न डगमगाए इंसाफ का तराजू
भारतीय अदालतें अगर वक्त के साथ खुद को बदल रही हैं तो यह अच्छा संकेत है। इधर हाल के वर्षों में कुछ अदालतों ने ऐसे फैसले सुनाए जिन पर आम राय अच्छी नहीं बनी और इस जूडिशल एक्टिविज्म की तीखी आलोचना भी हुई। लेकिन इधर अदालतें कुछ फैसले ऐसे भी सुनाती हैं जिन पर किसी की नजर नहीं जाती लेकिन उसके नतीजे बहुत दूरगामी होते हैं या हो सकते हैं। हैरानी तो यह है कि ऐसे मामलों की मीडिया में भी बहुत ज्यादा चर्चा नहीं होती।
पहले तो बात उस केस की करते हैं जिसमें अदालत की टिप्पणी का एक-एक शब्द मायने रखता है। दिल्ली में रहने वाली आशा गुलाटी अपने बेटे के साथ करोलबाग इलाके से गुजर रही थीं। उनके वाहन को एक बस ने टक्कर मार दी। आशा को अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई। आशा गुलाटी खुद नौकरी करती थीं और उनके पति भी जॉब में थे। गौरव बीसीए कर रहा था। आशा के परिवार ने मुआवजे के लिए कोर्ट में मुकदमा किया। अदालत में बस का इंश्योरेंस करने वाली कंपनी ने दलील दी कि आशा पर परिवार का कोई सदस्य आश्रित नहीं था, उनके पति जॉब करते हैं। गौरव का खर्च वह उठा रहे हैं, ऐसे में मुआवजे का हक आशा के परिवार को नहीं है।
देखने में यह बहुत साधारण सा केस है और ऐसे ढेरों केस अदालतों में आते रहते हैं। लेकिन दिल्ली में तीस हजारी अदालत की अडिशनल जिला जज (एडीजे) स्वर्णकांता शर्मा ने इस केस में अपनी टिप्पणी के साथ जो फैसला सुनाया वह काबिले गौर है। यह तो आपको अंदाजा हो ही गया होगा कि जज साहिबा ने इंश्योरेंस कंपनी की अर्जी खारिज कर होगी। लेकिन उनकी टिप्पणी देखिए - सडक़ हादसे के मामले में मुआवजा तय करते वक्त महिला और पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं हो सकता। कानून की नजर में दोनों बराबर हैं और महिला का परिवार के प्रति सहयोग कहीं से भी पुरुषों से कम नहीं आंका जा सकता।
उन्होंने कहा कि कामकाजी महिला की आमदनी को परिवार में सही तरीके से मान्यता नहीं मिलती। लेकिन सही मायने में महिला और पुरुष दोनों के योगदान को समान तौर पर माना जाना चाहिए। जज स्वर्णकांता शर्मा ने कहा कि आज के बदले हालात में पति व पत्नी मिलकर बेहतर जिंदगी के लिए काम करते हैं ताकि उनका स्टैंडर्ड ऑफ लाइफ बेहतर हो सके और उनके बच्चों को अच्छी एजुकेशन मिल सके। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज में महिला के उस सहयोग को उसके रहते नहीं समझा जाता जबकिि पुरुष के मामले में उसके आर्थिक सहयोग को फौरन स्वीकार कर लिया जाता है। लेकिन वहीं महिला के केस में लगातार विरोध किया जाता है इससे भेदभाव साफ दिखता है। अदालत इसे स्वीकार नहीं कर सकती। अदालत की समाज के प्रति जिम्मेदारी है और समाज को जागरूक किया जाना जरूरी है।
अदालत का इस तरह का फैसला निश्चित रूप से आंख खोलने वाला है लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब अदालतें धर्म, जाति और राजनीति से जुड़े मामलों में अपनी हद से आगे जाकर फैसला देती हैं। कई केस तो इतने अटपटे हो जाते हैं कि बाद में ऊपर की अदालतों को भी लगता है कि निचली अदालत ने इस तरह की उलूलजुलूल टिप्पणी क्यों की। मसलन पिछले दिनों भोपाल के निर्मला कॉन्वेंट स्कूल में एक मुस्लिम बच्चे की दाढ़ी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्केंडेय काटजू की टिप्पणी पर काफी शोरशराबा हुआ था और बाद में संविधान सभा ने न सिर्फ उस फैसले को दुरुस्त किया बल्कि जस्टिस मार्केंडेय काटजू ने भी अपनी टिप्पणी के लिए बाद में खेद जताया।
उस मामले में कॉन्वेंट स्कूल ने इस आधार पर उस बच्चे को स्कूल से निकाल दिया था कि उसने अपनी दाढ़ी मुड़वाने से मना कर दिया था। तमाम अदालतों से गुजरकर मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जस्टिस मार्केंडेय काटजू ने स्कूल के फैसले को सही ठहराते हुए कहा था कि इस देश के तालिबानीकरण की इजाजत नहीं दी जा सकती यानी दाढ़ी तालिबानी संस्कृति की पहचान है और अगर इसकी व्याख्या इस तरह की जाए कि सारे दाढ़ी रखने वाले तालिबानी हैं तो अदालत की इस सोच पर अब क्या कहा जा सकता है। बहरहाल, यह मामला संविधान सभा ने संभाल लिया और जस्टिस काटजू के खेद जताने के बाद खत्म भी हो गया। (इस मुद्दे को समझने के लिए नीचे दो लिंक दिए जा रहे हैं जहां आप अन्य लेख पढ़कर इसे समझ सकते हैं)
पर, अदालतें इस बात से मना नहीं कर सकतीं कि अब उन पर भी पब्लिक की गहरी नजर रहती है। भारतीय अदालतों में देश के लोगों का यकीन अगर अब भी बरकरार है तो उसके लिए जज स्वर्णकांता शर्मा जैसों के फैसले ही अहम रोल निभाते हैं। अभी ताजा विवाद जजों की संपत्ति की घोषणा को लेकर चल रहा है। हालांकि इस मामले में चीफ जस्टिस ने खुद अपनी संपत्ति की घोषणा करके एक मिसाल पेश की है लेकिन इसी मामले में जिस तरह विरोध कराया गया, उसे लेकर अदालतों के बारे में कोई अच्छी राय बनती नहीं दिखाई दी। कर्नाटक के जस्टिस दिनाकरण का मामला भी प्रॉपटी के चलते विवाद का विषय बना हुआ है। इंसाफ के मंदिर को अब यह तय करना है कि लोगों में उसकी आस्था बनी रहे, उसके लिए वह क्या कदम उठाए।
सलीम से जुड़े मसले पर हिंदीवाणी में यह लेख छपा था...इसे इस लिंक पर पढ़े...
http://hindivani.blogspot.com/2009_03_01_archive.html
सलीम के मामले में अदालत का अंतिम फैसला और काटजू की टिप्पणी वापस लेने का पूरा विवरण यहां पढ़ें...
http://muslimmedianetwork.com/mmn/?p=4575
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