हिंदुत्व की धारणा विकास विरोधी क्यों है
-टी.के. अरुण
नरेंद्र मोदी इस समझ को सिरे से खारिज करते हैं कि हिंदुत्व के साथ विकास की कोई संगति नहीं बैठ सकती। गुजरात की प्रगति को वे अपनी बात के सबूत के तौर पर पेश करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात का प्रशासन गतिशील है और यह भारत के सबसे तेजी से आगे बढ़ रहे राज्यों में एक है। भारतीय उद्यमी जगत के कई प्रमुख नाम तो मोदी को एक दिन भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं। फिर विकास को मुद्दा बनाकर हिंदुत्व के बारे में खामखा की एक बहस खड़ी करने का भला क्या औचित्य है? औचित्य है, क्योंकि हिंदुत्व विकास की मूल प्रस्थापना का ही निषेध करने वाली अवधारणा है।
हिंदुत्व निश्चय ही हिंदू धर्म से पूरी तरह अलग चीज है। हिंदू धर्म एक सर्व-समावेशी, वैविध्यपूर्ण, बहुदेववादी धर्म और संस्कृति है, जिसका अनुसरण भारत के 80 प्रतिशत लोग करते हैं। इसके बरक्स हिंदुत्व भारतीय समाज को गैर-हिंदुओं के प्रति शत्रुता के आधार पर संगठित करना चाहता है और भारतीय राष्ट्रवाद को कुछ इस तरह पुनर्परिभाषित करना चाहता है कि धार्मिक अल्पसंख्यक इसमें दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रह जाएं।
क्या यह घिसा-पिटा आरोप नहीं है? क्या सांप्रदायिकता का इस्तेमाल देश की कमोबेश सारी ही पार्टियां वोट जुटाने की अपनी मुहिम में एक कारगर उपाय के तौर पर नहीं करतीं? 1984 के सिख-विरोधी दंगों की अनुगूंज आज भी इतनी तीखी है कि कांग्रेस को अपने संसदीय उम्मीदवार जूते की नोक पर बदलने पड़ जाते हैं। फिर सांप्रदायिकता के मुद्दे पर सिर्फ बीजेपी को ही इस तरह अलग-थलग करने का क्या मतलब है?
सांप्रदायिकता का जनद्रोही उपयोग चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी करे, यह देश के लिए विनाशकारी है। इस घृणित चीज की भत्र्सना ही की जानी चाहिए। लेकिन जो पार्टी एक समुदाय को अपने से बाहर के लोगों के प्रति घृणा के आधार पर ही संगठित करती हो, वह निश्चय ही उन सारी पार्टियों से अलग है जो वोट झटकने के औजार के रूप में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करती हैं।
इस बात का सबूत क्या है कि बीजेपी का मुख्य अजेंडा सांप्रदायिकता ही है? इसका सबसे ताजातरीन और सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला सबूत वरुण गांधी का अपने मुस्लिम विरोधी आग-लगाऊ भाषणों के बाद इस पार्टी के नए पोस्टर बॉय के रूप में उभरना है। बीजेपी नेतृत्व ने एक उम्मीदवार के रूप में न सिर्फ पूरी गर्मजोशी के साथ वरुण का अनुमोदन किया है, बल्कि आम पार्टी कार्यकर्ताओं ने भी एक नए नायक और स्टार प्रचारक के रूप में उनका स्वागत किया है। बीजेपी के सांप्रदायिक अजेंडा का एक और उदाहरण कंधमाल में संघ परिवार के संगठनों और कार्यकर्ताओं द्वारा ईसाइयों के खिलाफ किया गया संगठित हमला है। इस हमले का नेतृत्व जिस व्यक्ति ने किया था, वह आज इसी इलाके से बीजेपी का उम्मीदवार है।
बीजेपी उन संगठनों के परिवार का एक हिस्सा है, जो आरएसएस से प्रेरणा लेते हैं और उसी के द्वारा नियंत्रित होते हैं। और आरएसएस ने यह कहने में अब तक कोई हिचक नहीं दिखाई है कि उसका मिशन भारत को एक ऐसे हिंदू राष्ट्र में बदलना है, जहां- इसके सिद्धांतकार गोलवलकर के शब्दों में, गैर-हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा दूसरे दर्जे के नागरिकों के रूप में ही बर्दाश्त किया जा सकता है।
