केजरीवाल को माफ कर दो गजेंद्र भाई
गजेंद्र सिंह ने क्या वाकई फसल चौपट होने पर खुदकुशी की...यह
सवाल कल से मन में कौंध रहा था। क्योंकि मैंने जब टीवी फुटेज और बाद में
फोटोग्राफर मित्र सुनील कटारिया द्वारा घटनास्थल से खींचे गए फोटो देखे तो यह शंका
बढ़ गई कि इस खुदकुशी का संबंध फसल चौपट होने से नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी की राजनीति
से मोह भंग होने से जुड़ा मामला है। राजस्थान से आई आज कुछ मीडिया रपटों ने मेरे
इस शक की पुष्टि कर दी है।
गजेंद्र सिंह ने तीन पार्टियों भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस,
समाजवादी पार्टी और अब आम आदमी पार्टी में अपनी मंजिल तलाश की। उन्होंने विधानसभा
चुनाव सपा के टिकट पर लड़ा। यह शख्स सपा का जिला अध्यक्ष भी रहा। हिंदुस्तान
टाइम्स ने दौसा में गजेंद्र सिंह के घर अपने रिपोर्टर को भेजकर पूरी जानकारी
मंगाई। जिसे पढ़ने और कल शाम को फुटेज और फोटो देखने के बाद मेरा नजरिया इस
खुदकुशी को लेकर बदला। मैं आपको कुछ कारण गिनाता हूं जो उनके परिवार के हवाले से
मीडिया में आए हैं –
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उनके परिवार के पास खेती
की अच्छी खासी जमीन है लेकिन उनके पिता अभी भी सारे फैसले लेते हैं क्योंकि उनका
यह लड़का गजेंद्र सिंह राजनीति में घुस चुका था। इसके बच्चों को भी वही पाल रहे
थे।
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गजेंद्र ने अपनी राजनीति
की शुरुआती भाजपा से की। 2003 में उन्होंने भाजपा का टिकट मांगा...जैसा कि होता
आया है इतने छोटे कार्यकर्ता को भाजपा में कहां टिकट मिलता...वह महत्वाकांक्षी
थे...भाजपा छोड़ दी। 2003 में ही उन्होंने सपा का टिकट मांगा, राजस्थान में जमीन
तलाश रही सपा ने उनको टिकट दे दिया। वह चुनाव वह भाजपा की अलका सिंह से हार गए।
लेकिन सपा में वह 2013 तक रहे यानी 10 साल और इस दौरान राज्य कार्यकारिणी के सदस्य
तक पहुंचे। वह राजस्थानी पगड़ी का छोटा सा कारोबार भी करते थे और जिससे उनको कुछ
कमाई हो जाती थी।
-इस शख्स को राजनीतिक कीड़ा इतनी बुरी तरह काट रहा था कि इसने
2013 में कांग्रेस से टिकट मांगा, जो नहीं मिला। इसके बाद ये साहब आम आदमी पार्टी
में आ गए। याद कीजिए 2013 का वो मंजर जब अन्ना का आंदोलन चरम पर था। ....कुछ याद
आया।
जमीन से जुड़े एक आम राजनीतिक शख्स गजेंद्र सिंह को लगा कि यही
वह पार्टी है जो उसके अरमानों को पूरा कर सकती है, जो राजनीति को भ्रष्टाचार से
मुक्त कर सकती है। कल शाम को जब गजेंद्र आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान पेड़ पर
चढ़े तो उनके हाथ में झाड़ू था। यानि इसमें कोई शक नहीं कि यह शख्स आम आदमी पार्टी
का ही वर्कर था और जो मरते दम तक अपनी निष्ठा इस तथाकथित परिवर्तन की राजनीति करने
वालों के साथ बनाए हुए थे।
2013 में गजेंद्र सिंह अकेले ही अन्ना आंदोलन और केजरीवाल के
चंगुल में नहीं फंसे थे। न जाने कितने...तब अन्ना आंदोलन से अपनी आस जगा बैठे।
इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन आंदोलन के दौरान केजरीवाल कुछ और फैसला ले चुके
