हमारा तेल खरीदो, हमारा हथियार खरीदो...फिर चाहे जिसको मारो-पीटो
भारत
अमेरिका-इस्राइल-अरब के जाल में फँस गया है। नया वर्ल्ड ऑर्डर (विश्व
व्यवस्था) अपनी शर्तें खुलेआम बता रहा है। ...हमारा तेल ख़रीदो और हमारे ही
हथियार ख़रीदो। नहीं तो बम धमाकों, तख़्ता पलट, दंगों का सामना करो।...अगर
किसी आतंकवादी गुट से बातचीत या समझौता करना होगा तो वह भी हम करेंगे। अगर
तुम अपने देश में अपनी किसी आबादी या समूह पर जुल्म करना चाहते हो, उनका
नरसंहार करना चाहते हो तो वह हमारी बिना मर्जी के नहीं कर सकते। हमारी
सहमति है तो उस आबादी और समूह से तुम्हारी फौज, तुम्हारी पुलिस कुछ भी करे,
हम कुछ नहीं बोलेंगे। बस तुम्हारी अर्थव्यवस्था हमारी मर्जी से चलनी चाहिए
और वहां के समूहों को कुचलने में हथियार हमारे इस्तेमाल होने चाहिए।
इस
वर्ल्ड ऑर्डर में चीन और उसका सिल्क रूट, ईराऩ जैसे कई मुल्क सबसे बड़ी
बाधा हैं। भारत ने तटस्थ होने की कोशिश की लेकिन उसके नेता नैतिक साहस नहीं
जुटा पाए और अमेरिकी वर्ल्ड आर्डर के सामने घुटने टेक दिये।
#अमेरिका
ने #भारत से कहा, #ईरान का तेल मत ख़रीदो, हम सऊदी अरब से महँगा तेल दिलवा
देंगे लेकिन ख़रीदना सऊदी का तेल ही पड़ेगा। यानि अब भारत महँगा तेल #सऊदी #अरब से ख़रीदेगा। भारत में तेल महँगा बिकेगा, महँगाई बढ़ेगी। भारत के
मौजूदा नेतृत्व में इंदिरा गांधी जैसा साहस नहीं है कि वह अमेरिकी वर्ल्ड
आर्डर को चुनौती दे सके। इंदिरा गांधी यूं ही नहीं कहती थीं कि सीआईए उनकी
हत्या कराना चाहता है। सीआईए ने पाकिस्तान की मदद से #खालिस्तान आंदोलन खड़ा
कराया। खालिस्तानी नेता अमेरिका- #कनाडा में बैठकर भारत में अलग देश बनवाने
की कोशिश करते रहे। इसी दौरान इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। अमेरिकी मदद
से #लिट्टे खड़ा हुआ। पूरी फंडिंग अमेरिका- #इस्राइल पोषित कंपनियों की थी।
लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या कर दी। भारत में अब भाजपा की सरकार है।
उसका झुकाव शुरू से अमेरिका-इस्राइल की तरफ रहा है। वहां के संगठनों से
फंडिंग तक होती रही है। यानी भारत में उन तीन देशों के अनुकूल सरकार है।
खैर, हमारी बाततीच का विषय नया अमेरिकी वर्ल्ड आर्डर और भारतीय हितों को समझना है।
सऊदी
अरब के अय्याश शेख़ और आले सऊद तेल बेचकर मिलने वाले पैसे अमेरिकी बैंकों
में रखते हैं। पूरा लेनदेन अमेरिकी सरकार की नजर में होता है। लेहमन बैंक
जब अमेरिका में डूबा तो शेखों के पैसे भी डूब गए। लेकिन अमेरिका का जो
घराना दुनिया के सारे बैंकों को नियंत्रित करता है, उस पर कोई असर नहीं
पड़ा। उसने सऊदी पैसों को पहले ही ठिकाने लगा दिया था। नाम के लिए तेल सऊदी
अरब का है, दरअसल, उस पर अमेरिकी-इस्राइली कंपनियों का नियंत्रण है।
सऊदी