अगर बीजेपी एक सांप्रदायिक पार्टी है भी, तो यह भला विकास विरोधी कैसे हो गई? इस सवाल का जवाब दो स्तरों पर देना जरूरी है। एक, गैर-हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की परियोजना में जो सामाजिक हिंसा निहित है, वह आर्थिक गतिविधियों के व्यवस्थित संचालन को मटियामेट कर सकती है। और दो, विकास की मूल धारणा ही समाज के किसी भी हिस्से के बहिष्कार और उत्पीडऩ का पूरी तरह निषेध करती है।
इन पंक्तियों का लेखक यह मानने को कतई तैयार नहीं है कि नई सड़कों, बंदरगाहों, कारखानों और बिजली घरों का निर्माण ही विकास है। न ही यह कि भौतिक समृद्धि किसी खास राजनीतिक विचारधारा की उपज होती है। इनमें बाद वाले पहलू का कुछ और खुलासा करने के लिए पिछली सदी के एक प्रासंगिक उदाहरण का जिक्र जरूरी है। 1930 के दशक में तीन नेता पूरे जोशोखरोश के साथ विकास कार्य में जुटे हुए थे। अमेरिका में मंदी की कमर तोडऩे वाले एफ.डी. रूजवेल्ट, आर्य नस्ल का दायरा बढ़ाने के लिए जरूरी सैनिक-औद्योगिक शक्ति हासिल करने में जुटा हिटलर, और अपरिहार्य साम्राज्यवादी हमले के सामने पितृभूमि की रक्षा के लिए काम कर रहे स्टालिन। इन तीनों ने ही नई सड़कें, कारखाने, बिजली घर और सैन्य शक्ति खड़ी की और विकास के तमाम बाहरी प्रतीकों के मामले में इनका कोई सानी नहीं था। तीनों ने ही विकास को एक साझा प्रयास की तरह लिया था, लेकिन इनके राजनीतिक उद्देश्य एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे।
अल्पसंख्यकों को तबाह करने वाले नाजी अपनी संपन्नता को ज्यादा समय तक बचा नहीं पाए। संसार को यहूदियों से मुक्त कराने की उनकी परियोजना आखिरकार खुद जर्मनी की तबाही का सबब बनी। यह खतरा उन सारी विकास दृष्टियों में निहित है जो समाज के कुछ हिस्सों को विकास से बाहर रखकर उनका दमन करना चाहती हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि विकास का अर्थ अंतत: केवल भौतिक समृद्धि नहीं होता।
मानव जाति अन्य सभी जीव जातियों इस मामले में अलग है कि इसमें अपने पुनरुत्पादन के अलावा नई भौतिक और सांस्कृतिक सामग्री सृजित करने की क्षमता भी मौजूद होती है। नई चीजें रचने और जीवन को पहले से ज्यादा समृद्ध बनाने की यह अद्वितीय क्षमता न सिर्फ इस बात पर निर्भर करती है कि लोगों के बीच आपसी संपर्क कैसा है, बल्कि इस पर भी कि प्रकृति के साथ उनकी अंत:क्रिया कैसी है, जिससे उत्पादन के सारे जरूरी संसाधन उन्हें जुटाने होते हैं।
सच्चा विकास लोगों की रचनात्मकता को उन्मुक्त करने में है, और इसे केवल उत्पीडऩ को समाप्त करके और वंचित तबकों को ज्ञान, स्वास्थ्य, सुरक्षा और भौतिक ढांचे जैसे सृजन के साधन मुहैया करा कर ही अंजाम दिया जा सकता है। यही कारण है कि स्वतंत्रता और विकास परस्पर जुड़ी हुई चीजें हैं। गैर-हिंदुओं को किनारे करके हिंदुओं की व्यापक बहुसंख्या का विकास संभव नहीं है। सांप्रदायिक विभाजन केवल उस जमीनी एकता को तोड़ता है, जो मुक्ति की डगर पर बढऩे के लिए बहुत जरूरी है। हिंदुत्व ठीक इसी वजह से विकास-विरोधी है।
लेखक इकनॉमिक टाइम्स- हिंदी (दिल्ली) के संपादक हैं
नवभारत टाइम्स से साभार सहित
