एक बेबस मां और हमारी एक्सक्लूसिव खबर
...उम्मीद है कि जेएनयू के गायब छात्र नजीब की बेबस मां को सड़क पर घसीटे
जाने और हिरासत में लिए जाने की तस्वीर आप भूले नहीं होंगे।...लेकिन अब तमाशा
देखिए....जो दिल्ली पुलिस नजीब को 26 दिन से नहीं तलाश कर पाई अब वो नजीब को
इमोशनली डिस्टर्ब बता रही है। यानी वो अंदर ही अंदर ही किसी बात को लेकर परेशान
था, इसलिए खुद ही गायब हो गया। ...यह महान खबर दिल्ली पुलिस के सूत्रों के हवाले
से कुछ अखबारों ने छापी है। ऐसे भी कह सकते हैं कि इस मामले में चारों तरफ से
फजीहत की शिकार पुलिस ने यह खबर अखबारों में प्लांट करा दी।
एक्सक्लूसिव की तलाश
में भटकने वाले रिपोर्टर साथियों ने तह में जाने की कोशिश नहीं की कि इस खबर का
मकसद क्या हो सकता है। दिल्ली पुलिस उन तथ्यों पर पर्दा डाल रही है कि नजीब के
हॉस्टल में जाकर जिन स्टूडेंट्स या तत्वों ने मारपीट की थी, वो कौन लोग थे। नजीब
उस घटना के फौरन बाद से गायब है।
इस मामले में सवाल न पूछने वाले पत्रकार मित्र लगातार गलतियां कर रहे
हैं। एक दिन पहले दिल्ली पुलिस खबर छपवाती है कि अब वो नजीब को तलाशने के लिए
विदेशों की तर्ज पर सारी घटनाओं को रिकंस्ट्रक्ट करेगी, नजीब के साथियों से
जानकारी लेगी कि कहीं वो इमोशनली डिस्टर्ब तो नहीं था।...यह एक्सक्लूसिव खबर
अखबारों में छप जाती है, टीवी पर चल जाती है। अगले दिन ही इसका अगला भाग आ जाता है
कि हां, वो इमोशनली डिस्टर्ब था। अगर कोई पत्रकार नजीब को खोजने के काम पर या
पुलिस से सवाल पूछने के काम पर नहीं जुटना चाहता है तो कम से कम वो पुलिस की फर्जी
और काल्पनिक सूचनाओं को खबर तो न बनाए।
मीडिया ने यही काम भोपाल जेल से कथित तौर पर भागने वाले सिमी के
आरोपियों के मामले में किया था। सभी को आतंकी बता डाला। कुछ पत्रकारों ने अपने
फेसबुक स्टेटस और ट्विटर पर इस एनकाउंटर का स्वागत कर डाला। राष्ट्रभक्ति का झंडा
बुलंद करने वाले चैनलों तक ने उस एनकाउंटर का विडियो सामने आने के बाद अपना रुख
बदला। लेकिन नहीं बदले तो राजधानी दिल्ली में बैठे वे पत्रकार जो अनजाने में एक
राजनीतिक दल के साइबर एजेंट बनकर रह गए हैं। एनडीटीवी इंडिया चैनल के मामले से यह
साफ हो गया कि एक राजनीतिक दल और उसकी सरकार की मंशा क्या है...
क्या वाकई देश गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है...क्या वाकई आपातकाल
से भी बुरे हालात हैं...
