैं। मुंबई में चले जाइए तो आपको वहां पर शिवसेना से प्रतिबद्धता जताने वाले पत्रकार मिल जाएंगे। लखनऊ में बीएसपी को अपनी प्रतिबद्धता जताने वाले पत्रकारों को तलाशने के लिए मशक्कत करनी पड़ी। वहां पत्रकार भाई मुलायम सिंह यादव का दामन छोड़ने को तैयार नहीं थे। पता चला कि इन्फ्रास्ट्रक्चर और रीयल एस्टेट से जुड़ी एक बहुत बड़ी कंपनी किसी तरह से कुछ पत्रकारों को बीएसपी के खेमे में लाई। अहमदाबाद में जिन पत्रकारों ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ लिखा उन्हें जेल भेज दिया गया या वे अपने-अपने अखबारों से निकाल दिए गए। मतलब कि वहां चैनल या अखबार मालिक मोदी के प्रतिबद्ध होकर निकले। दक्षिण भारत और कुछ अन्य राज्यों में तो कई राजनीतिक दलों के अपने अखबार और टीवी चैनल हैं। यह सही है कि वे उसके जरिए अपनी विचारधारा का प्रचार करते हैं लेकिन क्या वहां काम कर रहे पत्रकारों के लिए प्रेस फ्रीडम का मतलब है।
आज कोई नेता जब नेतागीरी शुरू करता है या कोई नया राजनीतिक दल खड़ा होता है तो सबसे पहले उसका अपना मीडिया होता है। इसके होने में कोई हर्ज भी नहीं है लेकिन आप उसे या वहां के पत्रकारों के लिए मुकम्मल प्रेस फ्रीडम नहीं कह सकते। मैं जानता हूं कि कुछ लोग इसे पढ़ने के बाद उपदेश देंगे और यहां के प्रेस फ्रीडम की तुलना पाकिस्तान, नेपाल या फिर बांग्लादेश से करेंगे लेकिन ये लोग अमेरिका या इंग्लैंड में वहां के पत्रकारों को हासिल प्रेस फ्रीडम की बात नहीं करेंगे। माफ कीजिएगा जूता फेंकने की तुलना प्रेस फ्रीडम से मत कीजिएगा।
मेरा मानना है कि प्रेस फ्रीडम निहायत ही बकवास चीज है औऱ इसे कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए। इसके लिए मैं सिर्फ अखबार मालिकों या न्यूज चैनल के मालिकों को ही दोष नहीं देना चाहता। अब देखिए तमाम पत्रकार कांग्रेस, बीजेपी, सीपीएम, बीएसपी और समाजवादी पार्टी की बीट देखते हैं। शाम को जब वह खबर लिख रहे होते हैं या कहीं से लाइव कर रहे होते हैं तो उनकी प्रतिबद्धताएं झलक रही होती हैं। उन्हें राहुल गांधी से बड़ा गरीबों का हमदर्द कोई नजर नहीं आता।...उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ा कोई विकास पुरुष नजर नहीं आता और प्रकाश कारत से बड़ा कोई अर्थशास्त्री नजर नहीं आता। ...आखिर ये पत्रकार किस फ्रीडम की बात कर रहे हैं और किसको बेवकूफ बना रहे हैं। फीस बढ़ाने वाले स्कूलों की खबर का टोन बदल दिया जाता है। चैनल के न्यूज रूम में बैठे लोगों के बच्चे किसी संस्कृति स्कूल, किसी डीपीएस, किसी मॉडर्न स्कूल में पढ़ रहे होते हैं। फीस भी दे सकते हैं लेकिन स्कूल मालिक का फोन आ चुका है तो भला ओबलाइज कैसे न करें। इसी तरह के सीन अखबारों के दफ्तर में भी मिलते हैं।
प्रतिबद्धता की यह हद है कि अखबारों में तमाम पत्रकार संघी, वामपंथी, कांग्रेसी या लीगी के नाम से जाने-पहचाने जाते हैं। होता भी यही है कि ऐसे पत्रकार जब बहस करते हैं तो उनकी बातों से भी इसकी झलक मिलती है। इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और भारतीय संविधान में प्रदत्त शक्तियों के मुताबिक यहां की प्रेस स्वतंत्र भी हैं। लेकिन हम पत्रकारों ने इस स्वतंत्रता का कुछ गलत फायदा उठा लिया है। हमारी कलम और प्रतिबद्धता राज्यसभा में