नरेंद्र मोदी इस समझ को सिरे से खारिज करते हैं कि हिंदुत्व के साथ विकास की कोई संगति नहीं बैठ सकती। गुजरात की प्रगति को वे अपनी बात के सबूत के तौर पर पेश करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात का प्रशासन गतिशील है और यह भारत के सबसे तेजी से आगे बढ़ रहे राज्यों में एक है। भारतीय उद्यमी जगत के कई प्रमुख नाम तो मोदी को एक दिन भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं। फिर विकास को मुद्दा बनाकर हिंदुत्व के बारे में खामखा की एक बहस खड़ी करने का भला क्या औचित्य है? औचित्य है, क्योंकि हिंदुत्व विकास की मूल प्रस्थापना का ही निषेध करने वाली अवधारणा है।
हिंदुत्व निश्चय ही हिंदू धर्म से पूरी तरह अलग चीज है। हिंदू धर्म एक सर्व-समावेशी, वैविध्यपूर्ण, बहुदेववादी धर्म और संस्कृति है, जिसका अनुसरण भारत के 80 प्रतिशत लोग करते हैं। इसके बरक्स हिंदुत्व भारतीय समाज को गैर-हिंदुओं के प्रति शत्रुता के आधार पर संगठित करना चाहता है और भारतीय राष्ट्रवाद को कुछ इस तरह पुनर्परिभाषित करना चाहता है कि धार्मिक अल्पसंख्यक इसमें दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रह जाएं।
क्या यह घिसा-पिटा आरोप नहीं है? क्या सांप्रदायिकता का इस्तेमाल देश की कमोबेश सारी ही पार्टियां वोट जुटाने की अपनी मुहिम में एक कारगर उपाय के तौर पर नहीं करतीं? 1984 के सिख-विरोधी दंगों की अनुगूंज आज भी इतनी तीखी है कि कांग्रेस को अपने संसदीय उम्मीदवार जूते की नोक पर बदलने पड़ जाते हैं। फिर सांप्रदायिकता के मुद्दे पर सिर्फ बीजेपी को ही इस तरह अलग-थलग करने का क्या मतलब है?
सांप्रदायिकता का जनद्रोही उपयोग चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी करे, यह देश के लिए विनाशकारी है। इस घृणित चीज की भत्र्सना ही की जानी चाहिए। लेकिन जो पार्टी एक समुदाय को अपने से बाहर के लोगों के प्रति घृणा के आधार पर ही संगठित करती हो, वह निश्चय ही उन सारी पार्टियों से अलग है जो वोट झटकने के औजार के रूप में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करती हैं।
इस बात का सबूत क्या है कि बीजेपी का मुख्य अजेंडा सांप्रदायिकता ही है? इसका सबसे ताजातरीन और सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला सबूत वरुण गांधी का अपने मुस्लिम विरोधी आग-लगाऊ भाषणों के बाद इस पार्टी के नए पोस्टर बॉय के रूप में उभरना है। बीजेपी नेतृत्व ने एक उम्मीदवार के रूप में न सिर्फ पूरी गर्मजोशी के साथ वरुण का अनुमोदन किया है, बल्कि आम पार्टी कार्यकर्ताओं ने भी एक नए नायक और स्टार प्रचारक के रूप में उनका स्वागत किया है। बीजेपी के सांप्रदायिक अजेंडा का एक और उदाहरण कंधमाल में संघ परिवार के संगठनों और कार्यकर्ताओं द्वारा ईसाइयों के खिलाफ किया गया संगठित हमला है। इस हमले का नेतृत्व जिस व्यक्ति ने किया था, वह आज इसी इलाके से बीजेपी का उम्मीदवार है।
बीजेपी उन संगठनों के परिवार का एक हिस्सा है, जो आरएसएस से प्रेरणा लेते हैं और उसी के द्वारा नियंत्रित होते हैं। और आरएसएस ने यह कहने में अब तक कोई हिचक नहीं दिखाई है कि उसका मिशन भारत को एक ऐसे हिंदू राष्ट्र में बदलना है, जहां- इसके सिद्धांतकार गोलवलकर के शब्दों में, गैर-हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा दूसरे दर्जे के नागरिकों के रूप में ही बर्दाश्त किया जा सकता है।
