सब कुछ होते हुए भी नाखुश हैं वो....

छत्तीसगढ़ की आवाज....

सुधीर तंबोली "आज़ाद"अखिल भारतीय पत्रकार एवं संपादक एशोसिएशन के छत्तीसगढ़ के प्रदेश महासचिव हैं। उन्होंने हिंदीवाणी ब्लॉग पर लिखने की इच्छा जताई है। उन्होंने एक लेख प्रेषित भी किया है, जिसे बिना किसी संपादन के यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस मौके पर मैं हिंदीवाणी के सभी पाठकों, मित्रों व शुभचिंतकों को आमंत्रित करता हूं कि अगर वे इस पर कुछ लिखना चाहते हैं तो उनका स्वागत है। मुझे अपना लेख ईमेल करें। - यूसुफ किरमानी

सब कुछ होते हुए भी नाखुश हैं वो....
                                                             -सुधीर तंबोली "आज़ाद"

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने शिक्षा कर्मियों के तीनो वर्गो को क्रमंश वर्ग 3 का 2000 , वर्ग 2 का  3000 , वर्ग 1 का  4000 रुपये की मासिक सौगात दी। जानकार ख़ुशी हुई कि डॉ. साहब ने सभी का ख्याल रखते हुए ये निर्णय लिया।

इस सूचना को पाकर मैंने अपने शिक्षाकर्मी मित्रो को फ़ोन कर के बधाई दी उन्होंने धन्यवाद तो दिया और आगे कहा की जो और अपेक्षाए थी सरकार उनमे खरी नही उतरी झुनझुना थमा दिया बस.!

तब से मेरा दिमाग आम इन्सान पर आकर ठिठक गया जैसे की मैं अभी खुद अभी बेरोजगार हूं, आजीविका पे शंशय बरकरार है। महीने के 2000 कहां से आएंगे, तय नहीं है और सरकारी नौकरी पे काबिज लोगो के लिए  2000 रुपये  अतरिक्त भी मात्र  झुनझुना है। सरकारी नौकरी सरकारी लाभ हर तरह की सरकारी सुविधाय प्राप्त होने के बाद भी नाखुश मेरे शिक्षाकर्मी मित्र और उसमे भी साहब लोग ये कहते है की हम भविष्य तैयार करते है हमारी हर मांग को सरकार को एक बार में स्वीकार कर लेना चाहिए।

और दूसरी तरफ हर सुविधा से महोताज़ गरीब जो रोज़ रोटी की चिंता में घर से निकलता है एक समय का खाना भी मिल पाएगा की नहीं, सोचता है तबियत गर बिगड़ जाये तो दवा ले आये तो तो भूखे  पेट सोने की मज़बूरी हो जाती है ऐसे में किसी दिन कल ही तरह बाज़ार बंद और रोज़ी रोटी कमाने का साधन भी नदारद। अनिश्चय भविष्य कोई पूछ परख नहीं और जिनके पास ये समस्या नहीं है वो और अपने सुविधाओ में बढ़ोतरी के लिए आन्दोलन धरना प्रदर्शन कर रहे है। सब कुछ होने और मिलने के बाद भी नाखुश...

क्या वो उन लोगो के बारे में एक बार भी सोचते है की खुले आसमान के नीचे कमाने खाने वाले., मेहनत के बल पर रोज़ी पकाने वाले कैसे अपना घर-परिवार चलाते होंगे.?

और वो गरीब तो अपने हक के लिए आंदोलन / धरना प्रदर्शन का रास्ता भी अख्तियार नहीं कर सकते, क्योंकि ये काम स्वार्थ की राजनीती करने वाले नेताओ ने ले रखा है गरीबो के हक के लिए वो आवाज़ बुलंद करते है पर जब और कोई मुद्दा नज़र नही आता तब।

गरीब अपनी रोज़ी--रोटी छोड़कर आंदोलन करने भी नहीं बैठ सकता क्योंकि वो बैठ जाएगा तो उसके परिवार को कौन खिलायेगा..

कौन कब समझेगा आमआदमी की तकलीफ को जो वो बयान भी नहीं कर सकता,
अपने दर्द को, अपनी जरूरतों को,
मशगूल है अपने रोज़ी की चिंता में जी रहा है अनिश्चित आने वाले समय की राह ताकते...


टिप्पणियाँ

Ek ziddi dhun ने कहा…
यही अंतर्विरोध और विरोधाभास मधय्वर्ग की खासियत हैं। बैंक आदि के बड़े वेतनभोगी कर्मचारियों को आपने लाल झंडे के तले नारे लगाते देखा होगा। इनमें से बेहद कम होते थे जो वाकई जनआंदोलनों में, जनता के दुख-दर्द के लिए लड़ने में यकीन रखते थे। बस अपने व्यक्तिगत हितों का खयाल उन्हें इन झंड़ों के नीचे नारे लगाने को मजबूर कर देते था। यही कारण था कि ये लोग नई आर्थिक नीतियों के दौर में बड़े आंदोलन से कट लिए। हालांकि जिन झंड़ों के तले उन्होंने खड़े होकर व्यक्तिगत हित बटोरे थे, उनकी बदौलत दुनिया भर में कामगारों के लिए बेहतर स्थितियां पैदा हुई थीं।
Minoo Bhagia ने कहा…
bahut dinon baad aapki rachna padhi kirmani ji , behad khushi hui
हिन्दीवाणी ने कहा…
मीनू जी, यह मेरी पोस्ट नहीं है। यह छत्तीसगढ़ के पत्रकार सुधीर आजाद की पोस्ट है। मैंने उनका नाम शुरू में ही लिख दिया है। बहरहाल, ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया। कम से कम इसी बहाने, आप रूबरू हो जाती हैं।

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