इस कुरबानी को भी पहचानिए
मेरा यह लेख शुक्रवार 27 नवंबर 2009 को नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली में संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ। इस लेख को नवभारत टाइम्स से साभार सहित मैं आप लोगों के लिए इस ब्लॉग पर पेश कर रहा हूं। यह लेख नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर भी है, जहां पाठकों की टिप्पणियां आ रही हैं। अगर उन टिप्पणियों को पढ़ना चाहते हैं तो वहां इस लिंक के जरिए पहुंच सकते हैं - http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5272127.cms
-यूसुफ किरमानी
बकरीद अपने आप में बहुत अनूठा त्योहार है। हालांकि इस्लाम धर्म के बारे में ज्यादा न जानने वालों के लिए यह किसी हलाल जानवर को कुरबानी देने के नाम पर जाना जाता है लेकिन बकरीद सिर्फ कुरबानी का त्योहार नहीं है। यह एक पूरा दर्शन है जिसके माध्यम से इस्लाम ने हर इंसान को एक सीख देने की कोशिश की है। हालांकि कुरानशरीफ की हर आयत में इंसान के लिए पैगाम है लेकिन इस्लाम ने जिन त्योहारों को अपनी संस्कृति का हिस्सा बनाया, वह भी कहीं न कहीं कुछ संदेश लिए नजर आते हैं। अल्लाह ने हजरत इब्राहीम से उनकी सबसे प्यारी चीज कुरबान करने की बात कही थी, इब्राहीम ने काफी मनन-चिंतन के बाद अपने बेटे की कुरबानी का फैसला किया था। वह चाहते तो किसी जानवर की कुरबानी कर अपने कर्तव्य से मुक्ति पा लेते। पर, उन्होंने वही किया जो सच था। हजरत इब्राहीम के इस दायित्व पूरा करने में जो संदेश छिपा है, उसे समझे जाने की जरूरत है।
संदेश यह है कि अगर इस तरह की परीक्षा देने का वक्त आए तो हर इंसान को इस तरह की कुरबानी के लिए तैयार रहना चाहिए, उस समय उसके कदम लडख़ड़ाएं नहीं। कुरबानी की यह परीक्षा ईश्वर आपसे कहीं भी ले सकता है, चाहे वह परिवार के लिए हो, समाज के लिए हो, अपने देश के लिए हो या फिर किसी गैर के लिए ही क्यों न हो। जिंदा रहते हुए भी कुछ लोग अपने अंग मरने के बाद दान करने के लिए कह जाते हैं, उसके पीछे भी कुछ इसी तरह की भावना होती है। वरना अपने आंख, पैर, हाथ लेकर सीधे स्वर्गलोक में जाने की कल्पना करने वाला इंसान इतनी जरा सी कुरबानी के लिए भी कहां तैयार होता है।
कुरबानी की एक व्याख्या कुछ इस तरह भी है और वह वर्तमान परिस्थितियों में पूरी तरह फिट बैठती है। कम से कम हम इंसान तो पैगंबर नहीं हैं, तो फिर हम लोग किन चीजों की कुरबानी दे सकते हैं। आधुनिक चिंतक कुछ इस तरह सोचते हैं। उनका मानना है कि अहम (ईगो) आज की सबसे बड़ी समस्या है। अगर हर इंसान सिर्फ अपने अहम की कुरबानी दे दे तो हम एक ऐसी सोसायटी का निर्माण कर सकते हैं जो बेमिसाल हो सकती है। कहा जा रहा है कि आज बहुत सारी समस्याएं इस अहम के कारण खड़ी हो रही हैं। इसलिए अगर लोग इस बकरीद पर इस अहम को ही त्यागने का फैसला कर लें तो इस त्योहार का मतलब और मकसद पूरा हो जाएगा। हालांकि यह बात कुछ लोगों के गले नहीं उतरेगी लेकिन आज समाज हमसे हमारे अहम की कुरबानी मांग रहा है।
चलिए अब बकरीद मनाने के ढंग से कुरबानी के बारे में सोचते हैं। इस्लाम ने कुरबानी के जो नियम बनाए है, उसके साथ कुछ शर्ते भी लगा दी हैं। इन शर्तों में एक बड़ा संदेश छिपा है। कहा गया है कि जानवर की कुरबानी के बाद उसके तीन हिस्से किए जाएं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाए और बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंद लोगों के बीच बांट दिया जाए और उसे जल्द से जल्द बांट दिया जाए। जिस तरह ईद में भी खैरात-जकात के जरिए समाज के गरीब तबके की मदद के लिए कहा गया है, ठीक उसी तरह की व्यवस्था बकरीद में भी लागू है। यह कोई परंपरा नहीं है, जिसका त्यौहार में पालन किया जाना जरूरी है, यह दस्तावेजी सबूत है, जिसमें साफ तौर पर इस्लाम की फिलासफी छिपी है।
इस्लाम की बुनियाद जिन वजहों से रखी गई थी, यह दोनों त्योहार उसकी अहम कड़ी हैं। लेकिन यह सारी बात उसी बात में आकर मिलती है कि किसी के लिए या समाज के अन्य तबके के लिए कुछ करने से पहले हमें खुद में कुरबानी का जज्बा लाना पड़ेगा, कुछ त्यागना पड़ेगा, अपने अहम को ताक पर रखना होगा। हम लोग बातें चाहे जितनी भी लंबी-चौड़ी कर लें लेकिन हम कुछ भी त्यागने को तैयार नहीं हैं। न अपना अहम और न अपनी सोच।
बहरहाल, कुरबानी एक दर्शन है, यह आप पर है कि आप उसे किस तरह लें या स्वीकार करें। चाहे आप मुसलमान हैं या गैर मुसलमान अगर आप किसी भी तरह की कुरबानी देना ही चाहते हैं तो आपको कौन रोक सकता है लेकिन उसके लिए अंदर से जो ताकत होनी चाहिए, उसे पैदा करने की ज्यादा जरूरत है।
(साभार - नवभारत टाइम्स)
(और अंत में बकरीद के अवसर पर हार्दिक मुबारकबाद)
टिप्पणियाँ
yeh kaisi kurbani??????