मोहर्रम और आज का मुसलमान
इस बार मोहर्रम और दशहरा साथ-साथ पड़े।
यानी बुराई के खिलाफ दो पर्व। संस्कृतियों का अंतर होने के बावजूद दोनों पर्वों का
मकसद एक ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि मोहर्रम बुराई पर अच्छाई की जीत के बावजूद
दुख का प्रतीक है, जबकि दशहरा बुराई के प्रतीक रावण को नेस्तोनाबूद किए जाने की
वजह से खुशी का प्रतीक है।
कुछ साल पहले ईद और दीवाली आसपास
पड़े थे। उसकी सबसे ज्यादा खुशी बाजार ने मनाई थी। कनॉट प्लेस में मेरी जान पहचान
वाले एक दुकानदार ने कहा था कि काश, ये त्यौहार हमेशा आसपास पड़ते। मैंने उसकी वजह
पूछी तो उसने कहा कि पता नहीं क्यों अच्छा लगता है। बिजनेस तो अच्छा होता ही है
लेकिन देश भी एक ही रंग में नजर आता है। ...मैंने दोनों त्यौहारों पर इतना कमा
लिया है, जितना मैं सालभर भी नहीं कमा पाता।
इस बार दोनों पर्व इस बार ऐसे वक्त
में साथ-साथ आए जब पूरी दुनिया हर तरह की बुराई से लड़ने के लिए नया औजार खोज रही
है। पुराने कारगर औजार पर या तो उसका यकीन नहीं है या उसकी नजर नहीं है। दशहरा और
मोहर्रम धार्मिक होने के बावजूद सांस्कृतिक रंग से सराबोर हैं। दशहरा पर लगने वाले
मेलों में जाइए तो आपको वहां हर समुदाय के लोग मिलेंगे।
इस्लाम में सलाफी यानी वहाबी
विचारधारा की समस्या से जूझ रहे सऊदी अरब समेत कई देशों में मोहर्रम पर पाबंदी है।
इसके ठीक उलट भारत, अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, स्वीडन, रूस जैसे गैर इस्लामी देशों
में मोहर्रम वहां की संस्कृति का हिस्सा बन गया है। पाकिस्तान में मोहर्रम मनाने
वालों की टारगेट किलिंग के बावजूद वहां अलम-ताजिए का जुलूस, मजलिसों का सिलसिला
नहीं रुका। बलूचिस्तान में मोहर्रम करने वाले हजारा समुदाय बर्रबादी के कगार पर है
लेकिन उसने मोहर्रम करना नहीं छोड़ा। भारत की संस्कृति में मोहर्रम के रचने बसने
के ऐतिहासिक कारण रहे हैं।
मोहर्रम हमें बताता है कि पैगंबर
हजरत मोहम्मद साहब जिस दीन यानी जिस मजहब को मुसलमानों के लिए छोड़कर गए थे, उसे
तत्कालीन शासक वर्ग ने किस तरह बर्बाद कर दिया था, किस तरह उसके उसूलों को ताक पर
रख दिया गया था।
उन उसूलों और मूल्यों को फिर से स्थापित
करने के लिए जब शासक वर्ग को पैगंबर के नवासे इमाम हुसैन से चुनौती मिली तो उसने
पैंतरा बदला और संदेश भेजा कि आप मेरी अधीनता स्वीकार करें। हुसैन ने प्रस्ताव को
नामंजूर कर दिया। शासक ने माहौल बिगाड़ा तो हुसैन ने अपने 72 लोगों के दल के साथ
उस मदीना शहर को छोड़ दिया, जो उनके नाना यानी पैगंबर का घर था। हुसैन ने वहां से
चलते वक्त इच्छा जताई थी कि वो भारत की ओर कूच जाएंगे, जहां उस समय की मान्यता के
अनुसार बहुत ही सहिष्णु लोग रहते हैं। यानी धार्मिक रूप से सहिष्णु भारत की छवि
1400 साल पहले भी थी। लेकिन अगर सहिष्णु नहीं था तो वहां का शासक वर्ग।
इराक में कर्बला नामक जगह पर हुसैन
को रोक लिया गया। उनका खाना-पानी रोक दिया गया। यजीद की हजारों लोगों की सेना ने
72 लोगों को युद्ध के लिए ललकारा। हुसैन को पहले से ही आदेश था कि इस्लाम को बचाने
के लिए उन्हें अपने पूरे कुनबे, जिसमें उनका छह महीने का छोटा बेटा भी शामिल था,
की कुर्बानी देनी होगी।
मुंशी प्रेमचंद ने कर्बला में उस
वक्त का मंजर बताया है कि एक तरफ इस्लाम के पैगंबर का अपना परिवार शहादत के लिए
तैयार था तो दूसरी तरफ वो मुसलमान उन्हें शहीद करने के लिए तलवार और तीर कमान चला
रहा था, जो कल तक पैगंबर का बोसा लेता था, उनके लिए मर मिटने की कसमें खाता था। बहरहाल,
कर्बला हुई, यजीद वो युद्ध जीतने के बावजूद हार गया। विश्व इतिहास में इस सच्ची
घटना को मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए शहादत देने वाले हुसैन की विजय के रूप में
ही दर्ज किया गया है।
अब इस्लामिक देशों में हो रही घटनाओं
पर नजर डालिए। आपको इन देशों में पैगंबर का इस्लाम कहीं नजर आता है। हद तो यह है
कि मुसलमानों का एक गिरोह जो खुद को खलीफा भी बताता है, नया इस्लाम लेकर आ गया है।
पता ये चलता है कि खुद को मक्का-मदीना का असली पैरोकार बताने वाले नए इस्लाम को
हवा देने में हर पैंतरेबाजी का इस्तेमाल कर रहे हैं। आज इस्लाम का सबसे बड़ा
दुश्मन यही गिरोह है। 1400 साल पहले पैगंबर के नवासे ने जिन मुसलमानों के कारण
मदीना छोड़ा था, आज उन्हीं मुसलमानों के स्वयंभू पैरोकार फिर से वही हालात पैदा
करते दिखाई दे रहे हैं। इस्लाम एक है, कुरान एक है लेकिन इस्लाम के नए पैरोकारों
और स्वयंभू खलीफा ने हालात को बदतर बना दिया है। ऐसे में हम लोग पैगंबर और उनके
परिवार की कुर्बानी से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
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