अरब में कल सरेआम 37 लोगों को आले सऊद की हुकूमत ने क़त्ल करा दिया। उनकी
लाशों के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें वहां खंभों पर टांग दिया गया। कत्ल किए
जाने वालों में वहाँ बग़ावत की आवाज़ बुलंद करने वाले शिया-सुन्नी मौलाना,
छात्र, मज़दूर शामिल थे। इसमें वह लड़का अब्दुल हकीम भी था जिसे 16 साल की
उम्र में पकड़ा गया और अब बालिग होने पर 19 साल की उम्र में कत्ल कर दिया
गया। पूरी दुनिया में मानवाधिकार की चिंता करने वाले अमेरिका ने वहाबी
हुकूमत के इस जुल्म पर एक शब्द भी नहीं कहा। सरेआम कत्ल का आदेश वहाबियत के
पैरोकार उस सऊदी प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने दिया था जिसे अभी हाल ही में
भारत और पाकिस्तान आने पर दोनों देशों में सम्मानित किया गया था।
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#तालिबान
जो एक आतंकवादी संगठन है और भारतीय हितों के खिलाफ काम करता है। उसके
दोस्त अलक़ायदा और आईएस दुनिया के किसी भी हिस्से में धमाका कर देने की
ताकत रखते हैं। ओसामा बिन #लादेन से लेकर अब तक आईएस की लीडरशिप को खड़ा
करने वाले अमेरिका, इस्राइल, सऊदी अरब ही हैं। ईरान और सीरिया को तोड़ने के
लिए इस्राइल के नियंत्रण वाले गोलान हाइट से एक अनजान से मुसलमानों के नाम
पर कलंक अबू बकर #बगदादी को तलाशा गया और उसे रातोंरात #खलीफा बनाकर
आईएसआईएस की कमान सौंप दी गई। यह साजिश सीरिया और ईरान ने आपसी समझबूझ से
नेस्तोनाबूद कर दी। दुनिया में अपनी दादागीरी स्थापित करने के लिए अमेरिका
उसी तालिबान, #अलकायदा और #आईएस के आतंकियों से समझौता करने के लिए कभी उनके
साथ सऊदी अरब की राजधानी रियाद में बात करता है तो कभी नार्वे में। यह सीधा
सा संकेत है कि अमेरिका चाहे तो क्या नहीं कर सकता। #आतंकी संगठनों के खाते
सऊदी अरब में खुले हुए हैं और पैसा उनमें अमेरिका-इस्राइल से आता है।
सोचिए,
अगर अमेरिका #आतंकवाद के खिलाफ है तो वह तालिबान और आईएस से बात क्यों कर
करता रहता है? अगर अमेरिका मानवाधिकार का इतना बड़ा रक्षक है तो सऊदी अरब
में किए जा रहे कत्ल पर उसकी जुबान बंद क्यों है। अगर अमेरिका इतना बड़ा
हकपरस्त है तो फिलस्तीन समेत एशिया के कई देशों में जो समूह अपनी आजादी और
अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनके साथ क्यों नहीं खड़ा हो रहा है।
ऐसा क्यों है कि इन सभी देशों में इस्राइली हथियारों का इस्तेमाल उन समूहों
और उन आवाजों को कुचलने के लिए हो रहा है। पिछले दिनों जब भारत ने #पाकिस्तान के बालाकोट में बम बरसाये तो पाकिस्तानी मीडिया और अमेरिकी
मीडिया में यह रिपोर्ट और लेख छापे गए कि अब समय आ गया है कि पाकिस्तान ने
इस्राइली हथियार खरीदने पर जो अघोषित बैन लगा रखा है, वह खत्म करे और
इस्राइल से हथियार खरीदे जायें। ताकि उनका इस्तेमाल भारत पर किया जा सके।