अगर बीजेपी एक सांप्रदायिक पार्टी है भी, तो यह भला विकास विरोधी कैसे हो गई? इस सवाल का जवाब दो स्तरों पर देना जरूरी है। एक, गैर-हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की परियोजना में जो सामाजिक हिंसा निहित है, वह आर्थिक गतिविधियों के व्यवस्थित संचालन को मटियामेट कर सकती है। और दो, विकास की मूल धारणा ही समाज के किसी भी हिस्से के बहिष्कार और उत्पीडऩ का पूरी तरह निषेध करती है।
इन पंक्तियों का लेखक यह मानने को कतई तैयार नहीं है कि नई सड़कों, बंदरगाहों, कारखानों और बिजली घरों का निर्माण ही विकास है। न ही यह कि भौतिक समृद्धि किसी खास राजनीतिक विचारधारा की उपज होती है। इनमें बाद वाले पहलू का कुछ और खुलासा करने के लिए पिछली सदी के एक प्रासंगिक उदाहरण का जिक्र जरूरी है। 1930 के दशक में तीन नेता पूरे जोशोखरोश के साथ विकास कार्य में जुटे हुए थे। अमेरिका में मंदी की कमर तोडऩे वाले एफ.डी. रूजवेल्ट, आर्य नस्ल का दायरा बढ़ाने के लिए जरूरी सैनिक-औद्योगिक शक्ति हासिल करने में जुटा हिटलर, और अपरिहार्य साम्राज्यवादी हमले के सामने पितृभूमि की रक्षा के लिए काम कर रहे स्टालिन। इन तीनों ने ही नई सड़कें, कारखाने, बिजली घर और सैन्य शक्ति खड़ी की और विकास के तमाम बाहरी प्रतीकों के मामले में इनका कोई सानी नहीं था। तीनों ने ही विकास को एक साझा प्रयास की तरह लिया था, लेकिन इनके राजनीतिक उद्देश्य एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे।
अल्पसंख्यकों को तबाह करने वाले नाजी अपनी संपन्नता को ज्यादा समय तक बचा नहीं पाए। संसार को यहूदियों से मुक्त कराने की उनकी परियोजना आखिरकार खुद जर्मनी की तबाही का सबब बनी। यह खतरा उन सारी विकास दृष्टियों में निहित है जो समाज के कुछ हिस्सों को विकास से बाहर रखकर उनका दमन करना चाहती हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि विकास का अर्थ अंतत: केवल भौतिक समृद्धि नहीं होता।
मानव जाति अन्य सभी जीव जातियों इस मामले में अलग है कि इसमें अपने पुनरुत्पादन के अलावा नई भौतिक और सांस्कृतिक सामग्री सृजित करने की क्षमता भी मौजूद होती है। नई चीजें रचने और जीवन को पहले से ज्यादा समृद्ध बनाने की यह अद्वितीय क्षमता न सिर्फ इस बात पर निर्भर करती है कि लोगों के बीच आपसी संपर्क कैसा है, बल्कि इस पर भी कि प्रकृति के साथ उनकी अंत:क्रिया कैसी है, जिससे उत्पादन के सारे जरूरी संसाधन उन्हें जुटाने होते हैं।
सच्चा विकास लोगों की रचनात्मकता को उन्मुक्त करने में है, और इसे केवल उत्पीडऩ को समाप्त करके और वंचित तबकों को ज्ञान, स्वास्थ्य, सुरक्षा और भौतिक ढांचे जैसे सृजन के साधन मुहैया करा कर ही अंजाम दिया जा सकता है। यही कारण है कि स्वतंत्रता और विकास परस्पर जुड़ी हुई चीजें हैं। गैर-हिंदुओं को किनारे करके हिंदुओं की व्यापक बहुसंख्या का विकास संभव नहीं है। सांप्रदायिक विभाजन केवल उस जमीनी एकता को तोड़ता है, जो मुक्ति की डगर पर बढऩे के लिए बहुत जरूरी है। हिंदुत्व ठीक इसी वजह से विकास-विरोधी है।
लेखक इकनॉमिक टाइम्स- हिंदी (दिल्ली) के संपादक हैं
नवभारत टाइम्स से साभार सहित
टिप्पणियाँ
इस तरह की अवधारणा कभी विकास सापेक्ष हो ही नहीं सकती वह तो विकास को बत्ती लगाने वाली है।
This is most biased article that I have recently read.
I fully agree with "Akshat Vichaar"..