संघ प्रमुख के विचार और राजनीतिक नियम



आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत क्या मोदी को हटाना चाहते हैं या वह 2019 में नए चेहरे को पीएम पद पर बैठाना चाहते हैं...उनका नागपुर में स्कयं सेवकों के बीच दिया गया कल का बयान काफी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि भाजपा किसी एक ख़ास व्यक्ति की वजह से नहीं जीत रही बल्कि तात्कालिक परिस्थितियाँ उसकी मदद कर रही हैं।...

भागवत की इन बातों के बहुत गहरे अर्थ हैं।...वो मंत्री, वो सांसद, वो विधायक, वो भाजपा नेता और थर्ड क्लास भक्त जो उठते बैठते मोदी-मोदी करते हैं उनसे संघ प्रमुख ख़ुश नहीं हैं। संघ प्रमुख भविष्य देख रहे हैं...उनकी नज़र लक्ष्य पर है। 

...पर वह यह कहना चाहते हैं कि संघ की बजाय किसी ख़ास का मुखौटा लगाकर जिस तरह भाजपा आगे बढ़ रही है वह घातक है क्योंकि भाजपा संघ की पैदा की गई परिस्थितियों की वजह से जीत रही है न कि नरेंद्र मोदी या अमित शाह की वजह से।

संघ प्रमुख ने यह बात शीशे की तरह साफ़ कर दी है कि अगर किसी संगठन में व्यक्ति पूजा शुरू हो जाए तो वह पार्टी कांग्रेस बनते देर नहीं लगती है। एक अच्छे खासे राजनीतिक दल कांग्रेस की गिरावट हमारे सामने है। व्यक्ति या परिवार पूजा ने इस पार्टी को आज रसातल में पहुँचा दिया है।

लेकिन भागवत जी पूँजीवादी राजनीति के कुछ नियम भूल गए हैं। उनकी सारी बातें सही हो सकती हैं लेकिन राजनीति के कुछ नियम हैं जो कांग्रेस को तो क्या भाजपा को भी रसातल में ले जाएँगे। उनका संगठन भी उसी पूँजीवादी राजनीति या व्यवस्था का हिस्सा है। भारत जैसे देश में आवारा पूँजीवाद (क्रोनी कैपटलिज्म) ने देश  की राजनीति को भी आवारा बना दिया है। जहाँ नियम क़ायदे कोई राजनीतिक दल या उसका मातृ संगठन नहीं तय कर रहे हैं। सब कुछ आवारा पूँजीवाद तय कर रहा है। 

मसलन कोई भी नेता किसी भी बैकग्राउंड से आए लेकिन पूँजीवादी राजनीति उसे भ्रष्ट और निरंकुश बना देती है। यह राजनीति उसे बताती है कि वही महत्वपूर्ण है बाक़ी सब महत्वहीन है। उसके शीर्ष पर होने से ही उसकी पार्टी का वजूद है। पूँजीवादी राजनीति इस बात की पुख़्ता व्यवस्था करती है कि जिस ग़ुलाम को वह शीर्ष पद पर लेकर आई है उसे इस्तेमाल किए जाने तक हर तरह की मदद देकर उसे क़ायम रखती है। ....एक समय माना जाता था कि आडवाणी तो अटल से भी बड़े नेता हैं। लेकिन पूँजीवादी राजनीति ने उन्हें निरंकुश बनने का लालच दिया और वह खुद को सबसे ताक़तवर मान बैठे।...उनके ही मातृ संगठन ने उन्हें ज़मीन पर पटक दिया। यह काम संघ के ज़रिए पूँजीवादी राजनीति ने कराया। 

भागवत जी, आप यह मान लीजिए कि बिना पूँजीवादी राजनीति के ख़ात्मे के आप अपने किसी भी मुखौटे को एक सीमा से आगे संचालित नहीं कर सकते। एक सीमा के बाद उस मुखौटे को पूँजीवादी राजनीति संचालित करती है। आपका संगठन उसे क़ाबू नहीं कर सकता। आप उस मुखौटे को नोच कर फेंक सकते हैं लेकिन अगला चयन भी आपको पूँजीवादी राजनीति के किसी एजेंट का ही करना पड़ेगा। पूँजीवादी राजनीति अपने क़लम के सिपाहियों को आदेश देती है कि किन्हें पीएम मटीरियल लिखना है और किसे नहीं। यानि कौन पीएम बनने लायक है कौन नहीं। बस आपको यह तय करना होता है उसमें से किसका चयन किया जाना है। पूँजीवादी राजनीति ऐसे संगठनों व राजनीतिक दलों को जेब में रखकर चलती है। वह अपने इरादे अपने प्यादे क़लम के सिपाहियों के ज़रिए ज़ाहिर कर देती है। तमाम राजनीतिक दल ग़ुलामों की तरह उसी पूँजीवादी राजनीति का हुक्म बजाते हैं। 

अगर संघ अगर वाक़ई इस देश का भला चाहता है तो क्यों नहीं वह पूँजीवादी राजनीति को बदलने की बात करता है ? क्यों नहीं वह पूँजीवादी व्यवस्था से लड़ने की बात करता ?  क्यों नहीं वह किसानों के हितों के लिए सड़कों पर उतरता है ? क्यों नहीं वह सामाजिक न्याय के मुद्दे पर नीति स्पष्ट करता है ? मोहन भागवत के किसी दलित के घर जाने या भोजन करने मात्र से दलितों के हालात नहीं सुधरने वाले। अभी मुंबई में किसानों का जो सैलाब दिखा,  आजतक संघ कभी किसानों का इतना बड़ा सैलाब जुटा पाया? हाँ, वह धर्म के नाम पर ज़रूर लोगों का सैलाब दिखाने में कामयाब रहता है। पूँजीवादी राजनीति में धर्म एक मोहरा भर है। संघ या मोहन भागवत को वही करना पड़ेगा जो पूँजीवादी राजनीति कराएगी। हो सकता है कि कभी संघ का ही कोई विचारक या स्वयंसेवक इस रहस्य का पर्दाफ़ाश करे कि दरअसल संघ आवारा पूँजीवाद का ही हिस्सा था या है। 


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