यानी इस्राइली-अमेरिकी परस्त लेखकों, सैन्य अफसरों ने पाकिस्तान सरकार को
सलाह दी कि वह भी भारत की ही तरह इस्राइल से हथियार खरीदे। ऐसी सलाह देने
वाले दरअसल पाकिस्तान के हित चिंतक नहीं थे, बल्कि वे इस्राइली हथियार
कंपनियों की लॉबिंग कर रहे थे। ऐसा होने पर फायदे में कौन रहेगा, जाहिर है
इस्राइल रहेगा, जिसका हथियार बिकेगा। भारत-पाकिस्तान अगर लड़ते हैं, युद्ध
करते हैं तो फायदे में इस्राइल-अमेरिकी कंपनियां रहेंगी, जिनके हथियारों का
इस्तेमाल दोनों देश करेंगे।
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#श्रीलंका
में मामूली आबादी में मुसलमान रहते हैं। वहाँ की सरकार को और वहाँ के
मुसलमानों को एक दूसरे से कभी कोई शिकायत नहीं रही है। इसके बावजूद
श्रीलंका में कोआर्डिनेटेड बम धमाके कराये जाते हैं जो बिना बाहरी देश की
मदद के बिना नामुमकिन है। श्रीलंका को स्पष्ट चेतावनी है कि वह चीन के
ग्रुप से बाहर निकले। हिंद महासागर में श्रीलंका का सामरिक महत्व है। 900
बिलियन डॉलर वाले चीनी सिल्क रूट का श्रीलंका मुख्य ट्रांजिट पॉइंट है। इस
सिल्क रूट में #चीन के बाद श्रीलंका, ईरान, पाकिस्तान सबसे महत्वपूर्ण
कड़ियाँ हैं। श्रीलंका सिल्क रूट का फायदा उठाकर अपने देश को आत्मनिर्भर
बनाने के लिए चीन की तरफ बढ़ रहा है। अमेरिका को श्रीलंका की यह जुर्रत
पसंद नहीं है।
चीन
पर पाकिस्तान की निर्भरता बढ़ती जा रही है। जब एक तरफ़ ईरान और उसके तेल
पर दुनिया के तीन बड़े आतंकवादी परस्त देश अमेरिका, इस्राइल और सऊदी अरब
तमाम तरह के प्रतिबंध लगा रहे हैं तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान
ईरान की यात्रा पर चले जाते हैं। ये कूटनीतिक संकेत इशारों में दिये जाते
हैं। बहुत साफ़ है कि इमरान की वही नीतियाँ हैं जो बेनज़ीर भुट्टो की थीं।
पाकिस्तान का इस्तेमाल अमेरिका अपने हितों के लिए करता रहा है। अफगानिस्तान
को रूस के प्रभुत्व से मुक्त कराने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से
वहां तालिबान को खड़ा किया था। अमेरिका के कहने पर पाकिस्तान के पूर्व
तानाशाह परवेज मुशर्फ ने ओसामा बिन लादेन को अपने देश में शरण दी। लादेन
वहां छिपा रहा, अमेरिका ने उसे कुछ समय बाद मार भी दिया। लाश को समुद्र में
बहा दिया। बगदादी मरा या जिंदा है, कोई नहीं जानता। अमेरिका-इस्राइल लादेन
या अबू बकर बगदादी जैसे जो पात्र गढ़ते हैं और खड़ा करते हैं, उनकी मौत पर
अंत तक रहस्य बना रहता है। अफगानिस्तान मिशन अब पूरा हो चुका है। लेकिन
पाकिस्तान कम चालाक नहीं है। उसने चीन से दोस्ती गांठ ली। चीन अब पाकिस्तान
में पानी की तरह पैसा बहा रहा है। ईरान-चीन की दोस्ती पहले से ही चली आ
रही है। पाकिस्तान की नई हुकूमत को ईरान से दोस्ती इन्हीं हालात के
