आखिर अमेरिका के लोग क्यों नहीं चाहते हैं ईरान पर हमला
हालांकि ओबामा सरकार इस जनमत के खिलाफ है
विदेशी पत्रिकाओं और आनलाइन साइटों के राजनीतिक लेखों पर भारतीय नाममात्र को टिप्पणी करते मिलेंगे। यदा-कदा कोई दक्षिण भारतीय नाम ही देखने को मिलता है। उत्तर भारत के लोगों के नाम तो तलाशने पर भी नहीं मिलते। इधर जब से ईरान (Iran)को अमेरिका (US) और इस्राइल (Israel) चौतरफा घेर रहे हैं (Operation Infinite Justice), तमाम विदेशी अखबारों, पत्रिकाओं और आनलाइन साइटों पर ईरान विरोधी लेखों की बाढ़ आ गई है।
इन लेखों का मकसद है कि ईरान को लेकर हर तरह की दहशत फैलाई जाए। (Anglo-American aggression) अमेरिका जैसा देश ऐसे मामलों में किस तरह मीडिया का इस्तेमाल करता है, यह इसका जीता जागता सबूत है। कुछ लेखों पर मैंने टिप्पणियां कीं और संभावित युद्ध का पूरी तरह से विरोध किया। कुछ जगहों पर मेरी टिप्पणियों को छपने दिया गया और कुछ जगहों पर रोक लगा दी गई और कुछ जगहों पर सिर्फ एन इंडियन रीडर लिखकर काम चला लिया गया लेकिन आप यह जानकर हैरान होंगे कि उन टिप्पणियों पर अमेरिकी लोगों ने सकारात्मक प्रतिक्रियाएं दीं।
उनमें से तमाम लोगों ने ओबामा सरकार की ईरान नीति की निंदा की। कुछ ने कहा जब बात अमेरिकी अर्थव्यवस्था को संभालने की होनी चाहिए, जब बात अमेरिकी बेरोजगारों के लिए नए अवसर पैदा करने की होनी चाहिए तो उस समय ईरान से युद्ध की बात की जा रही है। कुछ टिप्पणियों में कहा गया कि अमेरिका ने अपनी विदेश नीति यहूदियों (इस्राइली) के पास गिरवी रख दी है। कुछ ने कहा कि यह सब ज्यादा से ज्यादा हथियार बेचने और तेल का जबरन संकट खड़ा करने की साजिश के तहत हो रहा है। कुछ ने याद दिलाया कि कैसे इराक में जनसंहार के खतरनाक हथियारों की बात करके उस देश पर अमेरिका ने हमला बोला और उसके संसाधनों पर कब्जा किया। बुश की इस खतरनाक रणनीति की कीमत अमेरिकी फौज को चुकानी पड़ी। उसके कितने ही फौजी वहां विपरीत परिस्थितियों में मारे गए...
यह साफ है कि बराक ओबामा (Obama), सीआईए (CIA), पेंटागन (Pentagon), मोस्साद (Mossad)...इस्राइल यह सारे अमेरिकी जनमानस के खिलाफ चल रहे हैं। ये लोग ऐसे मकसद को हासिल करना चाहते हैं जो नापाक तो है ही, आम अमेरिकी भी उसके खिलाफ है।
अब भारत का हाल सुनिए। बहुत कम लोगों की दिलचस्पी ईरान-अमेरिका के संभावित युद्ध में है। हालांकि यह बुरा नहीं है लेकिन अगर यह युद्ध हुआ तो भारत की जनता इस मामले में बिना पड़े ही पिसेगी। तेल का संकट खड़ा होगा तो यहां महंगाई को आसमान पर पहुंचना ही है। नौकरियों पर असर पड़ेगा, भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट आएगी।
पर कोई भी राजनीतिक दल या अन्य संगठन सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाते नहीं दिखते कि सरकार खुलकर अमेरिका का विरोध करे। तेल के आयात के संबंध में सरकार का एक बयान आया लेकिन उसके बाद सरकार की तरफ से अमेरिकी राजनयिकों के सामने सफाई भी पेश की गई। इससे लगता है एशिया महाद्वीप की तमाम हलचलों से जैसे भारत को कोई खास सरोकार नहीं हो।
ब्रिटेन के जाने-माने अखबार द गार्डियन में छपे एंड्रयू मुर्रे के एक लेख को पेश कर रहा हूं जिसमें साफ कहा गया है कि ईरान पर अमेरिकी या इस्राइली हमला क्यों रोका जाना जरूरी है। एंड्र्यू मुर्रे का यह लेख उन लाखों-करोड़ों अमेरिकी-ब्रिटिश लोगों की नुमाइंदगी करता है जो ऐसे खून-खराबे के खिलाफ हैं। इस लेख पर गार्डियन में जो टिप्पणियां आई थीं, सारी पढ़ी जाने लायक हैं। अधिकांश लोग इस हमले के खिलाफ हैं।
An Attack on Iran Must be Stopped
As the US and UK gear up for another senseless war in the Middle East, one thing is certain – it will end in disaster
By Andrew Murray
The Anglo-American aggression addicts haven't kicked the habit. The team that brought you shock and awe and Operation Infinite Justice is gearing up for yet another crack at winning a senseless war in the Middle East.
