गोदी मीडिया पर रवीश का चला बुलडोजर

गोदी मीडिया पर चला रवीश कुमार का बुलडोजर
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भारत आज रवीश कुमार Ravish Kumar बन गया है। भारतीय पत्रकारिता के सबसे बुरे दौर में रवीश को रेमन मैगसॉयसॉय पुरस्कार के लिए चुना जाना एक ऐसी ठंडी हवा की झोंके की तरह है जब आप डर, दबाव, आतंक के पसीने में तरबतर होते हैं। एक क्लोज ग्रुप में जिसमें रवीश भी हैं, उसमें एक मित्र ने टिप्पणी आज सुबह टिप्पणी की कि - गोदी पत्रकारों और गोदी पत्रकारिता पर बुलडोजर चल गया।...सचमुच यह टिप्पणी बताती है कि कुछ पत्रकार जिन मनःस्थितियों में गुजर रहे हैं, उनके लिए यह कितनी बड़ी खुशी का दिन है। ताज्जुब है कि प्रधानमंत्री समेत सत्तारूढ़ सरकार के किसी मंत्री संतरी को यह महसूस नहीं हुआ कि भारत का गौरव बढ़ाने के लिए वे भी रवीश को बधाई देते। हालाँकि वे हर चिंदी चोर को छोटा पुरस्कार या सम्मान पाने पर बधाई देना नहीं भूलते।
हिंदी पत्रकारिता को वह सम्मान इस देश में नहीं प्राप्त है, जो अंग्रेजी या दूसरी क्षेत्रीय भाषा की पत्रकारिता को प्राप्त है। लेकिन एक अकेले बंदे ने आज तमाम मान्यताओं को ध्वस्त कर बताया कि अगर आपको बात कहने का निडर तरीका आता है, बेशक किसी भी भाषा में, तो उसकी धमक दूर तक सुनाई देती है।

गोदी मीडिया के भी कुछ पत्रकार आज रवीश को बधाई देते नजर आए, जो उनकी अंधेरा, एसएससी और नौकरी सीरीज पर की गई रिपोर्टिंग का मजाक उड़ाते देखे और सुने गए थे। मुझे याद है कि जब मैंने टीवी स्क्रीन पर अंधेरा वाली रिपोर्ट की तारीफ पत्रकारों के एक समूह में की तो कैसे वहां बैठे मेरे ही पत्रकार साथियों ने उसका मजाक उड़ाया। ...चुनावों के दौरान गांवों की रिपोर्टिंग ने उन्हें बाकी पत्रकारों से हमेशा अलग खड़ा किया।

जिस तरह की पत्रकारिता में जोखिम है, रवीश ने हमेशा उस जोखिम को उठाया। लेकिन उनका जोखिम सलीके वाला होता है, अतिरेक वाला नहीं। जब टीवी मीडिया में चिल्लाना ही सफलता का सबसे बड़ा पैमाना हो, वहां सूकून और शीलनता से बात कहने का अंदाज रवीश का अपना यूनीक फॉर्म्युला है। वह यह भी कहने से नहीं चूकते कि अंग्रेजी में मेरा हाथ तंग है, इसलिए हिंदी में ही उस बात को कहने या बताने की कोशिश रवीश अपने ढंग से करते हैं।

सत्तारूढ़ पार्टी ने रवीश का रास्ता रोकने की हर चंद कोशिश की। आईटी सेल ने भाड़े के लोगों को रवीश को डराने की सुपारी तक दी। उनका मोबाइल नंबर सार्वजनिक कर उन्हें अंध भक्तों से आतंकित करने की कोशिश भी हुई। ...लोग रोजना इस खबर का इंतजार करते थे कि रवीश का प्राइम टाइम अब बंद होगा...बस, अब तो ये गया।...रवीश का पीछा किए जाने की घटना भला कैसे भुलाई जा सकती है। उनके मुंह पर आज तमाचा पड़ा है।

