आरती तिवारी की चार कविताएं
आरती तिवारी मध्य प्रदेश के मंदसौर से हैं। हिंदीवाणी पर उनकी कविताएं पहली बार पेश की जा रही हैं। आरती किसी परिचय की मोहताज नहीं है। तमाम जानी-मानी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी असंख्य रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रगतिशील लेखक संघ से भी वह जुड़ी हुई हैं।...हालांकि ये कविताएं हिंदीवाणी ब्लॉग के तेवर के थोड़ा सा विपरीत हैं...लेकिन उम्मीद है कि पाठकों को यह बदलाव पसंद आएगा...
तेरे-मेरे वो पल
हम मिले क्षितिज पे
अपना अपना आकाश
हमने सहेज लिया
जब पत्तियां थीं, फूल थे
पर सिर्फ मैं नही था
तुम्हारी नोटबुक में
चकित, विस्मित दरीचों की ओट से
पढ़ता तुम्हारा लिखा
इतिहास बनाती तुम
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
जो कहीं न था नोटबुक में
उसे ही पढ़ने की जिद
...कभी यूं भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी
मेरी ही आवाज़ की
नदारद था तुम्हारा उच्चारा
मेरा नाम
ऐसी कैसी कोयल, कूकने को
राजी न थी जो
मुझे लगा तुम्हारा अनिंद्य सौंदर्य
रुग्ण हो जैसे
जैसे पानी में उतरी परछाईं
जो डूब गई हो
मुझे बिठा कर किनारे पे
लौट जाने के लिए
कभी यूं भी
@copyrights Arti Tiwari
तेरे-मेरे वो पल
प्रेम के वे पल
जिन्हें लाइब्रेरी की सीढ़ियों पे बैठ हमने बो दिए थे
बंद आंखों की नम ज़मीन पर उनका प्रस्फुटन
महसूस होता रहा
कॉलेज छोड़ने तक
बंद आंखों की नम ज़मीन पर उनका प्रस्फुटन
महसूस होता रहा
कॉलेज छोड़ने तक
संघर्ष की आपाधापी में
फिर जाने कैसे विस्मृत हो गए
रेशमी लिफाफों में तह किये वादे जिन्हें न बनाये रखने की
तुम नही थीं दोषी प्रिये
मैं ही कहां दे पाया
भावनाओं की थपकी
तुम्हारी उजली सुआपंखी आकांक्षाओं को
जो गुम हो गया
कैरियर के आकाश में
लापता विमान सा
फिर जाने कैसे विस्मृत हो गए
रेशमी लिफाफों में तह किये वादे जिन्हें न बनाये रखने की
तुम नही थीं दोषी प्रिये
मैं ही कहां दे पाया
भावनाओं की थपकी
तुम्हारी उजली सुआपंखी आकांक्षाओं को
जो गुम हो गया
कैरियर के आकाश में
लापता विमान सा
तुम्हारी प्रतीक्षा की आँख
क्यों न बदलती आखिर
प्रतियोगी परीक्षाओं में
तुम्हें तो जीतना ही था!
हां, तुम डिज़र्व जो करती थीं !
क्यों न बदलती आखिर
प्रतियोगी परीक्षाओं में
तुम्हें तो जीतना ही था!
हां, तुम डिज़र्व जो करती थीं !
हम मिले क्षितिज पे
अपना अपना आकाश
हमने सहेज लिया
उपेक्षित कोंपलों को
वफ़ा के पानी का छिड़काव कर
हम दोनों उड़ेलने लगे
अंजुरियों भर भर कर
मोहब्बत की गुनगुनी धूप
वफ़ा के पानी का छिड़काव कर
हम दोनों उड़ेलने लगे
अंजुरियों भर भर कर
मोहब्बत की गुनगुनी धूप
अभी उस अलसाये पौधे ने
आंखे खोली ही थीं कि
हमें फिर याद आ गए
गन्तव्य अपने अपने !
हम दौड़ते ही रहे
सुबह की चाय से
रात की नींद तक
पसरे ही रहे हमारे बीच काम
घर बाहर मोबाइल लैपटॉप
आंखे खोली ही थीं कि
हमें फिर याद आ गए
गन्तव्य अपने अपने !