कुर्सी, फ्लैट, प्लॉट, विदेशी दौरे के लिए सरेआम नीलाम हो रही है। इन स्थितियों के लिए किसी अखबार मालिक या न्यूज चैनल के मालिक को पूरी तौर पर दोष देना ठीक नहीं है क्योंकि वे लोग भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। उन हालात में उन चैनलों या अखबारों के पत्रकारो मैन्युपुलेटर की भूमिका अदा करते हैं। यह बात अकेले हिंदी या अंग्रेजी के पत्रकारों की नहीं हो रही है। यही हाल मलयाली या तेलगू में लिखने वाले पत्रकारों का भी है। इस हमाम में सब नंगे हैं।
हालात इतने बदतर हैं कि चैनलों और अखबारों में अमुक-अमुक खूंटे से बंधे पत्रकारों को टॉक शो में बुलाया जाता है या लिखवाया जाता है। आपको जैसा मसाला चाहिए, उसी तरह के पत्रकार इस बाजार में उपलब्ध हैं। चाहे वामपंथी विचार खरीद लो या संघी विचारधारा से ओतप्रोत लिखवा लो। सबकी दुकानें सजी हैं। मुंबई में चले जाइए तो आपको वहां पर शिवसेना से प्रतिबद्धता जताने वाले पत्रकार मिल जाएंगे। लखनऊ में बीएसपी को अपनी प्रतिबद्धता जताने वाले पत्रकारों को तलाशने के लिए मशक्कत करनी पड़ी। वहां पत्रकार भाई मुलायम सिंह यादव का दामन छोड़ने को तैयार नहीं थे। पता चला कि इन्फ्रास्ट्रक्चर और रीयल एस्टेट से जुड़ी एक बहुत बड़ी कंपनी किसी तरह से कुछ पत्रकारों को बीएसपी के खेमे में लाई। अहमदाबाद में जिन पत्रकारों ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ लिखा उन्हें जेल भेज दिया गया या वे अपने-अपने अखबारों से निकाल दिए गए। मतलब कि वहां चैनल या अखबार मालिक मोदी के प्रतिबद्ध होकर निकले। दक्षिण भारत और कुछ अन्य राज्यों में तो कई राजनीतिक दलों के अपने अखबार और टीवी चैनल हैं। यह सही है कि वे उसके जरिए अपनी विचारधारा का प्रचार करते हैं लेकिन क्या वहां काम कर रहे पत्रकारों के लिए प्रेस फ्रीडम का मतलब है।
आज कोई नेता जब नेतागीरी शुरू करता है या कोई नया राजनीतिक दल खड़ा होता है तो सबसे पहले उसका अपना मीडिया होता है। इसके होने में कोई हर्ज भी नहीं है लेकिन आप उसे या वहां के पत्रकारों के लिए मुकम्मल प्रेस फ्रीडम नहीं कह सकते। मैं जानता हूं कि कुछ लोग इसे पढ़ने के बाद उपदेश देंगे और यहां के प्रेस फ्रीडम की तुलना पाकिस्तान, नेपाल या फिर बांग्लादेश से करेंगे लेकिन ये लोग अमेरिका या इंग्लैंड में वहां के पत्रकारों को हासिल प्रेस फ्रीडम की बात नहीं करेंगे। माफ कीजिएगा जूता फेंकने की तुलना प्रेस फ्रीडम से मत कीजिएगा।
टिप्पणियाँ
press ko aazadi hai, wo chahe to kisi ko chor bana de aur kisi ko satyawadi harishchandra. kukarmee rajnetaon ko sadhu bana dena aur kisi imandaar adhikari ko ghuskhor bana dene ki kabiliyat free press mein hee to hai?
अच्छा लिखा
संभव हो,समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर अपनी पारखी दृष्टि डालें
http://gazalkbahane.blogspot.com/ कम से कम दो गज़ल [वज्न सहित] हर सप्ताह
http:/katha-kavita.blogspot.com/ दो छंद मुक्त कविता हर सप्ताह कभी-कभी लघु-कथा या कथा का छौंक भी मिलेगा
सस्नेह
श्यामसखा‘श्याम
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कलम हो गई मालिकों की गुलाम-पत्रकार नहीं कर सकते मर्जी से काम....
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