मद्देनजर करनी पड़ रही है। इमरान का ईरान में जाकर यह कहना कि हां, हमारे
ही देश के आतंकी संगठन ने आपके सैनिकों की हत्या की है। संकेत साफ है कि
इमरान अब ईरान के खिलाफ अपने देश से कोई आतंकवादी गतिविधि नहीं चलने देंगे।
एक
तरफ तो अमेरिकी परस्त मीडिया और इस्राइल मिलकर मुसलमानों को विश्वव्यापी
आतंकी कौम घोषित करने में लगे हुए तो दूसरी तरफ चीन में रहने वाले उगुइर
मुसलमानों की चिंता के नाम पर घड़ियाली आंसू भी बहाते हैं। तमाम उगुइर नेता
इस समय अमेरिका में रह रहे हैं और चीन के एक हिस्से में उगुइर मुसलमानों
को हिंसा के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इस्राइली एनजीओ भी इन उगुइर नेताओं की
फंडिंग करते हैं। अचानक आप देखेंगे कि चीन में मानवाधिकारों की कथित हत्या
पर अमेरिकी परस्त प्रेस लंबे चौड़े लेख प्रकाशित करती रहती है। इस तरह चीन
को अमेरिका-इस्राइल घेरना चाहते हैं लेकिन चीन इस समय इतना शक्तिशाली है
कि वह इनके काबू में नहीं आ रहा है। चीन, ईरान, रूस मिलकर अमेरिका के सामने
ऐसी प्रतिरोधी ताकतें बन गई हैं जो अमेरिका-इस्राइल को चिंतित रखती हैं।
ईरान
के चारों तरफ़ फैले मुल्क अगर अमेरिकी-इस्राइली-सऊदी नेक्सस में नहीं
होंगे तो अमेरिका ईरान पर हमला नहीं कर पायेगा। अमेरिका ने ईरान की
इस्लामिक क्रांति के दौरान ऐसी हिमाक़त की थी लेकिन उसके छह फाइटर विमान
नष्ट हो गए थे। इसलिए तीन देशों के इस नेक्सस को भारत और श्रीलंका के
एयरबेस चाहिए। जहाँ से उसके फाइटर विमान ईरान पर चढ़ाई कर सकें। अमेरिका,
भारत और सऊदी अरब की जनता चाहे भले ही इन हमलों के पक्ष में न हो लेकिन
वहाँ की सरकारें उन तेल बेचने वाले अमीरों और हथियार बनाने वाली कंपनियों
के हितों को देख रही है। इसलिए नए अमेरिकी वर्ल्ड आर्डर में
भारत-श्रीलंका-अफगानिस्तान-पाकिस्तान जैसे देशों का महत्व बढ़ गया है।
लेकिन ये देश इस्तेमाल होने के लिए बने हैं। चूंकि ईरान के नजदीक हैं इसलिए
अमेरिका ईरान को घेरने के लिए इन छोटे देशों का हर तरह से इस्तेमाल करना
चाहता है।
भारत
का मौजूदा नेतृत्व जो इस देश को बहुत शक्तिशाली बता रहा है और आने वाले
वक्त में विश्व महाशक्ति बनने की बात भी कर रहा है तो क्यों नहीं अमेरिका
को नजरन्दाज कर ईरान से तेल की खरीद जारी रखने की घोषणा करता। तेल भारत की
लाइनफलाइन है। तेल के दाम से ही यहां महंगाई घटती और बढ़ती है। ईरानी तेल
जब हमारे लिए सस्ता है और भारत के हित में है तो अमेरिका को मना करने में
क्या हर्ज है। भारत को अमेरिकी हितों की चिंता छोड़कर अपने हितों की चिंता
करनी चाहिए। ईरान का तेल भारत को तमाम संकटों से बचा सकता है लेकिन महंगा
सऊदी तेल भारत में नए संकटों को जन्म दे सकता है। जिसका असर देश के
राजनीतिक नेतृत्व पर पड़ना तय है।
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