This time the target is Iran, the pretence the regime's imminent possession of nuclear weapons. But some things will remain the same – it will lead to slaughter and end in disaster.
A brief recap of the Anglo-American "war on terror" in the Middle East, 2001 to date: Afghanistan was occupied to "eliminate terrorism" but, many thousands of dead later, terror has spread to Pakistan and beyond, leaving Kabul with the most corrupt government on earth.
Iraq was invaded to disarm Saddam of weapons he didn't have. US troops have finally withdrawn, leaving millions dead or displaced and the country broken in dysfunctional sectarian misery.
Libya, far from being the war that went well, was bombed to "protect civilians" with the result that 30,000 died and thousands more remain in prison reportedly being tortured by the regime Nato installed.
"They couldn't be so crazy" is therefore not an unreasonable response to the speculation about yet another Middle East war. But here we go again.
The US national intelligence director James Clapper's unsubstantiated claim that Iran is preparing attacks in the US itself – without even a 45-minute warning, apparently – is one sign among many that the familiar spook-media propaganda coalition is in overdrive again, selling another cock-eyed conflict.
An attack against Iran will not stop the regime acquiring nuclear weapons if it wishes to do so. It can only make it more likely that it will decide to acquire them, and will eventually surely succeed.
Along the way thousands more will die, conflict will extend across the region, oil supplies will be disrupted and the Iranian regime will be strengthened domestically.
Iran is not a liberal democracy. That is an issue which, as the Arab spring shows, is more likely to be addressed by the Iranian people themselves than by a foreign attack sponsored by Saudi Arabia, most recently the butchers of Bahraini democracy.
The central case for attacking Iran is animated by the determination that Washington and its allies have the right to dominate the Middle East come what may.
That is the argument offered by Matthew Kroenig, until six months ago the Pentagon's special adviser on Iran, in an article in Foreign Affairs baldly titled Time to Attack Iran: "A nuclear-armed Iran would immediately limit US freedom of action in the Middle East … Iran could threaten any US political or military initiative in the Middle East with nuclear war, forcing Washington to think twice before acting in the region."
The pragmatic case against war is overwhelming. But the principled case is even stronger. Britain and the US have launched a series of wars across the Middle East for no better purpose than maintaining their control over a region whose peoples they dare not allow to be self-governing and independent.
Can an attack be stopped? If Britain can be detached that would help derail the war drive. Five British warships sail alongside the US navy in the Gulf, and we can be sure that Diego Garcia will be a base for the bombing onslaught – it was ethnically cleansed by the Wilson government for precisely this sort of purpose.
William Hague has made plain government support for US policy so far. The delight of the Commons exchanges on the issue was Jack Straw, whose only contribution to diplomacy was marketing the novel concept of the "unreasonable UN veto" at the time of the Iraq aggression, insisting that Britain should not act without clear UN authority now.
Millions of British people peacefully and democratically opposed the Iraq war and were ignored by Tony Blair. He got his war but lost his political momentum, reputation and job, in that order, as a result.
Today's anti-war campaign must learn from the Occupy movement and UK Uncut, as well as breaking that bipartisan parliamentary consensus for war which proved so calamitous in 2003, if the cycle of war is to end. A nationwide day of action on Saturday 11 February against attacking Iran is the start.
(courtesy : The Guardian)
टिप्पणियाँ
अमेरिका से आपको मिसे सकारात्मक रिस्पोन्स पर हैरत नहीं होनी चाहिए। एक तरफ तो अमेरिकन हर तरह की दादागिरी को अपना अधिकार समझते हैं, वहीं अमेरिका में एक बड़ा वर्ग अमेरिका की लोकतंत्र विरोधी कारगुजारियों का विरोध भी करता रहा है। नॉम चोमस्की जैसे मुखर विचारकों के लिए वहां के लोगों में स्पेस है। इराक पर बर्बर हमले के दौरान भी अमेरिका में युद्धविरोधी प्रदर्शन हुए थे। हमारे यहां तो ऐसे किसी भी प्रयास को देशद्रोह करार दिया जाता है। आपको याद होगा, इराक पर हमले को विहिप, संघ जैसे संगठन उत्सव की तरह देख रहे थे। अपना मीडिया भी यही कर रहा था। कमाल की बात यह है कि नॉम चोमस्की भारत आए थे तो संघियों ने उनका यह कहकर विरोध किया था कि वे देशद्रोही हैं और अपने देश की नीतियों का विरोध करते हैं।