हम दौड़ते ही रहे
सुबह की चाय से
रात की नींद तक
पसरे ही रहे हमारे बीच काम
घर बाहर मोबाइल लैपटॉप
फिट रहना
सुंदर दिखना
अपडेट रहने की दौड़
आखिर हम जीत ही गए
बस मुरझा गया
पर्याप्त प्रेम के अभाव में
लाल- लाल कोंपलों वाला
हमारे प्यार का पौधा
जो हमने रोपा था
लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ
सुंदर दिखना
अपडेट रहने की दौड़
आखिर हम जीत ही गए
बस मुरझा गया
पर्याप्त प्रेम के अभाव में
लाल- लाल कोंपलों वाला
हमारे प्यार का पौधा
जो हमने रोपा था
लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ
कुछ लम्हे फुरसत के
जैसे पहाड़ पे
उतर आती है धूप
चुरा के रेशमी गुच्छे
कोमल किरणों के
जैसे एक नदी
मुस्कुरा उठती है, अनायास
किसी अजनबी कंकड़ के
परदेसी स्पर्श से
मुस्कुरा उठती है, अनायास
किसी अजनबी कंकड़ के
परदेसी स्पर्श से
जैसे गायों के झुंड से
तहसनहस हुए बगीचे में
किसी टहनी पर
फूटती एक कली
बची रहने की
ख़ुशी मना रही हो
तहसनहस हुए बगीचे में
किसी टहनी पर
फूटती एक कली
बची रहने की
ख़ुशी मना रही हो
वैसे ही तुम भी
कामों के इस ढेर से
गर्दन झटक कर
मुट्ठी में क़ैद कर लो
फुरसत के कुछ लम्हे
कामों के इस ढेर से
गर्दन झटक कर
मुट्ठी में क़ैद कर लो
फुरसत के कुछ लम्हे
कभी जीकर देखो ऐसे भी
कभी यूं भी
ज़ेहन में कौंध गईं स्मृतियां
वही सोलहवें साल वाली
जब तुम, एक चित्रलिपि सी
एक बीजक मंत्र सी
अबूझ पहेली थीं
वही सोलहवें साल वाली
जब तुम, एक चित्रलिपि सी
एक बीजक मंत्र सी
अबूझ पहेली थीं
जब पत्तियां थीं, फूल थे
पर सिर्फ मैं नही था
तुम्हारी नोटबुक में
चकित, विस्मित दरीचों की ओट से
पढ़ता तुम्हारा लिखा
इतिहास बनाती तुम
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
जो कहीं न था नोटबुक में
उसे ही पढ़ने की जिद
...कभी यूं भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी
मेरी ही आवाज़ की
नदारद था तुम्हारा उच्चारा
मेरा नाम
ऐसी कैसी कोयल, कूकने को
राजी न थी जो
मुझे लगा तुम्हारा अनिंद्य सौंदर्य
रुग्ण हो जैसे
जैसे पानी में उतरी परछाईं
जो डूब गई हो
मुझे बिठा कर किनारे पे
लौट जाने के लिए
कभी यूं भी
सिर्फ फूल ही नहीं
गमले भी गुनहगार थे
मेरी उदासी के
गमले भी गुनहगार थे
मेरी उदासी के
आहें, चाहें, उमंगें, तरंगे
बेगानी हुई
इन्हीं की नसीहतों से
बेगानी हुई
इन्हीं की नसीहतों से
फिक्र
वो एक मासूम फिक्र है
अन्यास पैदा हुई
लाभ हानि के गणित से जुदा
मन की दुर्गम घाटियों से
संभल संभल के गुज़रती
हौले से खोल सीमाओं की सांकलें
उतर आई प्रार्थनाओं के स्वर में
व्यक्त हुई दफ़्न होने के पहले
संभल संभल के गुज़रती
हौले से खोल सीमाओं की सांकलें
उतर आई प्रार्थनाओं के स्वर में
व्यक्त हुई दफ़्न होने के पहले
मिलने बिछुड़ने की रीत से
अनभिज्ञ रहकर
सिर्फ कुशल चाहने तक
अनभिज्ञ रहकर
सिर्फ कुशल चाहने तक
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