राजस्थान पत्रिका...संघ परिवार और शेष मीडिया
राजस्थान के प्रमुख अख़बार राजस्थान पत्रिका ने भाजपा शासित राजस्थान सरकार यानी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को खुली चुनौती देते हुए वसु्ंधरा से जुड़ी सारी ख़बरों के बहिष्कार का फ़ैसला लिया है। यह उस क़ानून का विरोध है जिसके ज़रिए वसुंधरा मीडिया का गला घोंट देना चाहती है। यह उस क़ानून का विरोध है जो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ किसी भी जाँच के लिए सरकार की अनुमति को आवश्यक बताता है। कोई भी एजेंसी तब तक करप्शन के मामलों की जाँच नहीं कर सकेगी जब तक सरकार उसकी जाँच के लिए लिखित अनुमति न दे दे। इस दौरान इसकी मीडिया रिपोर्टिंग पर भी रोक रहेगी।
राजस्थान पत्रिका को आरएसएस समर्थक अख़बार माना जाता है लेकिन इस अख़बार ने जिस तरह का स्टैंड अब लिया है वह क़ाबिले तारीफ़ तो है लेकिन हैरानी भी पैदा करता है। क्योंकि मेरा व्यक्तिगत अनुभव इस अख़बार को लेकर काफ़ी कटु रहा है। 1993 में मैंने यहाँ नौकरी के लिए आवेदन भेजा तो मुझे जयपुर बुलाया गया। उस समय मैं लखनऊ में था और नवभारत टाइम्स तब बंद हो गया था। जयपुर पहुँचने पर मेरा स्वागत हुआ और राजस्थान पत्रिका के समाचार संपादक ने मुझसे कहा कि हम लोग टेस्ट वग़ैरह नहीं लेते, आप एक हफ़्ते यहाँ काम करिए और उसी दौरान हम लोग तय करेंगे कि आपको नौकरी मिलेगी या नहीं। मुझे प्रस्ताव अच्छा लगा, मैंने हाँ कह दिया और काम में जुट गया। इस दौरान रिपोर्टिंग की और ख़बरों का संपादन भी किया। अपनी बहुत शेखी न बघारते हुए संक्षेप में इतना जानिए कि समाचार संपादक और मेरे बॉस को काम पसंद आया।
एक हफ़्ते बाद समाचार संपादक ने कहा कि चलिए आपको प्रधान संपादक से मिलवा देता हूँ जो आपकी नियुक्ति पर अंतिम मुहर लगाएँगे और वह मात्र औपचारिकता है। मुझे एक विशालकाय दफ़्तर में ले जाया गया। समाचार संपादक ने मेरी बेहतरीन रिपोर्ट उनके सामने रखी। फिर संपादक ने मेरा और शहर का नाम पूछा। मैंने बता दिया। लेकिन उसके बाद जो हुआ वह अप्रत्याशित था। संपादक ने समाचार संपादक को डाँटना शुरू कर दिया और कहा कि जब आपको मालूम है कि हम लोग संघ विचारधारा पर चलने वाले अखबार हैं तो आपने एक मुस्लिम लड़के को नौकरी देने का फ़ैसला कैसे कर लिया। ...आप इनको एक हफ़्ते का पैसा दीजिए, आने जाने का किराया दीजिए और यह अगर कहीं घूमना चाहें तो उसका प्रबंध करिए। अख़बार मालिक ने ख़ुद भी माफ़ी माँगी। मुझ उनका बेबाकपन पसंद आया और फ़ौरन वहाँ से बाहर आ गया।
मैंने फ़ौरन यह सोचना शुरू किया कि मुझे उससे पहले स्व. राजेंद्र माथुर तमाम तारीफ़ों के साथ संपादकीय पेज पर छाप चुके थे ....जिन्होंने हिंदी में ही पत्रकारिता के लिए प्रेरित किया। वह तो ऐसे नहीं थे। पत्रकारिता जीवन में नवभारत टाइम्स लखनऊ या दिल्ली में मेरे साथ काम करने वाले मुझसे सीनियर आलोक जोशी, प्रमोद जोशी, अकु श्रीवास्तव, अरविंद प्रताप सिंह. निरंकार सिंह, आदर्श प्रकाश सिंह, गिरीश मिश्रा, आर सुंदर ने कभी मुझसे राजस्थान पत्रिका के संपादक जैसी घटिया सोच के साथ पेश नहीं आए। उसके बाद अमर उजाला के मालिक स्व. अतुल माहेश्वरी के संपर्क में आने के बाद, उनसे देश व समाज के बारे में मिली सीख ने यह समझाया कि मूल भारत का चरित्र वह नहीं है जिसका उदाहरण राजस्थान पत्रिका के तत्कालीन संपादक ने पेश किया था। अतुल जी कहते थे कि अख़बार व पत्रकार किसी एक समुदाय या वर्ग को नजरन्दाज करके आगे नहीं बढ़ सकते। वह महेन्द्र सिंह टिकैत के आंदोलन का ज़िक्र करते थे जिनकी बात तब मेनस्ट्रीम छापने को तैयार नहीं था...वह अयोध्या आंदोलन का ज़िक्र करते थे कि कैसे मीडिया का एक वर्ग अपने सोचने समझने की अक़्ल खो बैठा है।
मुझे दैनिक जागरण में भी काम करने का मौक़ा दो बार मिला । वहाँ मुझे विनोद शुक्ल और चंद्रकांत त्रिपाठी जी का अपार स्नेह मिला। जागरण का सीधा सा फ़ंडा दोनों ने यह बताया कि बिज़नेस और विचारधारा दो अलग चीज़ें हैं। हम संघ या भाजपा की विचारधारा मानने के साथ साथ बिज़नेस और अपने प्रोडक्ट को मज़बूत करने के लिए जो भी बन पड़ेगा, करते हैं। यदि यूसुफ़ किरमानी हमारे अख़बार के लिए ज़रूरी हैं तो इसमें हमारी विचारधारा कहीं आड़े नहीं आती।
बाद के भी पत्रकारिता अनुभवों ने यह बताया कि भारत उस तरह से नहीं चल सकता जिस तरह की सोच तत्कालीन संपादक राजस्थान पत्रिका ने प्रकट की थी। शायद तब उन्हें लगा होगा कि संघ की विचारधारा उन्हें बिज़नेस में भी मज़बूती देगी लेकिन यह वास्तविकता से कोसों दूर था। भारत सभी को साथ लेकर ही आगे बढ़ सकता है। मैंने बरेली में। सहकारिता पर आधारित अख़बार जनमोर्चा का भी संपादन किया। जिसके मालिक स्व. कमलजीत सिंह और उनके मामा थे। जहाँ मुझे अखाबार की नीति तय करने का भी अधिकार था। उन लोगों ने कभी नहीं कहा कि हम अपने अख़बार में सिर्फ़ सिखों की विचारधारा का प्रचार करेंगे। इस अख़बार की कमान अब उनके भाई संभाल रहे हैं।
बहरहाल, राजस्थान पत्रिका को बधाई कि जब देश के मीडिया जगत को मिलकर वसुंधरा राजे सिंधिया के काले कानून को चुनौती देनी चाहिए थी, तब यह पहल अकेले राजस्थान पत्रिका ने की है। मीडिया का एक बड़ा तबक़ा जब गोदी मीडिया कहला रहा है और उसकी कुल दरकार प्रधानमंत्री के साथ एक अदद सेल्फ़ी लेने की रह गई है तो कहीं से भी उम्मीद की कोई किरण अगर फूटती नज़र आती है तो उसका स्वागत किया जाना ही चाहिए।
टिप्पणियाँ