एक घटना खत्म नहीं होती कि दूसरे की जमीन तैयार हो जाती है...एक फितना
शांत नहीं होता है कि दूसरा सिर उठा लेता है। लीजिए फिर एक और खबर आ पहुंची। छत्तीसगढ़
में दिल्ली की दो प्रोफेसरों नंदिनी सुंदर (दिल्ली यूनिवर्सिटी) और अर्चना प्रसाद
(जेएनयू) समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ रायपुर में हत्या का केस दर्ज कर
लिया गया है। इनके साथ अज्ञात माओवादियों को भी जोड़ दिया जाता है कि इन सारे
लोगों ने मिलकर सुकमा जिले में एक आदिवासी की हत्या कर दी है। लेकिन असलियत क्या
है। नंदिनी सुंदर ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के संघर्ष पर एक किताब लिखी है कि
किस तरह उन्हें उनकी जमीन, उनके अधिकार से बेदखल कर मारा जा रहा है, उजाड़ा जा रहा
है। अर्चना प्रसाद वहां दस साल से काम कर रही हैं। इन सारे लोगों ने पिछले पांच
महीने से छत्तीसगढ़ की धरती पर कदम तक नहीं ऱखा लेकिन 4 नवंबर को एक आदिवासी की
कथित हत्या में इन्हें नामजद कर दिया गया। ...सरकार और पुलिस इसी चालाकी से उन
तमाम लोगों को नियंत्रित करती है जो आदिवासियों, किसानों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों,
दलितों, स्टूडेंट्स की आवाज बनते हैं। पिछले दो साल से ऐसी घटनाओं की बाढ़ आई हुई
है। देशद्रोही बता डालो, हत्यारा बता डालो, आतंकी बता डालो...जेल भेज दो, अखबार
बंद करा दो, चैनल बंद करा दो।
छत्तीसगढ़ की जिस कथित हत्या में इन दो प्रोफेसरों व अन्य मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं का नाम पुलिस में डाला गया है वो उन सारे मानवाधिकार संगठनों और
कार्यकर्ताओं के लिए एक चुनौती है। जिस तरह एनडीटीवी के मामले में तमाम पत्रकारों
ने समझदारी दिखाते हुए एकजुटता प्रदर्शित की और सरकार को अपना फैसला रोकना पड़ा।
वही चुनौती फिर से दरपेश है। एऩडीटीवी के पास तो एक मंच भी है अपनी बात कहने का
लेकिन इन लोगों के पास नहीं है। मानवाधिकार संगठनों, कार्यकर्ताओं, अल्पसंख्यकों,
किसानों, मजदूरों को सड़क पर आकर अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।
अब क्यों शहीद हो रहे हैं हमारे सैनिक
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...उम्मीद है कि पाकिस्तान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक को भी आप नहीं
भूले होंगे। तब चिल्लाकर कुछ लोगों ने बताया था कि देश ने बदला ले लिया...ऐसा सबक
सिखाया कि दुश्मन अब भारत की ओर आंख उठाकर देख भी नहीं सकेगा।...लेकिन हुआ
क्या...सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर हमारे सैनिक लगातार शहीद हो रहे हैं। आए
दिन सीज फायर टूटने की सामान्य सी खबर बताई जाती है और धीरे से उसी में यह भी जोड़
दिया जाता है कि हमारा एक सैनिक भी शहीद हो गया। शहीद का शव घर आता है, सेना के
कुछ अधिकारी, फोटो खिंचवाने वाले नेता और मंत्री आते हैं, तिरंगे में अंतिम
संस्कार होता है, सैल्यूट होता है...लोग घरों को वापस लौट आते हैं। पीछे रह जाता
है उस सैनिक की विधवा, उसके बच्चे, बूढ़े मां-बाप। ....दानिश खान जैसे शहीद को तो
यह भी नसीब नहीं होता, उसे सलामी देने न कोई मंत्री आता है और न मीडिया का जमावड़ा
होता है।
कुछ अन्य घटनाओं का जिक्र इस छोटे से लेख में मुमकिन नहीं है लेकिन
अगर कोई खुद को इंसान मानता है और उसमें जरा भी इंसानियत बची है, उसे उन लोगों का
सहारा बनना पड़ेगा, जिनके सरोकारों व सवालों को मीडिया लगातार नजरन्दाज कर रहा है।
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