रवीश ने चूंकि खुद को खुद ही गढ़ा है तो इस मामले में एनडीटीवी को सीधे तो बधाई नहीं बनती है लेकिन हां, इतना तो मानना पड़ेगा कि एनडीटीवी ने भी तमाम जोखिम उठाकर रवीश को इतना बड़ा मंच दिया, जिसके जरिए वह अपनी बात लोगों के सामने रख सके। हालांकि तमाम लोगों ने इसके पीछे भी मकसद देखा लेकिन हमें जो सामने से दिखाई देता है कि एनडीटीवी हिंदी को पहचान रवीश ने ही दिलाई। प्रणव रॉय निश्चित रूप से बेहतरीन पत्रकार होने के अलावा चालाक अनुभवी कारोबारी भी हैं। उनकी पारखी नजरों ने रवीश को आंकने में भूल नहीं की। भले ही भारत के सभी टीवी न्यूज चैनल में एक से एक पद्मश्री वाले पत्रकार हों या तथाकथित बड़े नाम हों लेकिन रवीश के मुकाबले वे कहीं खड़े नहीं हो सकते। वे भी नहीं जो लुच्चे लंफगे नेताओं के साथ सेल्फी खिंचवाते चलते हैं।

मैं देख रहा हूं कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, टि्वटर, वाट्सऐप, प्रिंटरेस्ट समेत तमाम सोशल मीडिया प्लैटफॉर्मों पर रवीश कुमार का नाम हलचल पैदा कर रहा है, ट्रेंड कर रहा है। ऐसे आम लोग तमाम जगहों पर बधाई का आदान-प्रदान कर रहे हैं जिन्हें पत्रकारिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है, वे बस रवीश को टीवी के जरिए जानते हैं। मेरी फेसबुक पोस्ट और वाट्सऐप पर ऐसे बधाइयां आ रही हैं जैसे यह पुरस्कार मुझे ही मिला हो। खास यह है कि यह सब नेचुरल है यानी इसके पीछे कुछ भी प्रायोजित नहीं है। वरना आप सोशल मीडिया पर ट्रेंड और लाइक पैसे से खरीद सकते हैं।

...मेरे लोग जानते हैं कि गोदी मीडिया के खिलाफ जब मैं आवाज उठाता हूं तो आज मुझे भी रवीश को इस पुरस्कार के लिए चुने जाने की घोषणा से कितनी खुशी हो रही होगी। शायद कुछ लोगों को मेरी वह फेसबुक पोस्ट याद हो। जिसमें मैंने मेट्रो में यात्रा करते हुए एक शख्स की तस्वीर पोस्ट की थी। वह शख्स पूरे एक घंटे की यात्रा के दौरान रवीश कुमार की लिखी किताब पढ़ रहा था। मुझे यह अच्छा लगा था कि मेरे पसंदीदा टीवी पत्रकार को कोई पढ़ रहा है। लेकिन जैसे ही वह फोटो लोगों के सामने आई तो लोगों ने ही बताया कि वह कोई वीर सिंह हैं, जो वह किताब पढ़ रहे थे। खैर, बाद में वीर सिंह मेरे फेसबुक मित्र बने। लेकिन हिंदी के पत्रकार को मौजूदा दौर में पढ़ा जाना मुझे अच्छा लगा।

उम्मीद है कि मशहूर लेखक मंगलेश डबराल जी को अपनी हिंदी विरोधी टिप्पणी का जवाब आज मिल गया होगा। मंगलेश जी ने हिंदी लेखन और पत्रकारिता में बढ़ती सांप्रदायिकता पर क्षोभ जताते हुए पिछले हफ्ते हिंदी को ही कोस डाला था। उस पर हिंदी के लेखक बहस कर रहे हैं लेकिन रवीश को इस पुरस्कार के योग्य समझे जाने के बाद हिंदी का सम्मान भी कहीं न कहीं बढ़ा है। बेशक टीवी पर आपका लेखन सामने नहीं आता लेकिन जिस दौर में हिंदी पत्रकार बोलने से शरमा रहे हों, डर रहे हों, उस दौर में इस पुरस्कार से हिंदी का सम्मान तो बढ़ा ही है।

बहरहाल, रवीश पर लिखने के लिए बहुत कुछ है। वो फिर कभी। अभी तो इस पुरस्कार की खुमारी उतरने दीजिए। ...मयकदे का पैमाना भरने दीजिए।... आज उनकी महफिल में रतजगा होने दीजिए।

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