थे। उन्होंने अन्ना का भरपूर इस्तेमाल करने के बाद उन्हें निकाल फेंका। उस समय
लोगों में पैदा हुए गुस्से को इस शख्स ने कैश करने के लिए राजनीतिक पार्टी बना दी।
इस पार्टी में उसकी नेतागीरी को जब योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और प्रो. आनंद
कुमार से चुनौती मिली तो उसने उनको भी निकाल बाहर किया। ...ऐसी राजनीति करने वालों
के बीच गजेंद्र सिंह जैसे कार्यकर्ता को अपना भविष्य कहां मिलना था। उसने इतने साल
राजनीति में जो बर्बाद किए थे, घर वाले उसका ताना अलग मार रहे थे।
...गजेंद्र को खुदकुशी के अलावा कोई रास्ता नजर नहीं आया। लेकिन
मैं गजेंद्र सिंह की इस हरकत के खिलाफ हूं। वह लड़ने की बजाय डरकर भागे...उन्हें
संघर्ष जारी रखना चाहिए था...उन्हें आम आदमी पार्टी के लफ्फाज नेताओं को बेनकाब
करना चाहिए था...लेकिन वह मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।...अगर घर पर पिता या अन्य
कोई ताना मारता था तो उन्हें भी समझाया जा सकता था...लेकिन इस तरह मौत को गले
लगाने का मतलब यह हुआ कि आप अंदर से मजबूत थे ही नहीं।
...बाबू राजनीति करने के लिए अंदर से भी मजबूत होना पड़ता है।
...शरीर की खाल मोटी करनी पड़ती है जो मक्कारी, फरेब, इस्तेमाल करके कूड़ेदान में
फेंक देने से आती है...अन्यथा लोग पप्पू बना देते हैं।...अन्ना बना देते हैं...
...राहुल गांधी से सीख सकते थे।...दो महीने की छुट्टियां बिताने
के बाद लौटा यह शख्स भी किसानों के हित की बात कर रहा है। राहुल को क्या पड़ी है
जो वह अपने खिलाफ जा रही मौजूदा परिस्थितयों से डर कर खुदकुशी कर ले...लोगों ने
राहुल के खिलाफ न जाने कितने चुटकुले बनाए...कार्टून बनाए...गलत और घिनौना प्रचार
अभियान चला लेकिन राहुल ने तो कभी नहीं सोचा कि अब दुनिया खत्म है और मुझे भी जीवन
का अंत कर लेना चाहिए...अरे आडवाणी जी से सीखो...जीते जी बेचारे को ठिकाने लगा
दिया...जिसने पूरी फसल बोई, खाद-पानी से खेत को सींचा और फसल काटने के वक्त कुछ
गुजराती सौदागर आ गए और पूरी फसल खरीद ले गए।...मायूस आडवाणी अब राष्ट्रपति बनने
का ख्वाब देख रहे हैं...भागते भूत की लंगोटी भली...लेकिन भैया गुजराती सौदागरों का
क्या भरोसा...लेकिन क्या आडवाणी इस सारे गम में मौत को गले लगा लें...कतई नहीं।
मरे उनके दुश्मन (इस कहावत ही समझें, असली दुश्मन जिंदा रहने चाहिए ताकि लड़ने का
हौसला बना रहे)...
गजेंद्र जैसे लाखों कार्यकर्ता तमाम राजनीतिक दलों में हैं जो
इस्तेमाल होने के लिए ही बने हैं। वे बेचारे फसल तैयार करते हैं और फसल कटने के
समय उसे कोई और काट ले जाता है। ...स्वाभाविक है कि ऐसी राजनीति से छोटे
कार्यकर्ताओं का मोह भंग होता है लेकिन चूंकि बीच-बीच में उन्हें भ्रष्टाचार के
सहारे दाल-रोटी जुटाने का मौका भी मिल जाता है तो वे जुटे रहते हैं। ज्यादा कमाई
बढ़ती है तो कद भी बढ़ जाता है और फिर भ्रष्टाचार की गाड़ी पर सवार होकर बढ़ता चला
जाता है...तो क्या करें हम...सवाल वाजिब है। ...इंतजार कीजिए...वह सुबह जरूर आएगी।
लेकिन हालात से डरकर भागने की जरूरत नहीं है...
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